Wednesday, July 8, 2020

यहां लगता है भूतों का मेला!

 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)


भारत मेलों का देश भी है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में हर वर्ष हजारों की संख्या में मेले लगते है। आपने भी कई मेलों की सैर की होगी। लेकिन क्या आपने कभी भूतों के मेले के बारे में सुना है? भले ही लोग इसे अंधविश्वास कहें, लेकिन बैतूल जिले से करीब 42 किलोमीटर दूर चिचौली तहसील के गांव मलाजपुर में हर वर्ष मकर संक्रांति की पहली पूर्णिमा से ‘भूतों का मेला’ शुरू होता है। यह मेला एक माह चलता है। ऐसी मान्यता है कि 1770 में गुरु साहब बाबा नाम के एक संत ने यहां जीवित समाधि ली थी। कहा जाता है कि संत चमत्कारी थे और भूत-प्रेत को वश में कर लेते थे। उन्ही की याद में हर वर्ष यहाँ मेला लगता है।

मेले में आने वाले भूत-प्रेत के साये से प्रभावित लोग समाधि स्थल की उल्टी परिक्रमा लगाते हैं। कई बार इस मेले को लेकर विवाद हुए। इसे अंधविश्वास के चलते बंद कराने के प्रयास भी किए गये, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। इस मेले में देश के कई क्षेत्रों से लोग पहुंचते हैं। इनमें ग्रामीणों की संख्या बहुत अधिक होती है। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश के कई आदिवासियों खासकर गोंड, भील एवं कोरकू जनजातियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी से टोटका, झाड़ फूंक एवं भूतप्रेत-चुड़ैल सहित अनेक ऐसे रीति-रिवाज निवारण प्रक्रिया चली आ रही है। बैतूल आदिवासी बाहुल्य जनपद है। मान्यता है कि पीड़ित लोग जब यहां लगे झंडे की परिक्रमा करते हैं, तो बुरी छाया समीप के बरगद पर जाकर बैठ जाती है।

यहां आकर आप कई ऐसे दृष्य देखेंगे जिसे देखकर आप सोच में पड़ जायेंगे। किसी के हाथ में जंजीर बंधी है, तो किसी के पैरों में बेडियां है। कोई नाच रहा है, तो कोई सीटियां बजाते हुए चिढ़ा रहा है। लोग कहते हैं कि ये वे लोग है, जिन पर ‘भूत’ सवार हैं। लोग भले ही यकीन न करें, लेकिन यह सच है कि मेले में भूत-प्रेतों के अस्तित्व और उनके असर को खत्म करने का दावा किया जाता है। यहां के पुजारी लालजी यादव बुरी छाया से पीड़ित लोगों के बाल पकड़कर जोर से खींचते हैं। पुजारी कई बार झाड़ा भी लगाते हैं। यहां लंबी कतार में खड़े होकर लोग सिर से भूत-प्रेत का साया हटवाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करते देखे जा सकते हैं।

एक मान्यता है कि जो पीड़ित ठीक हो जाते हैं, उसे यहां गुड़ से तौला जाता है। यहां हर वर्ष टनों गुड़ इकट्ठा हो जाता है, जो यहां आने वाले लोगों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है। कहा जाता है कि यहां इतनी मात्रा में गुड़ जमा होने के बाद भी यहां मक्खियां या चीटिंयां नहीं दिखाई देतीं। लोग इसे गुरु साहब बाबा का चमत्कार मानते हैं।

यहां आकर लोग पहले स्नान करते हैं उसके बाद समाधि परिक्रमा। यहां मान्यता है कि प्रेत बाधा का शिकार व्यक्ति जैसे-जैसे परिक्रमा करता है, वैसे-वैसे वह ठीक होता जाता है। रोज यहां सायं आरती होती है। इस आरती की विशेषता यह है कि दरबार के कुत्ते भी आरती में शामिल होकर शंख, करतल ध्वनि में अपनी आवाज मिलाते है। इस पर महंत कहते है कि यह बाबा का आशीष है। इस मेले में श्रद्धालुओं के रूकने की व्यवस्था जनपद पंचायत चिचोली तथा महंत करते हैं। 

ऐसी धारणा है कि जिस भी प्रेत बाधा से पीड़ित व्यक्ति को छोडने के बाद उसके शरीर में समाहित प्रेत बाबा की समाधि के एक दो चक्कर लगाने के बाद अपने आप उसके शरीर से निकल कर पास के बरगद के पेड़ पर उल्टा लटक जाता है।  बाद में उसकी आत्मा को शांति मिल जाती है।

जो जानकारी हमें मिल सकी उसके अनुसार इस स्थल का इतिहास यह है कि विक्रम संवत 1700 के पश्चात आज से लगभग 348 वर्ष पूर्व ईसवी सन 1644 के समकालीन समय में गुरू साहब बाबा के पूर्वज मलाजपुर के पास स्थित ग्राम कटकुही में आकर बसे थे। बाबा के वंशज महाराणा प्रताप के शासनकाल में राजस्थान के आदमपुर नगर के निवासी थे। अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य छिड़े घमसान युद्ध के परिणामस्वरूप भटकते हुये बाबा के वंशज बैतूल जिले के इस क्षेत्र में आकर बस गए। बाबा के परिवार के मुखिया का नाम रायसिंह तथा पत्नी का नाम चंद्रकुंवर बाई था जो बंजारा जाति के कुशवाहा वंश के थे। इनके चार पुत्र क्रमशः मोतीसिंह, दमनसिंह, देवजी (गुरूसाहब) और हरिदास थे।

श्री देवजी संत (गुरू साहब बाबा) का जन्म विक्रम संवत 1727 फाल्गुन सुदी पूर्णिमा को कटकुही ग्राम में हुआ था। इनका खाने पीने का ढंग और रहन-सहन का तरीका बड़ा अजीबो-गरीब था। बहुत छोटी अवस्था से ही भगवान भक्ति में लीन श्री गुरू साहेब बाबा ने मध्यप्रदेश के हरदा जिले के अंतर्गत ग्राम खिड़किया के संत जयंता बाबा से गुरूमंत्र की दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात तीर्थाटन करते हुये अमृतसर में अपने ईष्टदेव की पूजा आराधना में कुछ दिनों तक रहें इस स्थान पर गुरू साहेब बाबा को ‘देवला बाबा’ के नाम से लोग जानते हैं। बाबा यहां से कुछ दिनों के लिये भगवान शिव की की पुण्य नगरी काशी प्रवास पर गये, जहां गायघाट के समीप निर्मित दरभंगा नरेश की कोठी के पास बाबा का मंदिर स्थित है।

बाबा की समाधि स्थल पर देख-रेख हेतु पारिवारिक परंपरा के अनुरूप बाबा के उतराधिकारी के रूप में उनके बड़े भाई महंत गप्पादास गुरू गद्दी के महंत हुये। इनके बाद यह भार उनके सुपुत्र परमसुख ने संभाला उनके पश्चात क्रमशः सूरतसिंह, नीलकंठ महंत हुये। उसके बाद 1967 में चन्द्रसिंह महंत हुये। इनकी समाधि भी यही पर निर्मित है। यहां पर विशेष उल्लेखनीय यह है कि वर्तमान महंत को छोड़कर शेष पूर्व में सभी बाबा के उत्तराधिकारियों ने बाबा का अनुसरण करते हुये जीवित समाधियाँ ली।

इसमें सबसे बड़ी विचित्रता यह है कि बाबा के भक्तों का अग्नि संस्कार नहीं होता है। बाबा के एक अनुयायी के अनुसार आज भी बाबा के समाधि वाले इस गांव मलाजपुर में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसके शव को जलाया नहीं जाता है चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो। इस गांव के सभी मरने वालों को उन्हीं के खेत या अन्य स्थान पर समाधि दी जाती है।

इस पर कई साइकोलॉजिस्ट भूत-प्रेत के अस्तित्व को सिरे से खारिज करते हैं। उनके अनुसार मेले में आने वाले लोग निश्चित ही किसी न किसी समस्या से ग्रस्त हैं। उनकी परेशानी मानसिक भी हो सकती है और शारीरिक भी। मानसिक रोग से ग्रस्त परिजनों को लोग यहां ले आते हैं। दरअसल किसी भी रोग के इलाज में विश्वास महत्वपूर्ण होता है। इलाज पर विश्वास होता है तो फायदा भी जल्दी मिलता है। हालांकि यह विषय बहुत ही गूढ है। आसानी से समझ में नहीं आता। कुछ लोग इस पर विश्वास करते हैं कुछ लोग नहीं। लेकिन एैसी घटनायें होती है। इन घटनाओं का जिक्र आप समाचार पत्रों में पढ़ सकते हैं। 

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