Wednesday, July 8, 2020

यहां लगता है भूतों का मेला!

 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)


भारत मेलों का देश भी है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में हर वर्ष हजारों की संख्या में मेले लगते है। आपने भी कई मेलों की सैर की होगी। लेकिन क्या आपने कभी भूतों के मेले के बारे में सुना है? भले ही लोग इसे अंधविश्वास कहें, लेकिन बैतूल जिले से करीब 42 किलोमीटर दूर चिचौली तहसील के गांव मलाजपुर में हर वर्ष मकर संक्रांति की पहली पूर्णिमा से ‘भूतों का मेला’ शुरू होता है। यह मेला एक माह चलता है। ऐसी मान्यता है कि 1770 में गुरु साहब बाबा नाम के एक संत ने यहां जीवित समाधि ली थी। कहा जाता है कि संत चमत्कारी थे और भूत-प्रेत को वश में कर लेते थे। उन्ही की याद में हर वर्ष यहाँ मेला लगता है।

मेले में आने वाले भूत-प्रेत के साये से प्रभावित लोग समाधि स्थल की उल्टी परिक्रमा लगाते हैं। कई बार इस मेले को लेकर विवाद हुए। इसे अंधविश्वास के चलते बंद कराने के प्रयास भी किए गये, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। इस मेले में देश के कई क्षेत्रों से लोग पहुंचते हैं। इनमें ग्रामीणों की संख्या बहुत अधिक होती है। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश के कई आदिवासियों खासकर गोंड, भील एवं कोरकू जनजातियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी से टोटका, झाड़ फूंक एवं भूतप्रेत-चुड़ैल सहित अनेक ऐसे रीति-रिवाज निवारण प्रक्रिया चली आ रही है। बैतूल आदिवासी बाहुल्य जनपद है। मान्यता है कि पीड़ित लोग जब यहां लगे झंडे की परिक्रमा करते हैं, तो बुरी छाया समीप के बरगद पर जाकर बैठ जाती है।

यहां आकर आप कई ऐसे दृष्य देखेंगे जिसे देखकर आप सोच में पड़ जायेंगे। किसी के हाथ में जंजीर बंधी है, तो किसी के पैरों में बेडियां है। कोई नाच रहा है, तो कोई सीटियां बजाते हुए चिढ़ा रहा है। लोग कहते हैं कि ये वे लोग है, जिन पर ‘भूत’ सवार हैं। लोग भले ही यकीन न करें, लेकिन यह सच है कि मेले में भूत-प्रेतों के अस्तित्व और उनके असर को खत्म करने का दावा किया जाता है। यहां के पुजारी लालजी यादव बुरी छाया से पीड़ित लोगों के बाल पकड़कर जोर से खींचते हैं। पुजारी कई बार झाड़ा भी लगाते हैं। यहां लंबी कतार में खड़े होकर लोग सिर से भूत-प्रेत का साया हटवाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करते देखे जा सकते हैं।

एक मान्यता है कि जो पीड़ित ठीक हो जाते हैं, उसे यहां गुड़ से तौला जाता है। यहां हर वर्ष टनों गुड़ इकट्ठा हो जाता है, जो यहां आने वाले लोगों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है। कहा जाता है कि यहां इतनी मात्रा में गुड़ जमा होने के बाद भी यहां मक्खियां या चीटिंयां नहीं दिखाई देतीं। लोग इसे गुरु साहब बाबा का चमत्कार मानते हैं।

यहां आकर लोग पहले स्नान करते हैं उसके बाद समाधि परिक्रमा। यहां मान्यता है कि प्रेत बाधा का शिकार व्यक्ति जैसे-जैसे परिक्रमा करता है, वैसे-वैसे वह ठीक होता जाता है। रोज यहां सायं आरती होती है। इस आरती की विशेषता यह है कि दरबार के कुत्ते भी आरती में शामिल होकर शंख, करतल ध्वनि में अपनी आवाज मिलाते है। इस पर महंत कहते है कि यह बाबा का आशीष है। इस मेले में श्रद्धालुओं के रूकने की व्यवस्था जनपद पंचायत चिचोली तथा महंत करते हैं। 

ऐसी धारणा है कि जिस भी प्रेत बाधा से पीड़ित व्यक्ति को छोडने के बाद उसके शरीर में समाहित प्रेत बाबा की समाधि के एक दो चक्कर लगाने के बाद अपने आप उसके शरीर से निकल कर पास के बरगद के पेड़ पर उल्टा लटक जाता है।  बाद में उसकी आत्मा को शांति मिल जाती है।

जो जानकारी हमें मिल सकी उसके अनुसार इस स्थल का इतिहास यह है कि विक्रम संवत 1700 के पश्चात आज से लगभग 348 वर्ष पूर्व ईसवी सन 1644 के समकालीन समय में गुरू साहब बाबा के पूर्वज मलाजपुर के पास स्थित ग्राम कटकुही में आकर बसे थे। बाबा के वंशज महाराणा प्रताप के शासनकाल में राजस्थान के आदमपुर नगर के निवासी थे। अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य छिड़े घमसान युद्ध के परिणामस्वरूप भटकते हुये बाबा के वंशज बैतूल जिले के इस क्षेत्र में आकर बस गए। बाबा के परिवार के मुखिया का नाम रायसिंह तथा पत्नी का नाम चंद्रकुंवर बाई था जो बंजारा जाति के कुशवाहा वंश के थे। इनके चार पुत्र क्रमशः मोतीसिंह, दमनसिंह, देवजी (गुरूसाहब) और हरिदास थे।

श्री देवजी संत (गुरू साहब बाबा) का जन्म विक्रम संवत 1727 फाल्गुन सुदी पूर्णिमा को कटकुही ग्राम में हुआ था। इनका खाने पीने का ढंग और रहन-सहन का तरीका बड़ा अजीबो-गरीब था। बहुत छोटी अवस्था से ही भगवान भक्ति में लीन श्री गुरू साहेब बाबा ने मध्यप्रदेश के हरदा जिले के अंतर्गत ग्राम खिड़किया के संत जयंता बाबा से गुरूमंत्र की दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात तीर्थाटन करते हुये अमृतसर में अपने ईष्टदेव की पूजा आराधना में कुछ दिनों तक रहें इस स्थान पर गुरू साहेब बाबा को ‘देवला बाबा’ के नाम से लोग जानते हैं। बाबा यहां से कुछ दिनों के लिये भगवान शिव की की पुण्य नगरी काशी प्रवास पर गये, जहां गायघाट के समीप निर्मित दरभंगा नरेश की कोठी के पास बाबा का मंदिर स्थित है।

बाबा की समाधि स्थल पर देख-रेख हेतु पारिवारिक परंपरा के अनुरूप बाबा के उतराधिकारी के रूप में उनके बड़े भाई महंत गप्पादास गुरू गद्दी के महंत हुये। इनके बाद यह भार उनके सुपुत्र परमसुख ने संभाला उनके पश्चात क्रमशः सूरतसिंह, नीलकंठ महंत हुये। उसके बाद 1967 में चन्द्रसिंह महंत हुये। इनकी समाधि भी यही पर निर्मित है। यहां पर विशेष उल्लेखनीय यह है कि वर्तमान महंत को छोड़कर शेष पूर्व में सभी बाबा के उत्तराधिकारियों ने बाबा का अनुसरण करते हुये जीवित समाधियाँ ली।

इसमें सबसे बड़ी विचित्रता यह है कि बाबा के भक्तों का अग्नि संस्कार नहीं होता है। बाबा के एक अनुयायी के अनुसार आज भी बाबा के समाधि वाले इस गांव मलाजपुर में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसके शव को जलाया नहीं जाता है चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो। इस गांव के सभी मरने वालों को उन्हीं के खेत या अन्य स्थान पर समाधि दी जाती है।

इस पर कई साइकोलॉजिस्ट भूत-प्रेत के अस्तित्व को सिरे से खारिज करते हैं। उनके अनुसार मेले में आने वाले लोग निश्चित ही किसी न किसी समस्या से ग्रस्त हैं। उनकी परेशानी मानसिक भी हो सकती है और शारीरिक भी। मानसिक रोग से ग्रस्त परिजनों को लोग यहां ले आते हैं। दरअसल किसी भी रोग के इलाज में विश्वास महत्वपूर्ण होता है। इलाज पर विश्वास होता है तो फायदा भी जल्दी मिलता है। हालांकि यह विषय बहुत ही गूढ है। आसानी से समझ में नहीं आता। कुछ लोग इस पर विश्वास करते हैं कुछ लोग नहीं। लेकिन एैसी घटनायें होती है। इन घटनाओं का जिक्र आप समाचार पत्रों में पढ़ सकते हैं। 

इस संवत्सर पड़ेंगे पांच ग्रहण

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
मानव सेवा रत्न से सम्मानित

सूर्य संपूर्ण जगत की आत्मा का कारक ग्रह है। संपूर्ण चराचर जगत को ऊर्जा प्रदान करता है सूर्य। अतः बिना सूर्य के जीवन की कल्पना करना असंभव है। चंद्रमा पृथ्वी का प्रकृति प्रदत्त उपग्रह है। यह स्वयं सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होकर भी पृथ्वी को अपने शीतल प्रकाश से शीतलता देता है। यह मानव के मन मस्तिष्क का कारक व नियंत्रणकर्ता भी है। कह सकते हैं कि सूर्य ऊर्जा व चंद्रमा मन का कारक है। ग्रहण एक खगोलीय घटना है। जब एक खगोलीय पिंड पर दूसरे खगोलीय पिंड की छाया पड़ती है, तब ग्रहण होता है। जब पृथ्वी पर चन्द्रमा की छाया पड़ती है तब सूर्य ग्रहण होता है। जब पृथ्वी सूर्य तथा चन्द्रमा के बीच आती है, तब चन्द्रग्रहण होता है।  
राहु-केतु इन्हीं सूर्य व चंद्र मार्गों के कटान के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं जिनके कारण सूर्य व चंद्रमा की मूल प्रकृति, गुण, स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है। यही कारण है कि राहु-केतु को हमारे कई पौराणिक शास्त्रों में विशेष स्थान प्रदान किया गया है। राहु की छाया को ही केतु की संज्ञा दी गई है। राहु जिस राशि में होता है उसके ठीक सातवीं राशि में उसी अंशात्मक स्थिति पर केतु होता है। मूलतः राहु और केतु सूर्य और चंद्रमा की कक्षाओं के संपात बिंदु हैं जिन्हें खगोलशास्त्र में चंद्रपात कहा जाता है।

ज्योतिष के खगोल शास्त्र के अनुसार राहु-केतु खगोलीय बिंदु हैं जो चंद्र के पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने से बनते हैं। राहू-केतू द्वारा बनने वाले खगोलीय बिंदु गणित के आधार पर बनते हैं तथा इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। अतः ये छाया ग्रह कहलाते हैं। छाया ग्रह का अर्थ किसी ग्रह की छाया से नहीं है अपितु ज्योतिष में वे सब बिंदु जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं है, लेकिन ज्योतिषीय महत्व है, छाया ग्रह कहलाते हैं जैसे गुलिक, मांदी, यम, काल, मृत्यु, यमघंटक, धूम आदि। ये सभी छाया ग्रह की श्रेणी में आते हैं और इनकी गणना सूर्य व लग्न की गणना पर आधारित होती है। ज्योतिष में छाया ग्रह का महत्व अत्यधिक हो जाता है क्योंकि ये ग्रह अर्थात बिंदु मनुष्य के जीवन पर विषेष प्रभाव डालते हैं। राहु-केतु का प्रभाव केवल मनुष्य पर ही नहीं बल्कि संपूर्ण भूमंडल पर होता है। जब भी राहु या केतु के साथ सूर्य और चंद्र आ जाते हैं तो ग्रहण योग बनता है। ग्रहण के समय पूरी पृथ्वी पर कुछ अंधेरा छा जाता है एवं समुद्र में ज्वार उत्पन्न होते हैं।

इस संवत्सर में कुल 5 ग्रहण लगेंगे। जिसमें से 3 मांद्य चन्द्र ग्रहण होंगे एवं 2 सूर्य ग्रहण। 
1. चन्द्रग्रहण- यह ग्रहण 5 जून को पड़ चुका है। ये छाया चन्द्रग्रहण था।  
2. खण्ड सूर्यग्रहण- यह ग्रहण भी 21 जून को पड़ चुका है। यह भारत में दिखायी दिया था। 
3. छाया चन्द्रग्रहण- यह ग्रहण 5 जुलाई को पड़ चुका है। इसका कोई भी धर्मशास्त्रीय महत्व नहीं था। 
4. छाया चन्द्रग्रहण- कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा सोमवार 30 नवम्बर 2020 को पुनः एक छाया चन्द्रग्रहण लगेगा। इसका कोई भी धर्मशास्त्रीय महत्व नहीं है। स्मरण रखने की बात है कि चन्द्रमा पृथ्वी की धूसर छाया में से होकर गुजरता है तो इस तरह की परिस्थिति बनती है। इसे मांद्य चन्द्रग्रहण भी कहते हैं।
5. खग्रास सूर्यग्रहण- मार्गशीर्ष कृष्ण अमावस्या सोमवार 14 दिसम्बर 2020 को खग्रास सूर्य ग्रहण लगेगा। किन्तु यह सूर्य ग्रहण भारत में बिल्कुल भी दिखायी नहीं देगा। इसका कोई धर्मशास्त्रीय प्रभाव नहीं है। 

सूतक 
सूर्यग्रहण का सूतक स्पर्श समय से 12 घंटे पूर्व प्रारम्भ हो जाता है। चन्द्र ग्रहण का 9 घंटे पूर्व से। स्पर्श के समय स्नान पुनः मोक्ष के समय स्नान करना चाहिये। सूतक लग जाने पर मन्दिर में प्रवेश करना मूर्ति को स्पर्श करना, भोजन करना, मैथुन क्रिया, यात्रा आदि वर्जित है। बालक, वृद्ध, रोगी अधिक आवश्यकता होने पर पथ्याहार ले सकते हैं। भोजन सामग्री जैसे दूध, दही, घी इत्यादि में कुश रख देना चाहिये। ग्रहण मोक्ष के बाद पीने का पानी ताजा ले लेना चाहिये। गर्भवती महिलायें पेट पर गाय के गोबर का पतला लेप लगा लें। गहण अवधि में श्राद्ध, दान, जप, मंत्र सिद्धि आदि का शास्त्रोक्त विधान है। ग्रहण जहां दिखायी देता है सूतक भी वहीं लगता है एवं धर्मशास्त्रीय मान्यतायें भी लागू होती हैं तथा उसका फलाफल भी वहीं लागू होगा। 

ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से सूर्य ग्रहण
प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार है ग्रहण। ज्योतिष के दृष्टिकोण से यदि देखें तो अभूतपूर्व अनोखा, विचित्र ज्योतिष ज्ञान, ग्रह और उपग्रहों की गतिविधियाँ एवं उनका स्वरूप स्पष्ट करता है। सूर्य ग्रहण (सूर्योपराग) तब होता है, जब सूर्य आंशिक अथवा पूर्ण रूप से चन्द्रमा द्वारा आवृ्त (व्यवधान/बाधा) हो जाये। इस प्रकार के ग्रहण के लिये चन्दमा का पृथ्वी और सूर्य के बीच आना आवश्यक है। इससे पृ्थ्वी पर रहने वालों को सूर्य का आवृ्त भाग नहीं दिखाई देता।

    सूर्यग्रहण होने के लिए निम्न शर्ते पूरी होनी आवश्यक है।
    अमावस्या होनी चाहिये।
    चन्द्रमा का रेखांश राहू या केतु के पास होना चाहिये।
    चन्द्रमा का अक्षांश शून्य के निकट होना चाहिये।
उत्तरी धु्रव को दक्षिणी ध्रुव से मिलाने वाली रेखाओं को रेखांश कहा जाता है। भूमध्य रेखा के चारो वृ्ताकार में जाने वाली रेखाओं को अंक्षाश कहा जाता है। सूर्य ग्रहण सदैव अमावस्या को ही होता है। जब चन्द्रमा क्षीणतम हो और सूर्य पूर्ण क्षमता संपन्न तथा दीप्त हों। चन्द्र और राहू या केतु के रेखांश बहुत निकट होने चाहिये। चन्द्र का अक्षांश लगभग शून्य होना चाहिये। यह तब होगा जब चंद्र रविमार्ग पर या रविमार्ग के निकट हों। सूर्य ग्रहण के दिन सूर्य और चन्द्र के कोणीय व्यास एक समान होते हैं। इस कारण चन्द्र सूर्य को केवल कुछ मिनट तक ही अपनी छाया में ले पाता है। सूर्य ग्रहण के समय जो क्षेत्र ढक जाता है उसे पूर्ण छाया क्षेत्र कहते हैं। चन्द्रमा द्वारा सूर्य के बिम्ब के पूरे या कम भाग के ढ़के जाने के कारण ही सूर्य ग्रहण होते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें पूर्ण सूर्य ग्रहण, आंशिक सूर्य ग्रहण व वलयाकार सूर्य ग्रहण कहते हैं।

 खगोल शास्त्रीयों की गणनायें
खगोल शास्त्रियों नें गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिये। यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुये तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे। यद्यपि वर्षभर में 7 ग्रहण तक संभाव्य हैं, फिर भी 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुनः होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं।

सामान्यतः सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। 3 चन्द्रग्रहण पर 4 सूर्यग्रहण का अनुपात आता है। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बडे भाग में प्रायः सौ मील से कम चौडे और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास (जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है) ग्रहण हो तो गुजरात में खण्ड सूर्यग्रहण (जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढंकता है) ही दिखलाई देगा और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण में सूर्य ग्रहण
ग्रहण का समय दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिये भी बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ग्रहण ही वह समय होता है जब ब्राह्मंड में अनेकों विलक्षण एवं अद्भुत घटनायें घटित होतीं हैं जिससे कि वैज्ञानिकों को नवीन तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण पर की गई खोज के सहारे वर्ण मंडल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था। आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पड़ने की बात कही थी। चन्द्रग्रहण तो अपने संपूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौडे क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिकतम 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं। संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही संभव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाये तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाये जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूंजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाये तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी संभव हो सकती है।

भारतीय वैदिक काल और सूर्य ग्रहण
वैदिक काल से पूर्व भी खगोलीय संरचना पर आधारित कलैन्डर बनाने की आवश्कता हुई। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण तथा उनकी पुनरावृत्ति की पूर्व सूचना ईसा से 400 वर्ष पूर्व ही उपलब्ध थी। ऋग्वेद के अनुसार अत्रिमुनि के परिवार के पास यह ज्ञान उपलब्ध था। वेदांग ज्योतिष का महत्त्व हमारे वैदिक पूर्वजों के इस महान ज्ञान को प्रतिविम्बित करता है। ग्रह नक्षत्रों की दुनिया की यह घटना भारतीय मनीषियों को अत्यन्त प्राचीन काल से ज्ञात रही है। चिर प्राचीन काल में महर्षियों नें गणना कर दी थी। इस पर धार्मिक, वैदिक, वैचारिक, वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक एवं ज्योतिषीय ग्रन्थों में होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण के ज्ञान को देने वाले प्रथम आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल अर्थात वैदिक काल से ग्रहण पर अध्ययन, मनन और परीक्षण होते चले आये हैं।

सूर्य ग्रहण के समय हमारे ऋषि-मुनियों के कथन
हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन का निषेध किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणुओं की बहुलता होती है। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं। इसलिये ऋषियों ने पात्रों में कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जायें और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जायें। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिये बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जायें और धुल कर बह जायें।

पुराणों की मान्यता के अनुसार राहु चंद्रमा को तथा केतु सूर्य को ग्रसता है। ये दोनों ही छाया की संतान हैं। चंद्रमा और सूर्य की छाया के साथ-साथ चलते हैं। चंद्र ग्रहण के समय कफ की प्रधानता बढ़ती है और मन की शक्ति क्षीण होती है, जबकि सूर्य ग्रहण के समय जठराग्नि, नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमजोर पड़ती है। गर्भवती स्त्री को सूर्य-चंद्र ग्रहण नहीं देखने चाहिये, क्योंकि उसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन सकता है, गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिये गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहु-केतु उसका स्पर्श न करें। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिला को कुछ भी कैंची या चाकू से काटने को मना किया जाता है और किसी वस्त्रादि को सिलने से रोका जाता है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जाते हैं।

ग्रहण लगने के पूर्व नदी या घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिये। भजन-कीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें। ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें। ग्रहण के समय में मंत्रों का जाप करने से सिद्धि प्राप्त होती है। ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्याग करना, केश विन्यास बनाना, रति-क्रीड़ा करना, मंजन करना वर्जित किये गये हैं। कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राह्मण को दान देने का विधान है। तुलसी का पौधा शास्त्रों के अनुसार पवित्र माना गया है। वैज्ञानिक रूप से भी यह सक्षम है। इसमें मौजूद एंटी ऑक्सीडेंट आस-पास मौजूद दूषित कणों को मार देते हैं। इसलिये तुलसी को खाद्य पदार्थों में डालने से उस भोजन पर ग्रहण का असर नहीं होता। 
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Sunday, July 5, 2020

पक्ष फलादेश- श्रावण कृष्ण पक्ष (6 से 20 जुलाई)

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इडेविन टाइम्स)
पक्ष के 3 सोमवार एवं सोमवारी अमावस्या से युक्त 15 दिनां का पूर्ण पक्ष अत्यन्त शुभ फलकारक है। 6 जुलाई से ही श्रावण मास का प्रारम्भ हो रहा है। चातुर्मास में किया जाने वाला, अक्षुण दाम्पत्य जीवन की कामना से अशून्य शयन का व्रत चन्द्रोदय व्यापिनी द्वितीया तिथि में पक्षारम्भ 6 जुलाई सोमवार को किया जायेगा। चन्द्रोदय रात 08ः05 बजे चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जायेगा। संकष्टी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत का मान 8 जुलाई बुधवार को होगा। चन्द्रोदय रात 09ः32 बजे चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जायेगा। मध्यान्ह व्यापिनी सप्तमी तिथि में शीतलासप्तमी का मान 12 जुलाई रविवार को होगा एवं आज ही सप्तमी तिथि रविवार के योग में भानु सप्तमी का पर्व मनाया जायेगा। इसमें किये जाने वाला स्नान-दान सूर्य ग्रहण में किये जाने वाला स्नानदान के बराबर फलदायी माना जाता है। कामदा (कामिका) एकादशी व्रत का मान सबके लिये 16 जुलाई गुरूवार को होगा। पुत्र की कामना से शनि प्रदोष का व्रत 18 जुलाई को किया जायेगा। मास शिवरात्रि व्रत का मान भी 18 जुलाई शनिवार को होगा। स्नान दान एवं श्राद्ध सहित श्रावणी अमावस, हरियाली अमावस्या एवं सबसे बढ़कर सोमवती अमावस्या का मान 20 जुलाई सोमवार को है। ‘अश्वत्थ मूले.........’ विहित मंत्र का उच्चारण करते हुये सौभाग्यवती स्त्रियां पति सौख्य वृद्धि की कामना से पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमा करेंगीं। माना जाता है कि आज के ही दिन भगवान विष्णु का निवास पीपल वृक्ष की जड़ में हो जाता है। इसी विश्वास के साथ इसको किया जाता है। पुनर्वसू नक्षत्र का सूर्य पक्षारम्भ 6 जुलाई सोमवार को दिन 08ः20 बजे से आयेगा। इसमें सर्वत्र बहुत अच्छी वर्षा के योग मिल रहे हैं। 16 जुलाई गुरूवार को कर्क राशि की सूर्य संक्रान्ति रात 09ः25 बजे से आयेगी और इसी के साथ सूर्य दक्षिण पथगामी (दक्षिणायन) हो जायेगे। इसमें भी सर्वत्र अच्छी वर्षा के योग बन रहे हैं। 10 से 20 जुलाई के बीच में सर्वत्र व्यापक वर्षा की संभावना है।

श्रावण शुक्ल पक्ष (21 जुलाई से 3 अगस्त) का पक्ष फलादेश अगले अंक में पढ़े........................