Sunday, June 21, 2020

परलोक विद्या का रहस्य

 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)

कर्मवश जीव स्वर्ग आदि परलोक में जाता है और वहां सुख-दुख का अनुभव करके तब मनुष्यलोक में पुनर्जन्म लेता है। उसमें कारण यह है कि स्वर्ग आदि स्थान भोगस्थान हैं। उनमें इस लोक में किये हुये कर्मों के भोगार्थ जीव जाता है। वहां वह कर्म करने में समर्थ नहीं होता। इसलिये स्वर्ग में गये हुये जीव देवयोनि  बने हुये भोगयोनि ही माने जाते हैं। तब कर्मफल की समाप्ति के थोड़े शेष कर्मों को लिये जीव पुनः कर्म करने के लिये इस लोक में आता है और मनुष्य बनता है। मनुष्य कर्मयोनि माना जाता है। कर्मफल भोगकर स्वर्ग से गिरकर इस लोक में आना भगवद्गीता में भी कहा है- ‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।’ (9/21) गीता के ही अध्याय 9 के श्लोक संख्या 21 का आशय भी है कि जीव यज्ञ आदि कर्मों से स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं। वहां देवता बनकर दिव्य भोगों को भोगते हैं। फिर पुण्य के समाप्त हो जाने पर स्वर्ग से गिरकर इस मनुष्यलोक को प्राप्त होते हैं।’ यही बात उपनिषद्ों भी कही है- ‘तद् यथा इस कर्मजितो लोकः क्षीयते, एवमेव अमुत्र (परलोक) पुण्यजितो लोकः (स्वर्ग) क्षीयते। (छान्दोग्य0 8/1/6)। यहां स्वर्ग की क्षीणता का तात्पर्य स्वर्ग से गिरकर फिर मनुष्यलोक में पुनर्जन्म लेने में है। मुण्डकोपनिषद में भी कर्मयोनि मनुष्यों के फलभोग के लिये स्वर्गगमन कहा है। तब वे भोगयोनि देव होकर, कर्म समाप्तप्राय हो जाने पर स्वर्गलोक से गिरकर फिर इस मनुष्यलोक में आ जाते हैं और कर्मयोनि होकर कर्म में प्रवृत्त हो जाते है। महाभारत के वनपर्व (261/42) में भी स्वर्ग और सुख दोनों को भिन्न-भिन्न बताया गया है। अतः स्वर्गलोक इस लोक से भिन्न ही सिद्ध हुआ। अथर्ववेद संहिता में द्युलोक, जिसके पृष्ठपर स्वर्गलोक है, पृथ्वीलोक से भिन्न माना गया है। उसी में देवता रहते हैं। इससे सिद्ध होता है मनुष्य कर्मयोनि है और देवता केवल भोगयोनि। यदि देवता भी कर्मयोनि होते तो उन्हें कर्म करने के लिये फिर इस लोक में आना न पड़ता। 

हिन्दुओं द्वारा मृतकों को श्राद्ध-तर्पण देखकर वैदेशिक वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हुआ है। उन्होने उसका परीक्षण प्रारम्भ कर दिया। उससे उन्हें प्रतीत हुआ कि मरा हुआ व्यक्ति अभाव को प्राप्त नहीं हो जाता, किन्तु मरने के बाद उसकी स्थिति परलोक में हो जाती है। उत्तम माध्यम द्वारा हम उससे सम्बन्ध करके उससे लाभ ने सकते हैं। सबकी शैलियां भिन्न-भिन्न होती हैं। वैदेशिकों ने मृतकों के आकर्षणार्थ अपने ढंग के उपाय जारी किये। हमारे पूर्वजों ने कुश, मधु, तिल, गंगाजल, तुलसीपत्र, चावलों के पिण्ड आदि का मृतकों के जीव के आकर्षणार्थ उपयोग कर रखा है। इनका भी यन्त्र बनाकर निरीक्षण-परीक्षण करना चाहिये। हमारे पूर्वजों की प्रायः सभी बातें परीक्षण-निरीक्षण करने पर सत्य सिद्ध हुई हैं। हम स्थूल शरीर होने से सीमित शक्ति वाले हैं, पर मृतक पुरूष स्थूल-शरीर छूट जाने से पारलौकिक दिव्य सूक्ष्म शरीर मिलने से अलौकिक शक्तिशाली होते हैं। उनसे सम्बन्ध स्थापित करके हम उस लोकोत्तर शक्ति का लाभ उठा सकते हैं। घड़े में ढके दीपक की प्रकाशन-शक्ति सीमित होती है। घेड़े से बाहर ठहरे दीपक की प्रकाशन-शक्ति अधिक रहा करती है। हम भी स्थूल शरीराछन्न होने से उस घड़े में रखे दीपक की तरह हैं और परलोक प्राप्त पुरूष उसके अपवाद हैं। आत्मा के न्यायादि शास्त्रसम्मत विभुत्व का वही उपयोग ले सकते हैं। 

उदाहरण के लिये एक व्यक्ति अधिक बीमार है। हम उसका उपचार करके भी उसे स्वस्थ नहीं कर सके। उस समय यदि हम परलोकस्थ आत्मा से सम्बन्ध करके उससे उसकी दवाइयां पूछें, तो अधिक ज्ञानशाली होने से उनसे बतायी गयी दवाइयां सम्भवतः उस बीमार के लिये हितकारक सिद्ध होंगी। इस प्रकार की परलोकस्थ आत्माओं से बतायी गयी दवाइयां प्रायः सफल सिद्ध भी हो चुकी हैं। जब परलोक प्राप्त के हस्ताक्षर मिल जाते हुये देखे गये हैं, उनकी बतायी गुप्तधन गड़ने की बातें मिल गयी हैं, उनके छाया-चित्र गृहीत हो जाते हैं, तो इस विद्या में उन्नति करके हम कई लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय में श्रद्धा करने से ‘श्रद्धया सत्यमाप्यते’। (यजुर्वेद 19/30) ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् (गीता 4/39) हमें सत्य और ज्ञान की प्राप्ति होगी। हमारे प्राचीन लोग भी मृतक व्यक्ति का परलोक में निवास और उसका आह्वाहन भी मानते थे। लंका विजय के बाद अग्नि-शुद्धि के समय परलोक से आये हुये राजा दशरथ ने भी सीता की शुद्धि में साक्षी दी थी। इस विषय की जानकारी से एक लाभ अवश्य मिलेंगा कि मृत्युभय छूट जायेगा। दूसरा लाभ यह होगा कि हमारा मृतक सम्बन्धी, जिसे हम सदा के लिये बिछुड़ गया समझते है, फिर हम उसे अपने निकट पायेंगे। फिर मृतक का श्राद्ध-तर्पण भी प्रत्यक्षानुगृहीत हो जायेगा। इस परलोकविद्या की उन्नति हो जाने पर हम स्वर्गीय देवताओं से भी वार्तालाप कर सकेंगे। 

धर्मशास्त्रों की कई बातें आज के समय में प्रचलित न होने से अपुपयोगी मालूम पड़ती हैं। पर हमारे ऋषि-मुनि बहुत विद्वान थे। उनकी बातें अब विज्ञान-सिद्ध हो रही हैं। हमारी अपेक्षा पितरों में अधिक शक्ति रहती हैं। उनकी अपेक्षा देवताओं में अधिक शक्ति है। देवता-विषय बहुत जटिल है। आरम्भ में पितृ-विषय भी बहुत जटिल था। पितरों का आह्वाहन तथा आकर्षण एवं उनका यहां आगमन और संवाद तथा उनसे हमारा संरक्षण होता है। यह बात बहुत लोग नहीं मानते थे। इतिहास पुराण में मृतक दशरथ आदि का इस लोक में आने का वर्णन आता है। योगदर्शन के व्यासभाष्य में भी ‘पितृन् अतीतान् अकस्मात् पश्यति।’ (3/22) में भी यह संकेत आया है। अनुसन्धानकर्ताओं ने अपनी खोजों से यह विषय समूल सिद्ध पाया है। बहुत कुछ सफलता भी इस विषय में प्राप्त हो चुकी है। तब आगे अनुसंधाताओं का देवतावाद की तरफ भी ध्यान जायेगा। 

शास्त्रों के अनुसार पितृगण चन्द्रलोक के पृष्ठपर रहते हैं। चन्द्रग्रह की कक्षा सब ग्रहों से नीचे और भूमण्डल के निकट है। तभी भूमण्डल के निवासी उसके साथ के ठहरे चन्द्रलोक के पृष्ठ पर रहने वाले पितरों का यथाशक्ति आह्वाहन या आकर्षण करने में शीघ्र सफल हो गये हैं। वेद में भी ‘आ यन्तु नः पितरः।’ (यजुर्वेद 19/58) इत्यादि मन्त्रों से पितरों का आह्वाहन तथा ‘अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तः।’ से तृप्ति ‘अधि बु्रवन्तु’ से पितरों का हमें उपदेश वा संवाद, ‘ते अवन्तु अस्मान्’ से हमारी पितरों द्वारा ‘पान्ति रक्षन्ति इति पितरः’ इस व्युत्पत्ति से हमारे किसी अस्वस्थ आदि के स्वास्थ्य की, (उत्तम औषधि बताकर) रक्षा करना विदित है। पितरों के आकर्षण पर आर्यसमाजी विद्वान श्रीरघुनन्दन शर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वैदिक-सम्पत्ति’ (प्र0सं0 के 371 पृष्ठ पर प्रकाश डाला है। उन्होने लिखा है- प्रश्न यह है कि चन्द्रलोक से जीवों को किस प्रकार खींचा जाये। जीवों के खींचने का वही तरीका है, जो सूर्यकान्तमणि के द्वारा सूर्यताप खींचने में और चन्द्रमान्तमणि के द्वारा चन्द्रजल के खींचने में प्रयोग लाया जाता है। जिस प्रकार से चन्द्रकान्त के प्रयोग से चान्द्रजल की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार चान्द्र-पदार्थों को एकत्रित करने से चान्द्रवीर्य भी आकर्षित होता है। चान्द्रवीर्य में ही जीव रहते हैं, इसलिये उन पदार्थो। में खिंच आते हैं। जो चान्द्राकर्षण के लिये विधि से एकत्रित किये जाते हैं। वे पदार्थ- दूध, घृत, चावल, मधु, तिल, रजतपात्र, कुश (तुलसीदल) और जल हैं। यह प्रक्रिया शरत्पूर्णिमा के दिन लोग करते हैं। परन्तु विधिपूर्वक क्रिया तो पितृश्राद्ध के समय ही होती है। पितृश्राद्ध अपराह्न के समय होता है। उसमें दूध, घृत, मधु, कुश आदि सभी पदार्थ रखे जाते हैं। पितरों का प्रतिनिधि पुत्र अथवा पौत्र भी उन पदार्थों को छूता हुआ वहीं पर बैठता है। इसलिये यह सब हवि आदि सामग्री उसी प्रकार का यन्त्र बन जाती है, जिस प्रकार चन्द्रमणि। इसी में पितर खींचकर आते है- ‘परा यात पितरः सोम्यासः।’ (अथर्ववेद 18/4/63)

भूमण्डल (पृथ्वी) के निकट होने से ही वैज्ञानिक भी राकेट आदि से चन्द्रलोक की यात्रा करने का प्रयास करते रहते हैं। पर देवता द्युलोक के अन्य विभागों मे रहा करते हैं। वे पितरों की अपेक्षा हमसे बहुत दूर हैं। हमारा एक मास पितरों का दिन-रात होता है। हमारा एक वर्ष देवताओं का दिन-रात होता है। परन्तु यदि हमारा विज्ञान बढ़ता गया तो हम पितरों की भांति देवताओं के भी निकट हो जायेंगे। कुन्ती को दुर्वासा मुनि से दिये हुये मन्त्रों से सूर्य, यम, वायु, इन्द्र, आश्विनीकुमार जैसे देवता आये थे, यह सर्वविदित है। पौराणिक इतिहास में भी जो देवताओं का भूलोक में आना बताया गया है, वह इसी बात को सिद्ध करता है कि हमारे पूर्वजों को देवताओं को बुलाने की विद्या भी ज्ञात थी। हमारे राजा दशरथ आदि रथों द्वारा देवलोक में भी जाया करते थे। अब यदि प्रयत्न से पितृवाद कुछ सुलझ गया है, तब समय आने पर देवतावाद भी सुलझ पायेगा। 
यजुर्वेद का एक मन्त्र है- 
आयन्तु नः पितरः सोम्यासोअग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोअधिब्रुवन्तु। तेअवन्तु अस्मान्।
(यजुर्वेद-सं0 19/58)
इस मन्त्र से ज्ञात होता है कि पितरों को स्वधा से तृप्त करने का विचार करने से ही हमारे आह्वाहन पर हमारे यहां आते हैं और वे हमसे संवाद करते हैं और हमें उत्तम उपाय बताकर पितृ नाम को (पाति रक्षति इति) सार्थक करते हुये हमारी रक्षा भी करते हैं। इसके लिये माध्यम भी उत्तम होना चाहिये। श्राद्ध भी पूर्व समय में उन्हीं माध्यमों के प्रयोगकर्ता वैज्ञानिक ब्राह्मणों को खिलाया जाता था। श्राद्धविधि के अनुसार सुचरित्र, वेद आदि शास्त्रों का विद्वान, बहुभाषाप्रवीण, पितृकर्मनिष्णात ब्राह्मण माध्यम रखा जाये। इस कर्म में मृतक के पुत्र, पौत्र वा प्रपौत्र का सम्पर्क अवश्य होना चाहिये। उन्हें श्रद्धालु भी होना चाहिये। 

आह्वाहन का समय
पितरांं के आह्वाहन के समय अमावस्या आदि तिथि का नियम, अपराह्नकाल, यज्ञोपवीत के दक्षिण स्कन्ध में करने का नियम, तिल, घृत, मधु, तुलसीदल, गंगाजल युक्त ओदन का तथा रजतपात्र का उपयोग भी शास्त्रानुकूल अनुसृत किया जाना चाहिये। हां, आश्विन के दिनों में मृतक की मृत-तिथि के अनुसार भी पितरों का आह्वाहन हो सकता है, अथवा क्षयाहवाले दिन भी मृतक का आह्वाहन हो सकता है। उसका कारण यह है कि पितृलोक चन्द्रलोक पर है। आश्विन के दिनों में चन्द्रमा अन्य मासों की अपेक्षा पृथ्वी के अधिक निकट होता है, इसलिये उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी तथा उसमें स्थित देहधारियों पर विशेष रूप से पड़ता है। तब चन्द्रलोक स्थित पितरों का भी हमसे सम्बन्ध होकर परस्पर आदान-प्रदान होता है। क्षयाह की तिथि में वे पितर सीधे उसी मार्ग में होते हैं, क्योंकि तिथि चन्द्रगति के अनुसार हुआ करती है और उस स्थिति में पितर उसी मार्ग में हुआ करते हैं, जिस तिथि में वे मृत्यु प्राप्त करके उस स्थान में जाते हैं। 

कृष्णपक्ष में पितरों के आह्वाहन का कारण यह होता है कि उस समय सूर्य उनके निकट होने से वह उनका दिन होता है। अमावस्या उनका मध्यान्ह होती है। जब पितरों का निद्रा समय हो, (शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की सप्तमी तक) उस समय पितरों का आह्वाहन नहीं करना चाहिये। क्योंकि उस समय वे बिना आश्विन मास के अन्य मास में संवाद नहीं करना चाहते। उस समय कई अन्य भूत-प्रेत आदि ही संवाद कर रहे हों, यह सम्भव होता है। तीन पीढ़ी से अधिक के पितरों को भी संवाद के लिये नहीं बुलाना चाहिये, क्योंकि वे उस समय चन्द्रलोक से ऊपर के लोक में चले जाते हैं। पितृकोटि में न रहकर देवकोटि में चले जाते हैं। उन्हें बुलाने के लिये शास्त्रीय अन्य उपाय करने पड़ेगे। कई मृतक तो आरम्भ में ही पितृकोटि में न जाकर परलोक के निम्नस्तर नरक आदि लोकों में अथवा भूत-प्रेत आदि योनि में चले जाते हैं, जहां वे बहुत अशान्त रहेते हैं। हमारे पूर्वज जिस बात को आध्यात्मिक तरीके से तथा मन्त्रशक्ति से करते थे, पाश्चात्य वैज्ञानिक उसी बात को आधिभौतिक प्रकार से तथा यन्त्रशक्ति से करते हैं। पहले प्रकार का अवलम्बन करने पर शास्त्रों पर दृढ़ निष्ठा बनी रहती है, श्रद्धा विश्वास बना रहता है, आस्तिकता बनी रहती है। 

निष्कर्षतः परलोकविद्या है, पुनर्जन्म भी अवश्य है। यह सब सुकर्म-दुष्कर्म के फल हैं। जो इन वादों पर हृदय से आस्था रखते हैं। वे असत्य, कपट,चोरी, ठगी, बेईमानी आदि दुष्कृत्य नहीं करते। पर परलोक से डरने वाले लोग, पुनर्जन्म और परलोक एवं कर्मफल में विश्वास रखने वाले , धर्मपरायण, निर्लोभ, प्रायः निःस्वार्थ, परोपकार-परायण, पुण्यनिरत रहा करते हैं। आजकल कई लोग आडम्बर से तो पुनर्जन्म मानते हैं, पर वेद-शास्त्रआदि में छल, अर्थ का अनर्थ आदि करके, स्वविरूद्ध शास्त्रीय सिद्धान्तों में प्रक्षेप बताकर ऋषि-मुनियों के अनभीष्ट अर्थ करके परमेश्वर या परलोक से डर नहीं रखते, उन्हीं के संज्ञान में लाने हेतु यह लेख लिखा गया है।



Saturday, June 20, 2020

क्या है श्रीमद्भागवत-सप्ताह की विधि ?

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)
श्रीमद्भागवत पुराण हिन्दू समाज का सर्वाधिक आदरणीय व पूज्य ग्रन्थ है। सकाम भक्ति हो या निष्काम योग, नवधा भक्ति हो या ज्ञान साधना, द्वैत भाव हो या अद्वैत के दर्शन सभी मार्गों के रहस्यों को समन्वित करने वाला यह अलौकिक दिव्य ग्रन्थ लौकिक इच्छाओं व पारलौकिक सिद्धियों को प्रदान करने वाला कल्पतरू है। वैष्णव सम्प्रदाय का यह प्रमुख ग्रन्थ है और वेदों, उपनिषदों तथा दर्शन के गूढ़ व गम्भीर रहस्यभूत विषयों का निरूपण इसमें इतनी सरलता से किया गया है कि इसे भारतीय धर्म व संस्कृति का वस्तुतः विश्वकोष ही कहा जाना चाहिये। वेणु गीतों के माधुर्य के आनन्द का रसास्वाद करना हो या भावपूर्ण गजेन्द्रस्तवन से अश्रु विलगित आंखों व अवरूद्ध कंठ की भावावस्था की अनुभूति करना हो अथवा नारायणकवच के अमोघ पाठ से कलिकाल व दुर्भाग्य से मुक्ति की इच्छा हो, सभी कुछ इस ग्रन्थ में सुलभ है। इसीलिये कहा जाता है कि विद्वानों के ज्ञान की परीक्षा इसी ग्रन्थ से होती है। ‘‘विद्यावतां भागवत् परीक्षा’’। पुटके-पुटके मधु और स्वादु-स्वादु पगे-पगे की भावना इसी ग्रन्थ में अनुभूत होती है। त्रितापों को शान्त करने वाले इस ग्रन्थ में कुल 12 स्कन्ध हैं, जिनमें भगवान विष्णु के 24 अवतारों की कथा का वर्णन है। वर्तमान युग में इसकी प्रासंगिकता बहुत बढ़ जाती है। 

पुराणों में श्रीमद्भागवत के सप्ताहपरायण तथा श्रवण की बहुत भारी महिमा वर्णित है। आइये इसी विषय को आगे बढ़ाया जाये-
मुहूर्तविचार- श्रीमद्भागवत प्रारम्भ करने से पहले किसी योग्य ज्योतिर्विद को बुलाकर उनके द्वारा कथा प्रारम्भ के लिये शुभ मुहूर्त का विचार करना चाहिये। नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, आश्विनी, मृगशिरा, श्रवण, धनिष्ठा तथा पूर्वाभाद्रपदा उत्तम हैं। तिथियों में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी तथा द्वादशी को इस कार्य के लिये श्रेष्ठ बतलाया गया है। सोम, बुध, गुरू एवं शुक्र- ये वार सर्वोत्तम हैं। तिथि, वार और नक्षत्र का विचार करने के साथ ही यह भी देख लेना चाहिये कि शुक्र या गुरू अस्त, बाल अथवा वृद्ध न हो। कथा के आरम्भ का मुहूर्त भद्रा आदि दोषों से रहित होना चाहिये। उस दिन पृथ्वी जागती हो, वक्ता और श्रोता का चन्द्रबल ठीक हो। लग्न में शुभ ग्रहों का योग अथवा उनकी दृष्टि हो। शुभ ग्रहों की स्थिति केन्द्र या त्रिकोण में हो तो शुभ है। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) ये मास कथा के लिये श्रेष्ठ बताये गये है। कुछ विद्वानों के मत से चैत्र और पौष को छोड़कर सभी मास ग्राह्य हैं। 

कथा के लिये स्थान- भागवत सप्ताह कथा के लिये उत्तम एवं पवित्र स्थान की व्यवस्था की जानी चाहिये। जहां अधिक लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें, ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिये। नदी का तट, उपवन (बगीचा), देवमन्दिर या अपना निवास स्थान ये सभी कथा के लिये उपयोगी स्थल माने गये हैं। स्थान लिपा-पुता स्वच्छ हो। नीचे की भुमि गोबर और पीली मिट्टी से लीपी गयी हो। अथवा पक्का आंगन हो तो उसे धो दिया गया हो। उसपर पवित्र एवं सुन्दर आसन बिछाया गया हो। ऊपर से चंदोवा तना हो। चंदोवा आदि किसी भी कार्य में नीले रंग के वस्त्र का उपयोग न किया जाये। यजमान के हाथ से 16 हाथ लम्बा और उतना ही चौड़ा कथा-मण्डप बनाया जाये। उसे केले के खम्भों से सजाया जाये। हरे बांस के खम्भे लगाये जायें। नये पल्लवों की बंदनवारों, पुष्पमालाओं और ध्वजा-पताकाओं से मण्डप को भलीभांति सुसज्जित किया जाये। उस पर ऊपर से चंदोवा तान दिया जाये। उस मण्डप के दक्षिण-पश्चिम भाग में कथावाचक और मुख्य श्रोता के बैठने के लिये स्थान हो। शेष भाग में देवताओं और कलश आदि का स्थापन किया जाये। कथावाचक के बैठने के लिये ऊंची चौकी रखी जाये। उस पर शुद्ध आसन (नया गद्दा) बिछाया जाये। पीछे तथा पार्श्वभाग में मसनद एवं तकिये रखे जायें। श्रीमद्भागवत को स्थापित करने के लिये एक स्वर्णमण्डित छोटी से चौकी या आधार पीठ बनवाकर (इस चौकी पर तीन तोला सोना मढ़ा होना चाहिये। इतनी शक्ति न हो तो अपनी शक्ति के अनुसार ही यह स्वर्णसिंहासन बनवाये, परन्तु शक्ति होते हुये लोभवश संकोच न करें) उस पर पवित्र वस्त्र बिछा दें। उस पर आगे बताई जाने वाली विधि के अनुसार अष्टदल कमल बनाकर पूजन करके श्रीमद्भागवत की पुस्तक स्थापित की जाये। कथावाचक विद्वान, सर्वशास्त्रकुशल, दृष्टान्त देकर श्रोताओं को समझाने में समर्थ, सदाचारी एवं सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण हों। उनमें सुशीलता, कुलीनता, गम्भीरता तथा श्रीकृष्ण-भक्ति का होना भी परमावश्यक है। वक्ता को असूया तथा परनिन्दा आदि दोष से सर्वथा रहित होना चाहिए। श्रीमद्भागवत की पुस्तक रेशमी वस्त्र से आच्छादित करके छत्र-चंवर के साथ डोली में अथवा अपने मस्तक पर रखकर कथामण्डप में लाना और स्थापित करना चाहिये। उस समय गीत वाद्य आदि के द्वारा उत्सव मनाना चाहिये। कथामण्डप से अनुपयोगी वस्तुएं हटा देनी चाहिए। इधर-उधर दीवालों में भगवान और उनकी लीलाओं के स्मारक चित्र लगा देने चाहिए। वक्त का मुख यदि उत्तर की ओर हो तो मुख्य श्राता का मुख पूर्व की ओर होना चाहिए। यदि वक्ता पूर्वाभिमुख हो तो श्रोता को उत्तराभिमुख होना चाहिये। 

स्मरण रहे सप्ताह कथा एक महान यज्ञ है। इसे सम्पन्न करने के लिये मित्र व अन्य सम्बन्धियों को भी सहायक बनाना चाहिए। अर्थ की व्यवस्था पहले से कर लेना उचित है। दूर से आये हुये अतिथियों के लिये ठहरने की व्यवस्था होनी चाहिए। वक्ता को व्रत ग्रहण करने के लिये एक दिन पहले ही क्षौर करा लेना चाहिये। सप्ताह-प्रारम्भ होने के एक दिन पूर्व ही देवस्थापन, पूजन आदि कर लेना सही है। वक्ता प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व ही स्नान आदि करके संक्षेप से सन्ध्या-वन्दन आदि का नियम पूरा कर ले और कथा में कोई विघ्न न आये, इसके लिये नित्यप्रति गणेशजी का पूजन कर लिया करें। 

सप्ताह के प्रथम दिन यजमान स्नान आदि से शुद्ध होकर नित्यकर्म करके आभ्युदयिक श्राद्ध करे। आभ्युदयिक श्राद्ध पहले भी किया जा सकता है। यज्ञ में 21 दिन पहले भी आभ्युदयिक श्राद्ध करने का विधान है। उसके बाद गणेश, ब्रह्मा आदि देवताओं सहित नवग्रह, षोडश मातृका, सप्त चिरजीवी (अश्वत्थामा , बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुरामजी) एवं कलश की स्थापना तथा पूजा करें। एक चौकी पर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाकर उसके मध्यभाग में ताम्रकलश स्थापित करें। कलश के उपर भगवान लक्ष्मी-नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित करें। कलश के बगल में ही भगवान शालग्राम का सिंहासन विराजमान कर देना चाहिये। सर्वतोभद्र-मण्डल में स्थित समस्त देवताओं का पूजन करने के बाद भगवान नर-नरायण, गुरू, वायु, सरस्वती, शेष, सनकादि कुमार, सांख्यायन, पराशर, बृहस्पति, मैत्रेय तथा उद्धव का भी आवाहन, स्थापन एवं पूजन करना चाहिए। फिर त्रय्यारूण आदि 6 पौराणिकों को भी स्थापन-पूजन करके एक अलग पीठ पर उसे सुन्दर वस्त्र से आवृत्त करके, नारदजी की स्थापना एवं अर्चना करनी चाहिए। इसके बाद आधारपीठ, पुस्तक एवं व्यास (वक्ता आचार्य) का भी यथाप्राप्त उपयारों से पूजन करना चाहिए। कथा निर्विघ्न पूर्ण हो इसके लिये गणेश-मन्त्र, द्वादशाक्षर-मन्त्र तथा गायत्री-मन्त्र का जप और विष्णुसहस्त्रनाम एवं गीता का पाठ करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार 7, 5 या 3 ब्राह्मणों का वरण करें। श्रीमद्भागवत का भी एक पाठ अलग ब्राह्मण द्वारा करायें। देवताओं की स्थापना और पूजा के पहले स्वस्तिकवाचन पूर्वक हाथ में पवित्री, अक्षत, फूल, जल और द्रव्य लेकर एक महासंकल्प कर लेना चाहिये। संकल्प के बाद पूर्वोक्त देवताओं के चित्रपट में अथवा अक्षत-पुज्ज पर उनका आवाहन-स्थापन करके वैदिक-पूजा पद्वति के अनुसार उन सबकी पूजा करनी चाहिये। कथा मण्डप में चारों दिशाओं या कोणों में एक-एक कलश और मध्यभाग में एक कलश- इस प्रकार 5 कलश स्थापित करने चाहिए। चारों ओर के 4 कलशों में से पूर्व के कलश पर ऋग्वेद की, दक्षिण कलश पर यजुर्वेद की, पश्चिम कलश पर सामवेद की और उत्तर कलश पर अथर्ववेद की स्थापना एवं पूजा करनी चाहिए।

इसके बाद आगे दशावतारों की तथा शुकदेव जी की भी यथास्थान स्थापना करके पूजा करनी चाहिये। कथा-मण्डप में वायुरूपधारी आतिवाहिक शरीरवाले जीव विशेष के लिये एक 7 गांठ के बांस को भी स्थापित कर देना चाहिए। तत्पश्चात वक्ता भगवान का स्मरण करके उस दिन श्रीमद्भागवत महात्म्य की कथा सब श्रोताओं को सुनायें और दूसरे दिन से प्रतिदिन देवपूजा, पुस्तक तथा व्यास की पूजा एवं आरती हो जाने के बाद वक्ता कथा प्रारम्भ करें। सन्ध्या को कथा की समाप्ति होने पर भी नित्यप्रति पुस्तक तथा वक्ता की पूजा तथा आरती, प्रसाद एवं तुलसीदल का वितरण, भगवन्नामकीर्तन एवं शंखध्वनि करनी चाहिए। वक्ता को चाहिए कि प्रतिदिन पाठ प्रारम्भ करने से पूर्व 108 बार ‘ऊॅं नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर-मन्त्र का जप करे। इस प्रकार ध्यान और मन्त्र जप के पश्चात कथा प्रारम्भ करनी चाहिए। सूर्योदय से आरम्भ करके प्रतिदिन साढ़े 3 प्रहर तक कथा कहनी चाहिए। मध्यान्ह में दो घड़ी कथा बंद रखनी चाहिए। प्रातःकाल से मध्यान्ह तक मूल का पाठ होना चाहिए और मध्याह्न से सन्ध्या तक उसका संक्षिप्त भावार्थ अपनी भाषा में कहना चाहिये। मध्यान्ह में विश्राम के समय तथा रात्रि के समय भगवन्नाम-कीर्तन की व्यवस्था होनी चाहिये। 

श्रोताओं के स्थान- वक्ता के सामने श्रोताओं के बैठने के लिये आगे-पीछे 7 पंक्तियां बना लेनी चाहिए। पहली पंक्ति का नाम सत्यलोक है, इसमें साधु-संन्यासी, विरक्त, वैष्णव आदि को बैठाना चाहिए। दूसरी पंक्ति तपलोक कहलाती है, इसमें वानप्रस्थ श्रोताओं को बैठाना चाहिए। तीसरी पंक्ति को जनलोक कहा जाता है, इसमें ब्रह्मचारी श्रोता बैठाये जायें। चौथी पंक्ति महर्लोक कही गयी है, यह ब्राह्मण श्रोताओं का स्थान है। पांचवीं पंक्ति को स्वर्लोक कहते हैं। इसमें क्षत्रिय श्रोताओं को बैठाना चाहिए। छठी पंक्ति का नाम भुवर्लोक है, जो वैश्य श्रोताओं का स्थान है। सातवीं पंक्ति भूर्लोक मानी गयी है, उसमें शूद्रजातीय श्रोताओं को बैठाना चाहिए। स्त्रियां वक्ता के वामभाग की भूमि पर कथा सुनें। ये स्थान उन लोगों के लिये नियत किये गये हैं, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक कथा सुनते हैं। जो श्रोता कथा प्रारम्भ होने पर कुछ समय के लिये अनियमितरूप से आते हैं, उनके लिये वक्ता के दक्षिण भाग में स्थान रहना चाहिए। 

श्रोताओं के नियम- श्रोता प्रतिदिन एक बार हविष्यान्न भोजन करें। पतित, दुर्जन आदि का संग तो दूर रहा, उनसे वार्तालाप भी न करें। ब्रह्मचर्यपालन, भूमिशयन (नीचे आसन बिछाकर या तख्तपर सोना) सबके लिये अनिवार्य है। एकाग्रचित्त होकर कथा सुननी चाहिए। जितने दिन कथा सुनें-धन, स्त्री, पुत्र, घर एवं लौकिक लाभ की समस्त चिन्ताएं त्याग दें। मलमूत्र पर काबू रखने के लिये हलका आहार सुखद होता है। यदि शक्ति हो तो 7 दिन तक उपवास करके कथा सुनें। अन्यथा दूध पीकर कथा श्रवण करें। इससे भी काम न चले तो फलाहार या एक समय अन्न-भोजन करें। प्रतिदिन कथा समाप्त होने पर ही भोजन करना सही है। दाल, शहद, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित अन्न तथा बासी अन्न का परित्याग करें। काम, क्रोध, मद, मान, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेष से दूर रहें। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरू, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरूषों की कभी भूलकर भी निन्दा न करें। रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदबहिष्कृत मनुष्यों से वार्तालाप न करें। मन में सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा उदारता को स्थान दें। श्रोताओं को वक्ता से ऊंचे आसन पर कभी नहीं बैठना चाहिए। 

कुछ विशेष बातें- भागवत में 12 स्कन्ध हैं। प्रत्येक स्कन्ध की समाप्ति पर चन्दन, पुष्प, नैवेद्य आदि से पुस्तक की पूजा करके आरती उतारनी चाहिए। शुकदेवजी के आगमन तथा श्रीकृष्ण के प्राकट्य का प्रसंग आने पर भी आरती करनी चाहिए। बारहवें स्कन्ध की समाप्ति होने पर पुस्तक और वक्ता का भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए। वक्ता गृहस्थ हों तो, उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार उदारतापूर्वक वस्त्राभूषण तथा नकद भेंट देने चाहिए। मृदंग आदि बजाकर जोर-जोर से कीर्तन करना चाहिए। जय-जयकार, नमस्कार और शंखनाद करने चाहिए। ब्राह्मणों और याचकों को अन्न एवं धन देना चाहिए। वक्ता के हाथों श्रोताओं को प्रसाद एवं तुलसीदल मिलने चाहिए। प्रतिदिन कथा प्रारम्भ और अन्त में आरती होनी आवश्यक है। कथा का विश्राम प्रतिदिन नियत स्थल पर ही करना चाहिए। प्रथम दिन मनु-कर्दम-संवाद तक। दूसर दिन भरत-चरित्र तक। तीसरे दिन सातवें स्कन्ध की समाप्ति। चौथे दिन श्रीकृष्ण के प्राकट्य तक। पांचवें दिन रूक्मिणी-विवाह तक और छठे दिन हंसोपाख्यान तक की कथा बांचकर, सातवें दिन अवशिष्ट भाग को पूर्ण कर देना चाहिए। स्कन्ध आदि और अन्तिम श्लोक को कई बार उच्च स्वर से पढ़ना चाहिए। कथा समाप्ति के दूसरे दिन वहां स्थापित हुये सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करके हवन की वेदी पर पच्चभूसंस्कार, अग्निस्थापन एवं कुशकण्डिका करे। फिर विधिपूर्वक वृत ब्राह्मणों द्वारा हवन, तर्पण एव मार्जन कराकर श्रीमद्भागवत की शोभायात्रा निकाले और ब्राह्मण भोजन कराये। मधु मिश्रित खीर और तिल आदि से भागवत के श्लोकों का दशांश (अर्थात 1800) आहुति देनी चाहिए। खीर के अभाव में तिल, चावल, जौ, मेवा, शुद्ध घी और चीनी को मिलाकर हवनीय पदार्थ तैयार कर लेना चाहिए। इसमें सुगन्धित पदार्थ (कपूर-काचरी), नागरमोथ, छड़छड़ीला, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) भी मिलाने चाहिए। पूर्वोक्त 1800 आहुति गायत्री-मन्त्र अथवा दशमस्कन्ध के प्रति श्लोक से देनी चाहिए। हवन के अन्त में दक्पाल आदि के लिये बलि, क्षेत्रपाल-पूजन, छायापात्र-दान, हवन का दशांश तर्पण एवं तर्पण का दशांश मार्जन करना चाहिए। फिर आरती के बाद किसी नदी, सरोवर या तालाब आदि पर जाकर अवभृथ स्नान (यज्ञान्त-स्नान) भी करना चाहिए। अन्त में कम से कम 12 ब्राह्मणों को मधुयुक्त खीर का भोजन कराना चाहिए। व्रत की पूर्ति के लिये स्वर्ण दान और गोदान करना चाहिए। सुवर्ण-सिंहासन पर विराजित सुन्दर अक्षरों में लिखित श्रीमद्भागवत की पूजा करके उसे दक्षिणासहित कथावाचक आचार्य को दान कर देना चाहिए। अन्त में सब प्रकार की त्रुटियों की पूर्ति के लिये विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ कथावाचक आचार्य के द्वारा सुनना चाहिए। विरक्त श्रोताओं को गीता सुननी चाहिए। 

प्रारम्भ में संग्रहणीय सामग्री सूची (पूजन सामग्री)- गंगाजल, रोली (कुमकुम), मोली (रक्षासूत्र), चन्दन, शुद्ध केसर, कपूर, पुष्प, पुष्पमाला, तुलसीदल, बिल्वपत्र, दूर्वादल, धूप, शुद्ध अगरबत्ती, पच्चामृत(दूध, दही, मधु, चीनी, घी), दीप (यथासम्भव शुद्ध, गोघृत और रूई), पान का पत्ता 50, सुपारी 25, यज्ञोपवीत 25, लइायची, लौंग, पेड़ा, मेवा, गुड़, चावल, गेहूं, कुण्डे मिट्टी के 2 गेहूं बोने के लिये, पीली सरसों, अबीर, गुलाल, ऋतुफल, कपड़ा सफेद 5 गज, कपड़ा लाल 5 गज, कपड़ा पीला 5 गज, कपड़ा शुद्ध रेशमी एक गज, सर्वतोभद्र की रचना के लिये हरा, लाल, काला, पीला और गुलाबी रंग, गोबर, नारियल 2 या 7, शुद्ध इत्र, कुशा, सिन्दूर, रूप्ये-रेजगी-पैसे, आरती का पात्र, धण्टा, घड़ियाल, शंख-झांझ आदि, कोसा 50, दियासलाई, चौकी एक सर्वतोभद्र के लिये, चौकी एक नारदजी के लिये, चौकी एक नवग्रह, षोडशमातृका और गणेश के लिये, चौकी एक व्यास, शुकदेव, सप्तचिरजीवी तथा पौराणिकों के लिये, पाटा एक शेष-सनत्कुमार आदि के लिये। 

कलश स्थापना की सामग्री- तांबे का एक कलश, कांसी या तांबे का पात्र एक, कलश मिट्टी के 5, सप्तधान (जौ, गेहूं, धान, तिल, कंगनी, सांवा, चीना), पच्चपल्लव (आम, पीपल, पाकर, गूलर और बड़ के पत्ते), दूर्वा, कुशा, सुपारी, सुवर्ण की टिकड़ी 4, पच्चरत्न ( हीरा, नीलम, लाल, मोती और सोना, अभाव में यथासाध्य सुवर्ण), चन्दन, अक्षत, फूल, तीर्थोदक, समुद्रजल, सप्तमृत्तिका (घुड़साल की, हाथीशाला की, दीमक की, नदी-संगम की, राजद्वार की, गोशाला की, तालाब की), सर्वौषधि ( कूट, जटामाशी, हल्दी गांठ 2, राभट, मुरा, शैलेभ, चन्दन, बचा, चम्पक और नागरमोथा- अभाव में केवल हल्दी), नदी संगम का जल, श्रीलक्ष्मी नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा (चार तोले सोने की अथवा अपनी शक्ति के अनुसार)।

कथा मण्डप के लिये सामग्री- चंदोवे का कपड़ा, चौकोर मण्डप, केले के खम्भे 4, बांस के खम्भे, मण्डप को चारों ओर से माला, फूल और पत्तों से सजाना, चारों दिशाओं में झंडी लगाना, वस्त्र और गोटे आदिसे सजाना, चौकी व्यास के लिये, गद्दी, मसनद, तकिये, कम्बल, चद्दर, पांच झंडियां, पुस्तक का वेष्टन, पुस्तक के लिये चौकी, आम के पत्तों के बंदनवार। गणेशजी, देवता, श्रीमद्भागवत और आचार्य की पूजा के लिये प्रतिदिन चन्दन, पुष्प, पुष्पमाला, धूप, दीप आदि सामग्री। 
वरण की सामग्री- वक्ता के लिये चादर, धोती, गमछा, आसन, दक्षिणा, रूद्राक्षमाला, तुलसीमाला, जलपात्र आदि, जप करने वालों के लिये भी यथासम्भव वस्त्र-द्रव्य अदि।
पाठ के लिये पुस्तक- भागवत, रामायण, गीता, सहस्त्रनाम आदि।

हवन के लिये सामग्री- वेदी के लिये स्वच्छ बालू एक बोरा, सूखी आम की लकड़ी दो मन, कुशकण्डिका के लिये कुशा, दुर्वा, अग्नि लाने के लिये दो कांस्यपात्र, एक पूर्णपात्र पीतल का बड़ा सा, यज्ञपात्र-प्रणीता, प्रोक्षणी, स्त्रुवा, स्त्रुवा, स्त्रुक्, पूर्णाहुतिपात्र, चरूस्थाली, आज्यस्थाली (कांसा का बड़ा सा कटोरा), हवन के लिये पदार्थ- मधुमिश्रित खरी, छायापात्र-दान के लिये कांसे की छोटी एक कटोरी तथा उसके लिये घी। तिल 10 सेर, चावल 5 सेर, जौ 2 सेर, शुद्ध घी 4 सेर, शुद्ध चीनी 2 सेर, पच्चमेवा 2 सेर (पिश्ता, बादाम, किशमिश, अखरोट और काजू)- इन सबको मिलाकर हवनसामग्री बनायी जाती है। फिर इसमें सुगन्धित द्रव्य (कपूरकाचरी, छड़छड़ीला, नागरमोथा, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) आवश्यकतानुसार मिला लें। बलि के लिये पापड़, उड़द, दही, चावल, रूई की बत्ती, दक्षिणा, क्षेत्रपाल-बलि के लिये हंड़िया, काजल, सिंदूर, दीपक, दक्षिणा आदि। पूर्णाहुति के लिये नारियल का गोला आदि, वितरण के लिये प्रसाद। ब्राह्मण-भोजन के लिये मधुमिश्रित खीर तथा अन्यान्य मधुर पकवान, पूरी-साग आदि। हवनकर्ता ब्राह्मणों के लिये वरण और दक्षिणा आदि। कथा समाप्त होने पर कथावाचक को भेंट देने के लिये वस्त्र, आभूषण, दक्षिणा आदि।


Friday, June 19, 2020


मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करती

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)

मानव शरीर पंच्चमहाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश), पंच्चकर्मेन्द्रिय (हस्त, चरण, गुदा, लिंग और जिह्वा), पंच्चज्ञानेन्द्रिय (श्रोत्र, चक्षु, रसना, त्वक् और घ्राण), पंच्चप्राण (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान), अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) तथा अविद्या, काम और कर्म इन 27 तत्वों का बा है। जिसे ‘‘स्थूलशरीर’’ कहते हैं। स्थूल पंच्चमहाभूत और स्थूल पंच्चकर्मेन्द्रिय- इन 10 तत्वों के अतिरिक्त जो बाकी 17 तत्व बचते हैं, उतने मिश्रण का नाम ‘‘सूक्ष्मशरीर’’ है। मृत्यु का अर्थ है- स्थूल पंच्चमहाभूत और स्थूल पंच्चकर्मेन्द्रियों का छूट जाना। अतः मृत्यु में प्राणी का सर्वनाश नहीं हो जाता, किन्तु केवल पूर्वोक्त 10 तत्वों की निवृत्तिमात्र हो जाती है। शेष 17 तत्वों का सूक्ष्मशरीर और करणशरीर मुक्तिपर्यन्त वैसा ही विद्यमान रहता है।
ज्ञानाग्नि में जिनके शुभाशुभ कर्म दग्ध हो जाते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। वे फिर जन्म मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ते। जिनके उग्र सकाम शुभ कर्म है, वे स्वर्ग आदि लोकों में अपने शुभ कर्मों का फल उपभोग करते हैं। जिनके उग्र पापकर्म हैं, वे नरक में गिरते हैं। परन्तु जब भोगते-भोगते शुभ और अशुभ कर्म ऐसे स्तर के अवशिष्ट रह जाते हैं, जो मृत्युलोक में ही भोगे जा सकते हैं, तब स्वर्गीय प्राणी शुचि-श्रीमानों के या योगियों के कुल में उत्पन्न होकर पुण्य-फल प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार नारकीय प्राणी सूकर, कूकर, निर्धन के रूप में जन्म लेकर अपने शेष पापकर्मों का उपभोग करते हैं।

जीव जन्म लेता है, मृत्यु साथ में आती है। मृत्यु तो हर क्षण प्राणी के सिर पर सवार है, उसके केश पकडे़ बैठी है। पता नहीं कब क्या कर दे। कबीर जी का एक कथन स्मरण हो आया। पाठक इसे समझें और विचार करें-
कबीरा गर्व न कीजिए,
ना जाने कब मारिहैं, क्या घर क्या परदेश।
मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करती। रूप, रंग, कुल, पद गणना नहीं करती। इस दृष्टि में राजा- रंक, बाल-व द्ध, स्त्री, पुरूष, रूप-कुरूप सभी एक समान है। जीव माता की गोद में, धरती पर बाद में आता है, पहले से ही वह मृत्यु की गोद में बैठा है। बहुत से घरों में मैने देखा है कि बालक का जन्म हो रहा है, परन्तु जननी-जन्मभूमि की गोद में आने से पूर्व ही वह काल का ग्रास बन गया- मृत्यु के मुंह में समा गया। सारा प्रसन्नता का वातावरण शोकमग्न हो गया। प्रभाती के समय विहाग अलापा जाने लगा। ऐसा अपरिहार्य चक्र है मृत्यु का। तभी तो भगवान गीता में कहते हैं- ‘‘जातस्व ही धु्र्रवों मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।’’ (गीता-2/27)
मृत्यु को हम कैसे स्वीकार करते हैं, यह हमारे ज्ञान और जीवन-साधन की परीक्षा है। आत्मा तो अमर है। किन्तु शरीर गलता, सड़ता, रोगी हाता है और वस्त्र की भांति जर्जर होकर घिसकर विनष्ट हो जाता है। इसमें आश्चर्य एवं दुख की क्या बात है? यह एक प्राकृतिक नियम है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- ‘‘जैसे कुमार, युवा और जरा अवसस्थारूप स्थूलशरीर का विकार अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्मशरीर का विकार भी अज्ञान से आत्मा में भासता है। इसलिए तत्व को समझने वाले धीर पुरूष को इस विषय में मोह नहीं होता।’’ (गीता-2/13)

जीव मृत्युरूपी नदी में पुराने शरीर रूपी वस्त्र बहाकर नये (शरीररूपी) वस्त्र धारण करता ह। कबीर जी इसे दूसरी प्रकार से समझाकर कहते हैं-
जल में कुम्भ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा, कुंभ जल जलहिं समाना यह तत कथ्यौ ज्ञानी।।
चरों ओर ब्रह्मरूपी जल से विश्व ओत-प्रोत है। देहरूपी घड़े में ब्रह्मरूपी जल की एक बूंद आत्मा के रूप में विद्यमान है। देहरूपी घट फूट गया और उसमें से आत्मारूपी जलबिन्दु निकलकर परमात्मा रूपी जलसागर में निमग्न हो गया।’

आत्मा नित्य और अवध्य है, शरीर का नष्ट होना अपरिहार्य है। मृत्यु होने पर केवल शरीर ही नहीं छूट जाता है। संसार के सभी प्रियजन, कुटुम्बी, सम्बन्धी और सभी पदार्थ, धन, सम्पत्ति आदि भी छूट जाते हैं। मृत्यु विवेकदायिनी है, गुरू है। संसार के नाते मिथ्या हैं। मनुष्य अकेला ही संसार में आता है और अकेला ही यहां से विदा हो जाता है। धन, सम्पत्ति और पद-जिनके संचय और सुरक्षा के लिये मनुष्य पाप भी करता है, यहीं छूट जाते हैं। कोई व्यक्ति धन के लिये हुये न उत्पन्न होता है और न मरता है। अतः यह मानना चाहिए कि मैं धन-सम्पत्ति से पृथक हूं। इन पर अपना अधिकार मानना मूर्खता है। इनके साथ ममत्व करना भयंकर भूल है।
जिस वस्तु का आदि है उसका अन्त अवश्य होता है। जहां प्रारम्भ है, वहां समाप्ति है। पृथ्वी पर शरीर यात्रा का प्रारम्भ जन्म से होता है और समाप्ति मरण से होती है। जन्म और मरण देह का होता है। आत्मा तो अनादि और अनन्त है। जन्म होने पर जब माता बच्चे की आयु के विषय में ज्योतिषी से प्रश्न करती है, तब वह वस्तुतः मृत्यु की तिथि पूछना चाहती है। जन्म के पश्चात  मरण ध्रुव सत्य है। मृत्यु एक प्राकृतिक घटना है, जो प्रत्येक शरीरधारी के साथ घटित होती है। किन्तु फिर भी मनुष्य मृत्यु से ऐसे डरते हैं, जैसे बालक अंधकार में प्रवेश करने से डरते हैं। जिसने मृत्यु के भय को जीत लिया, उसने समस्त भयों पर विजय पा ली। जिसने मृत्यु को मित्र समझ लिया, उसने जीवन को मित्र बना लिया।

मृत्यु का सम्यक स्मरण विवेकशील मनुष्य को पुण्य की ओर प्रवृत्त करता है, भयत्रस्त नहीं करता है। मृत्यु का भय समाप्त होने पर मृत्यु एक महोत्सव बन जाती है। यदि स्वस्थ, सुखी जीवन यापन करना एक कला है तो मृत्यु का सुखद आलिंगन भी एक कला है। श्रेष्ठ सिद्धान्तों, आदर्शों पर चलते हुये जीवन को सुखमय बनाने वाला व्यक्ति ही आदर्शों के लिये मरना जानता है, ताकि मृत्यु एक सुखपूर्ण जीवनावसान बन जाये। आदर्शों के लिये जीने वाले और आदर्शों के लिये मरनेवाले मनुष्य धन्य होते हैं और उनके लिये मृत्यु एक महोत्सव होता है। विवेकशील व्यक्ति के लिये मृत्यु कोई समस्या नहीं है। यह देहान्तर प्राप्ति का एक साधन है। आत्मा का वाहन शरीर क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर-पंच्चतत्वों से विनिर्मित है और विनाशशील है। यही विवेक है, ज्ञान है।
मित्र और कुटुम्बी तो श्मशान तक साथ देते हैं और मृतक व्यक्ति की देह को भस्मीभूत करके अपने-अपने कार्य में संलग्न हो जाते हैं। इस जीवन काल में किये हुये सत्कर्म अथवा दुष्कर्म संस्कार बनकर जीवात्मा के आगामी जीवन में प्रारब्ध बनकर साथ रहते हैं। वायु जिस प्रकार गन्धस्थान से सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध को ग्रहण करके ले जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी त्याग दिये गये हुये पहले शरीर से मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर दूसरे शरीर में ले जाता है। गीता 14/8 भी यही कहती है।

मनुष्य की सच्ची कमाई वह है जो उसके साथ जाये और आगामी जीवन यात्रा में सहायक हो। वैंकों के लाकरों और सेफ में रखा हुआ धन, जिसे हमने प्रायः पाप से कमाया और परिश्रम से सुरक्षित रखा, यहीं रह जायेगा। दिया हुआ दान, किया हुआ परोपकार और तप साथ जायेगा। केवल आत्मतत्व ही सच्चा है, अन्य सब पदार्थ मिथ्या हैं। हम असत वस्तुओं की सुरक्षा करने की चिन्ता में अपनी शान्ति भंग कर लेते हैं। सामान सौ बरस के, पल की खबर नहीं।

बहुत से लोग विषम परिस्थितियों में भयभीत होकर उनसे बचने के लिये मृत्यु की इच्छा करते हैं। कई दुर्बुद्धि तो विषपान आदि के द्वारा आत्महत्या कर लेते हैं, जो संसार का घोरतम पाप है। जीवन प्रभु की देन है और इसका अधिकतम सदुपयोग करना हमारा परम धर्म है। कोटि-कोटि पुण्यों से यह मानव देह प्राप्त होती है। इसका उचित मूल्यांकन करें। कुछ अल्पबुद्धि लोग दुखों के मूल कारण मोह को तो दूर नहीं करते और थोड़े समय के लिये दुखों को भूलने के लिये मदिरापान आदि के द्वारा पवित्र प्रभु मन्दिर स्वरूप शरीर को दूषित एवं नष्ट-भ्रष्ट करते हैं। यदि वे कृष्ण नाम रूपी सुमधुर सोमरस पान करें और कृष्णभक्ति रूपी संजीवनी बूटी का प्रयोग करें तो भवरोग ही मिट जाये।

पंच्चभूतों से निर्मित शरीर का स्वभाव गलना-सड़ना है। इसे स्वस्थ और सुथरा रखकर इसका सदुपयोग करें। इसकी क्षणभंगुर सुन्दरता का अभिमान करना मूर्खता का परिचायक है। सुन्दर एवं स्वस्थ विचारों तथा मन, वचन और कर्म की पवित्रता से ही शरीर अलंकृत होता है। आन्तरिक सात्विक सौन्दर्य ही मुखर प्रतिबिम्बित होता है। आज उसके अभाव की पूर्ति प्रसाधनों के अतिशय प्रयोग के द्वारा की जा रही है। शरीर का मोह मृत्यु आने पर सुखपूर्वक प्राण निर्गमन में बाधक सिद्ध होता है तथा इसके कारण मृत्यु भयानक प्रतीत होने लगती है।
अनेक सन्त शरीर के अति जर्जर होने पर तथा चिकित्सा की विफलता देखकर चिकित्सा का त्याग कर देते हैं तथा केवल गंगाजल का पान ही करते-करते प्राण विसर्जन कर देते हैं। मरणावस्था होने पर जैन साधु ‘‘सल्लेखना’’ ग्रहण करके मृत्यु एक महोत्सव है, जिसकी तैयारी करने में उन्हें एक विशेष आह्लाद का अनुभव होता है। इसीलिए प्राणोत्सर्ग के समय संसार के सभी विषयों से तथा मित्रगण एवं कुटुम्बीजन से मोह-नाता छोड़ प्रभु का स्मरण, नामजप एवं ध्यान करना चाहिए। वीतराग होकर प्राणत्याग करे।

जीवन भर परोपकर रत रहकर, दयाद्रवित होकर निःस्वार्थ जन सेवा आदि करने वाले व्यक्ति का मन मृत्युबेला में अवश्य शान्त हो पायेगा। यदि किसी ने जीवन में आततायी बनकर अत्याचार किये हैं, तो उसे महाप्रयाण के समय अत्यधिक मानसिक कष्ट होगा। धीर पुरूष देहावसान काल में परमशान्ति का अनुभव करता है। सत्य तो यह है कि संसार में मिलना और बिछुड़ना सभी कर्मवश होते हैं।  एक व्यक्ति की मृत्यु पर एक स्थान पर रोना मच रहा है तो दूसरी ओर कहीं जन्म लेने पर किसी माता की गोद में पुत्र रत्न आ जाता है और शहनाई बजती है। मृत्यु होने पर पुराने नाते टूट जाते हैं। जिससे उनका मिथ्यापन सिद्ध हो जाता है। मृत्यु महोत्सव के आने पर उल्लास का अनुभव करें। कृष्ण को हृदय में आसीन करके, कृष्ण के ध्यान स्मरण में निमग्न होकर कृष्ण में विलीन होना ही जीवन यात्रा की परम सफलता है।

Tuesday, June 16, 2020

क्या मृत आत्माओं को बुलाया जा सकता है ?

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)
मो0- 08115383332

हिन्दू धर्म के ग्रन्थों में जहां देवताओं और स्वर्ग की विस्तार से चर्चा की गयी है। इन्हीं ग्रन्थां में राक्षस, दैत्य, भूत-प्रेत आदि का भी उल्लेख मिलता है। यहां तक कि रणभूमि में मरे हुये सैनिकों का वर्णन करते हुये योगिनी, बेताल, प्रेत, पिशाच आदि का वर्णन प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि अधिकांश व्यक्ति मृत अत्माओं में विश्वास करते हैं। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त ईसाई और बौद्ध साहित्य में भी प्रेत आदि योनियों की काफी चर्चा मिलती है। अंग्रेजी साहित्य में शैतान का वर्णन है। मिल्टन ने अपनी कृति पैराडाइज लौस्ट में शैतान और नरक की विशद चर्चा की है। सभी धर्म और सम्प्रदाय अदृष्ट मनुष्येतर योनि को मानते आये हैं। आंखों से दिखाई देने वाले इस भौतिक जगत के अतिरिक्त एक सूक्ष्म जगत भी है। इसमें स्वर्ग और नरक का अस्तित्व है। मनुष्य मृत्यु के बाद ऐसे स्थान पर जाता है, जहां उसके अच्छे या बुरे कार्यों के अनुसार नयी योनि का निर्धारण होता है। वह अपने कुकर्मों की सजा पाता है और पुण्य कार्यों के लिये पुरस्कृत होता है। ईश्वर के द्वारा उत्तम योनि में नया जन्म पाता है। परलोक का विषय परम्परागत है।

परलोक का ज्ञान बुद्धि से परे
पाश्चात्य देशों में भी परलोक के सम्बन्ध में काफी रूचि ली जाती रही है। प्रेतों और पिशाचों का सम्बन्ध श्रद्धा और विश्वास से ही है। विज्ञान की कसौटी पर न देवी-देवता दिखाये जा सकते हैं और न दैत्य, राक्षस, भूत और प्रेत ही। यूरोप और इंग्लैण्ड में भी प्राचीन काल के लोग परलोक में पूरा विश्वास करते थे। शैक्सपीयर ने अपने हैमलेट नामक नाटक में अंग्रेज लोगों का 16वीं शताब्दी में भूत-प्रेतों में विश्वास व्यक्त किया है। जो लोग विज्ञान की दृष्टि से ही हर बात को सिद्ध करने की बात करते हैं उन्हें सम्बोधित करते हुये उन्होने हैमलेट के मुंह से यह कहलवाया है- ;ज्ीमतम ंतम उवतम जीपदहे पद ीमंअमद ंदक मंतजीए भ्वतंजपवए जींद पे कतमंउज वि पद लवनत चीपसवेवचीलण्द्ध ‘‘होरेशियो, इस सृष्टि में असंख्य बातें ऐसी हैं, जिनको अभी आपके दार्शनिकों ने कल्पना तक नहीं की है।’’ (यह वाक्य हैमलेट ने अपने पिता के प्रेत देखने के शरीर के प्रसंग में कहा है)

परलोक का ज्ञान बुद्धि से परे है। जो आस्तिक श्रद्धापूर्वक भगवान में विश्वास करते हैं, वे ही परलोक और प्रेत-शरीर को मान सकते हैं। पाश्चात्य विज्ञान सतत विकासमान है और वहां परलोक के सम्बन्ध में भी नयी खोजें होती रहती हैं, पुरानी रूढ़ियों का खण्डन और नये तथ्यों का मण्डन होता रहता है। यूरोप में परलोक विषय के तथ्यों की जानकारी की जांच सम्वत 1905 से प्रारम्भ हुई थी। जिन लोगों के सिर पर प्रेत आते हैं, उन्हें बैठाकर अथवा किसी कोमल या दुर्बल मनवाले को सुलाकर या अचेत करके, कई प्रकार के प्रश्न करके, उनके मुख से निकले हुये उत्तरों की सहायता से परलोक सम्बन्धी नयी जानकारी मिलने लगी। लगभग 60 वर्ष पहले इंग्लैण्ड मे होम नामक एक प्रसिद्ध जिन्नी हुआ। जिन्न, भूत, प्रेत, पिशाच आदि सबमें उसकी पहुंच बतायी जाती है। उसी समय लंदन में प्रो0 विलियम क्रुक्स नामक प्रसिद्ध रसायनशास्त्री थे, जिन्होने थेलियम नामक तत्व का पता लगाया था। प्रो0 क्रुक्स को होम की परलोक सम्बन्धी जानकारी में दिलचस्पी हुई। उन्होने एक तुलादण्ड बनाया। इसे उठाने में ही भार बढ़ता जाता था। जैसे-जैसे दण्ड उठता, एक सुई घूमकर घड़ी के चेहरे की तरफ अंकित एक चक्र पर उसे उठाये हुये भार का परिणाम सूचित करती थी। इस प्रकार उस यन्त्र में 800 मन से ज्यादा उठाने की क्षमता थी। यन्त्र की ठीक प्रकार जांच करके इसे उन्होने एक खाली कमरे में लगाया। होम की कुर्सी द्वार के पास अपनी कुर्सी के साथ रखवायी और उनकी तलाशी लेकर होम को आज्ञा दी-‘अब आप अपने प्रेत से कहिये कि अमुक चिन्हवाले तुलादण्ड को जितना ऊपर उठा सके, उठाये।’

यह सुनकर होम ने प्रेत का आवाहन किया और तुलादण्ड धीरे-धीरे उठने लगा। प्रो0 क्रुक्स के आश्चर्य की सीमा न रही। वह तुलादण्ड इतना उठा, जितना होम जैसे 10-20 बलवान भी मिलकर न उठा पाते। इससे प्रमाणित हो गया कि वास्तव में प्रेत नाम की कोई अदृश्य शक्ति अवश्य है। इस संकेत से प्रो0 क्रुक्स ने परलोक सम्बन्धी ज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन किया और अपनी जांच को प्रकाशित कराया। जिससे और वैज्ञानिक इस विषय का अनुसंधान करें और परलोकविद्या को विज्ञानों में स्थान मिल सके। पहले तो प्रो0 क्रुक्स की हंसी उड़ाई गयी, पर फिर और भी विचारक इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने लगे। कई कई विद्वान वैज्ञानिकों ने विज्ञान के नियमों के अनुसार इस विषय की पड़ताल करने के लिये एक परिषद बनायी। यह परिषद संवत् 1939 में बनी थी और इसका नाम परान्वेषण परिषद ;ैवबपमजल वित च्ेलबीपबंस त्मेमंतबीद्ध रखा गया। इस परिषद की देखभाल में मेस्मरिज्म, अलग-अलग विधियों से प्रेतों से सम्बन्ध के प्रयोग और हिप्नोटिज्म आदि के अनेक प्रयोग किये जाने लगे। भूत-प्रेतों का ढोंग कर जनता को छलनेवाले लोगों का पर्दाफाश भी किया गया। आगे चलकर उन्होने इतना काम किया कि आप जाश्चात्य जगत में परलोक-अन्वेषण काफी मात्रा में हो चुका है। इस विषय पर साहित्य भी उपलब्ध है। 

खोज की दृष्टि से प्रो0 विलियम क्रुक्स ने एक देहाती लड़की का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया, जो कुछ दिन से एक विचित्र मूर्च्छा-रोग से पीड़ित थी। उसे प्रेतबाधा नामक रोग बताया गया था। इस लड़की का नाम कुमारी कुक था। उन्होने एक माह तक उस कन्या को अपनी प्रयोगशाला में रखा। इस लड़की के स्थूल शरीर पर बीबी केटी किंग नामक किसी महिला का प्रेतात्मा आया करता था। क्रुक्स ने प्रेतात्मा का पूरा परिचय प्राप्त किया। उस प्रेतात्मा को क्रुक्स का व्यवहार इतना पसंद आया कि वह उस लड़की के शरीर को मूर्छित कर उनसे गप्पें मारा करता था। प्रेतवाली लड़की अजीब तरह से व्यवहार करने लगती। उनके साथ चाय पीती। उनके घर से बच्चों को उठा लाती और विचित्र करतब दिखाती। प्रो0 क्रुक्स की पुस्तक परलोक विद्या सम्बन्धी अनुसन्धान में ऐसे 29 प्रयोग दिये हैं। उन प्रेतात्मा के मरने के पहले की कहानी भी इस पुस्तक में वर्णित है। यह पुस्तक यूरोप की यह प्रारम्भिक कृति मानी जाती है। 

इस तरह यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य देशों के लोग भी परलोक विद्या में रूचि रखते हैं। भारत में तो परलोक विषय पर बहुत प्राचीन विश्वास रहा है। वैसे तो भूत-प्रेतों, चुड़ैल-डाकिनी के नाम पर यहां खूब पाखंण्ड और छल भी होता रहा है। जिससे भोले-भाले लोग ठगे जाते रहते हैं। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से अब परलोक विद्या मनोविज्ञान की एक शाखा मान ली गयी है। ये लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इन्द्रियातीत संसार बहुत विस्तृत है। जितना कुछ हमें 5 इन्द्रियों से दिखता है, उसकी अपेक्षा समस्त वस्तु की सत्ता अनन्त, अपरिमित और असीम है। उनको जानने के लिये हमें भीतर इन्द्रियों और सूक्ष्म शरीरों की शिक्षा और विकास की आवश्यकता है। हमारे यहां योगसाधन द्वारा परलोक विद्या की प्राप्ति कोई नयी बात नहीं है। 

हिन्दू धर्म की मान्यता
हिन्दू धर्म की यह मान्यता है कि ब्रह्माण्ड में मुख्य 14 लोक हैं। ऊपर के लोक में सत्आत्मा रहते हैं। जिसे स्वर्ग कहते हैं। नीचे एक नरक लोक है, जिसमें दैत्य और भूत-प्रेत आदि दुष्ट आत्मा नरक का दुख भोगते रहते हैं। मध्य में मनुष्यलोक है। जिसमें मनुष्य सत्कर्म द्वारा अगले जन्म में स्वर्ग या नरक में जाने का अधिकारी होता है। आत्मा को परलोक में रहकर अपने पाप-पुण्यों का फल भोगकर अवशिष्ट कर्मों से मनुष्य लोक में जाना पड़ता है। भारतीय विचारकों के अनुसार सूर्य, चन्द्र या तारों में भी एक-एक स्रष्टि है। ये अलग-अलग लोक हैं। सभी परलोक हैं। सभी में जीव के निवास का विधान है। अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार जीव उसमें पहुंचता है। सुख-दुख का अधिकारी बनता है। परलोक में रहने वाले आत्माओं की शक्ति साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक रहती है। जब तक जीवात्मा इस पृथ्वीलोक में स्थूल शरीर में रहता है, तब तक उसकी शक्ति कम रहती है, किन्तु ज बवह स्थूलशरीर को छोड़कर सूक्ष्म होकर पितृलोक में जाता है तो उसकी शक्ति बढ़ जाती है। पितरलोक में निवास करने वाले आत्मा बहुत शक्तिशाली और अद्भुत शक्तिसम्पन्न सर्वज्ञ होते हैं। सबकी जानकारी रखते हैं। कई गुप्त बातें प्रकट कर देते हैं। असाध्य रोगों का, हत्याकाण्डों के गुप्त रहस्य, षड्यन्त्र और भविष्य में होनेवाली अनेक अद्भुत बातें उनसे प्रकट हो जाती हैं। 

प्रेतात्मा आपके मन्तव्य को पहचानते हैं। यदि उनसे मजाक किया जाये, तो वे नाराज हो जाते हैं और बड़ी समस्य पैदा करते हैं। हवन, कीर्तन, धूप-दीप आदि जलते रहने से वे दूर रहते हैं। उन्हें तभी बुलाया जाना चाहिये जब कोई निःस्वार्थ काम हो और उसके सम्बन्ध में जानकारी बहुत आवश्यक हो जाये। जो जीवन में अतृप्त रहते हैं वे ही प्रेतात्मा यहां-वहां भटकते रहते हैं। उनकी ममता और आसक्ति पृथ्वी पर रहने वाले अपने पुत्र-पुत्री तथा सम्बन्धियों में जकड़ी रहती है और प्रायः वे उन्हीं के आस-पास चक्कर लगाते रहते हैं। जिनका जीवन शान्त और संतोषमय रहा हो, मरने से पूर्व जो सब प्रकर के माया, ममता और मोह से मुक्त हो जाते हैं, जिनकी मनोवृत्ति परोपकर और ईश्वर चिन्तन की ओर विशेषरूप से रहती है, वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। ऋग्वेद कहता है ‘‘उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे।।’’ (ऋग्वेद 1/25/21) अर्थात पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा की सांसारिक भावना से हम उन्मुक्त हों। क्योंकि इनसे हमारा आत्मा पतित होकर दुख पाता है। सामवेद कहता है-
अच्छा व इन्द्रं मतयः स्वर्युवः सध्रीचीर्विश्वा उशीतीरनूषत।
परि ष्वजन्त जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये।। (सामवेद 375)
अर्थात ‘मनुष्य जितना लौकिक कामनाओं धन आदि के लिये तथा स्त्री आदि के प्रति प्रेम होता है, उतना ही यदि वह ईश्वर से प्रेम करे, तो निस्संदेह संसार से रक्षा और परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है।’

मृत आत्माआें का आवाहन
मरणोपरान्त जीवन पर विश्व के दार्शनिकों ने बहुत विचार-विमर्श किया है। पर अन्तिम परिणाम कुछ नहीं निकला है। आत्मा, पुनर्जन्म, भूत-प्रेत, परलोक आदि मनुष्य के लिये सदैव से रहस्य के विषय रहे हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों का यह अनुभूत सिद्धान्त है कि आत्मा नित्य है और जीवात्मा को पुनर्जन्म तथा परलोक की कर्मानुसार प्राप्ति होती है। पाश्चात्य जगत में इसकी खोज चल रही है। नार्मन विन्सेट पील नामक विद्वान ने जीवनभर जीवित बने रहिये ;ैजंल ंसपअम ंसस लवनत सपमिद्ध नामक पुस्तक की रचना की। इसमें उन्होने मृत्यु के उपरान्त जीवन होने पर प्रकाश डाला है। इस पुस्तक के अनुसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडीसन मृत्यु के बाद जीवन में विश्वास रखते थे। वे मानते थे कि आत्मा का पृथक अस्तित्व है, जो मृत्यु के उपरान्त शरीर का छोड़ जाता है। मृत्यु के समय एडीसन ने कहा था कि ‘अहा, आगे कैसा सुन्दर लग रहा है।’ पील महाशय के अनुसार कई मरते हुये व्यक्तियों ने उन्हें बताया कि उन्हें आश्चर्यजनक ज्योति दिखाई पड़ रही है। विचित्र संगीत सुनाई दे रहा है। कइयों ने बताया था कि उन्हें ऐसे चेहरे दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें वे पहचानते हैं। इन मरनेवालों की आंखों से प्रायः संदिग्ध आश्चर्य टपकता था। परलोक विद्या में रूचि रखने वाले जिज्ञासुओं के सामने मुख्य समस्या यह है कि मृत-आत्माआें से शीघ्र सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। कुछ प्रयोग ऐसे हैं, जिनके द्वारा मृत-आत्माओं से शीघ्र सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। इन प्रयोगों के पीछे श्रद्धा, साहस, उत्कण्ठा, विश्वास आदि गुण प्रयोगकर्ता में होने आवश्यक हैं। मृत-आत्माओं को बुलाने की कई विधियां है। किन्तु किन्हीं कारणवश उन विधियों का उल्लेख यहां नहीं किया जा रहा है। 

आत्माओं से साक्षात्कार सम्बन्धी प्रयोग भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी हो रहे हैं। भूत-प्रेतों के अस्तित्व में अंग्रेज भी विश्वास करते थे। द्वितीय महायुद्ध के समय एक ब्रिटिश वैमानिक भूत कतिपय जन्य वैमानिकों के साथ जर्मनी पर बम-वर्षा करता रहता था। इसकी चर्चा ब्रिटिश वायुसेना के एयर मार्शल लार्ड डाबडिंग ने भी अपने एक लेख में की थी। परलोकगत आत्माओं के चित्र भी खींचे जा सकते हैं। प्रत्यक्ष दर्शन, उनसे वार्तालाप करना, उनका स्पर्श करना आदि भी सम्भव है। इंग्लैड और अमेरिका की कई आध्यात्मिक संस्थायें परलोक-विद्या में रूचि ले रही हैं। प्रेतात्माओं का अस्तित्व तर्क से कम, पर श्रद्धा और विश्वास करने से सहज सिद्ध किया जा सकता है। सर आर्थर कानन डायल, जी.एम.स्मिथ,सर आलिवर लाज एवं पील आदि परलोक-विद्या में रूचि रखने वाले विद्वान हुये हैं। प्रयोगों को र्धयपूर्वक करना चाहिये। आत्मा जड़-जगत से परे है। 

पाठकां और जनहित की दृष्टि से यह बताना चाहेंगे कि इस विद्या में कई संकट आते हैं। यह स्पष्ट है कि ये विद्यायें ईश्वर की तरफ जाने में बाधक बन जाती हैं। मनुष्य सिद्धियों के जाल में फंसकर रह जाता है। इसलिये बड़ी सतर्कता एवं संरक्षण जरूरी है। प्रमुख बात यह कि इस विद्या में मृतात्माओं आदि के आवाहन से पूर्व अपने चक्र के संरक्षण की व्यवस्था कर लेनी चाहिये। जिन पर किन्हीं शक्तिशाली देवता की कृपा विशेष है, वे उनके संरक्षण में अपना चक्र आसानी से चला लेते हैं। अन्यथा किसी उच्चलोक के अपने सम्बन्धी आत्मा से भी सहायता मिल जाती है। परन्तु उनकी शक्ति सीमित होती है। सातवें लोक के आत्मा नीचे के 6 लोकों में जाने में स्वतंत्र हैं, पर वे ऊपर (दिव्य धाम) नहीं जा सकते। इसी प्रकार अन्य लोकों के आत्माओं के लिये भी नियम लागू हैं। यदि आपके चक्र का संरक्षण कोई नीचे के लोक के आत्मा के हाथ में हैं तो वह ऊपर के आत्मा पर शासन नहीं कर सकता। इसी से चक्र पर अधिक बलवान आत्मा आकर, झूठ बोलकर आपकों धोखा दे सकते हैं और हानि पहुंचा सकते हैं। मै एक एैसे कर्मकाण्डी ब्राह्मण महाशय को जानता हूं जिनके घर में इसी प्रकार आकर 40 आत्माओं ने डेरा डाल दिया और उनके घर को तहस-नहस कर डाला। 

चक्रकर्ता यदि भक्तिभाव एवं शुद्धविचार का है, तो ऐसी जगह ब्रह्मराक्षस के आने की आशंका बनी रहती है। क्योंकि पवित्र चक्र पर उसको चैन मिलता है। ब्रह्मराक्ष वे मृत ब्राह्मण होते हैं जो किसी सिद्धि में असफल होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इन पर वे ही चक्रकर्ता शासन कर सकते हैं, जो इनकी असफल् सिद्धि से अधिक बल रखते हों। कहने का तात्पर्य कि शक्तिशाली सिद्ध हों या ईश्वर के कृपा पात्र हों। ये ब्रह्मराक्षस साधारण चक्र संरक्षकों से नहीं रूकते तथा बिना बुलाये आ जाते हैं। आकर मनमानी कर सकते हैं। इनमें अच्छे स्वभाव के भी होते हैं, बुरे के भी। बुरे स्वभाव वालों से बड़ी विपत्ती में फंस सकते हैं। इनके बचना हर किसी की सामर्थ्य से बाहर होता है। इसलिये निवेदन कि यह विद्या जितनी आसान है, उतनी ही भयावह भी है। इसलिये सोच-समझकर इस रास्ते पर पग धरें।

कैसे करता है जीव गर्भ में प्रवेश

 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
मो0- 08115383332
जीव प्रारब्ध-कर्मवश देह प्राप्ति के लिये पुरूष के वीर्यकण के आश्रित होकर स्त्री के उदर में प्रवेष करता है। आयुर्वेद के विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर जीव के पूर्वकर्मानुसार गर्भप्रवेश का भी वर्णन उपलब्ध होता है। सुश्रुतसंहिता के अनुसार यह आत्मा जैसे शुभ-अशुभ कर्म पूर्वजन्म में संचित करता है, उन्हीं के आधार पर इसका पुनर्जन्म होता है और पूर्वदेह में संस्कारित गुणों का प्रादुर्भाव इस जन्म में होता है। जैसा की योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में इस बात की पुष्टि- ‘तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।’ इस वाक्य से की है। इसी कारण हम संसार में किसी को कुरूप, किसी को सुन्दर, किसी को लंगड़ा, किसी को लूला, किसी को मूक और किसी को कुबड़ा तो किसी को अंधा और किसी को काना कहते हैं। इसी प्रकार कोई जीव किसी महापुरूष के घर जन्म लेता है तो कोई किसी अधम के घर उत्पन्न होता है। कोई ऐश्वर्यशाली के घर में जन्म लेता है तो कोई अकिंचन झोपड़ी में पलता है। यह सम्पूर्ण विविधता पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती है, जिसे कि हम दैव (भाग्य) भी कहते हैं।

गर्भप्रवेश
चरकसंहिता के शारीरस्थान के चतुर्थ अध्याय में भी इस बात की पुष्टि इस प्रकार से की गयी है- 
‘तत्र पूर्व चेतनाधातुः सत्वकरणो गुणग्रहणाय पुनः प्रवर्त्तते। स हि हेतुः कारणं निमित्तमक्षरं कर्ता मन्ता बोधयिता बोद्धा द्रष्टबाधा ब्रह्मा विश्वकर्मा विश्वरूपः पुरूषः प्रभवो अव्ययो नित्यो गुणी ग्रहणं प्राधान्यमव्यक्तं जीवो ज्ञः प्रकुलश्चेतनावान प्रभुश्च भूतात्मा चेन्द्रियात्मा चान्तरात्मा चेति। (च0 शा0 4/4)
‘सबसे पूर्व मनरूपी कारण के साथ संयुक्त हुआ आत्मा धातुगुण के ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है, अर्थात ग्रहण के लिये अथवा महाभूतों के ग्रहण के लिये प्रवृत्त होता है। आत्मा का जैसा कर्म होता है और जैसा मन उसके साथ है, वैसा ही शरीर बनता है, वैसे ही पृथ्वी आदि भूत होते हैं तथा अपने कर्मद्वारा प्रेरित किये हुये मनरूपी साधन के साथ स्थूलशरीर को उत्पन्न करने के लिये उपादानभूत भूतों का ग्रहण करता है। वह आत्मा हेतु, कारण, निमित्त, कर्ता, मन्ता, बोधयिता, बोद्धा, द्रष्टा, धाता,ब्रह्मा, विश्वकर्मा, विश्वरूप, पुरूषप्रभव, अव्यय, नित्यगुणी, भूतों का ग्रहण करने वाला प्रधान,अव्यक्त, जीवज्ञ, प्रकुल, चेतनावान, प्रभु, भूतात्मा, इन्द्रियात्मा और अन्तरात्मा कहलाता है।’

चरकसंहिता के अनुसार- ‘स (आत्मा) गर्भाशयमनुप्रविश्य शुक्रशोणिताभ्यां संयोगमेत्य गर्भत्वेन जनयत्यात्मनात्मानम् आत्मसंज्ञा हि गर्भे। (च0शा0 3/14) अर्थात वह जीव गर्भाशय में अनुप्रविष्ट होकर शुक्र और शोणित से मिलकर अपने से अपने को गर्भरूप में उत्पन्न करता है। अतएव गर्भ में इसकी आत्मसंज्ञा होती है।
सुश्रुतसंहिता के अनुसार- ‘क्षेत्रज्ञो वेदयिता स्प्रष्टा घ्राता द्रष्टा श्रोता रसयिता पुरूषः स्त्रष्टा गन्ता साक्षी धाता वक्ता यः कोअसावित्येवमादिभिः पर्यायवाचकैर्नामभिरभिधीयते दैवसंयोगादक्षयोअव्ययोअचिन्त्यो भूतात्मना सहान्वक्षं सत्वरजस्तमोभिर्दैवासुरैरपरैश्च भावैर्वायुनाभिप्रेर्यमाणो गर्भाशयमनुप्रविश्यावतिष्ठते। (सुश्रुत शा0 3/3) अर्थात ‘क्षेत्रज्ञ, वेदयिता, स्प्रष्टा, ध्राता, द्रष्टा, श्रोता, रसयिता, पुरूषसत्रष्टा, गन्ता, साक्षी, धाता, वक्ता इत्यादि पर्यायवाची नामों से, जो ऋषियों द्वारा पुकारा जाता है, वह क्षेत्रज्ञ (स्वयं अक्षय, अचिन्त्य और अव्यय होते हुये भी) दैव के संग से सूक्ष्म भूत तत्व, रज, तम, दैव, आसुर या अन्य भाव से युक्त वायु से प्रेरित हुआ गर्भाशय में प्रविष्ट होकर (शुक्रआर्तवक के संयोग होते ही) तत्काल उस संयोग में अवस्थान करता है।’

जीव का गर्भ वृद्धिक्रम
गर्भ में प्रवेष करने के बाद यह आत्मा पांच्चभौतिक शरीर को धारण करने लगता है। इस शरीर की वृद्धि गर्भ में क्रमशः 9 मास तक होने का वर्णन भी कई ग्रन्थों से प्राप्त होता है। श्रीमदभागवत एवं गुरूडपुराण के अनुसार-
कललं त्वेकरात्रेण पच्चरात्रेण बुद्बुदम।
दशाहेनु तु कर्कन्धुः पेश्यण्डं वा ततः परम्।।
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्नड्घ््रयाद्यग्डविग्रहः।
नखलोमास्थिचर्माणि लिंगच्छिद्रोद्भवस्त्रिभिः।।
चतुर्भिर्धातवः सप्त पच्चभिः क्षुत्तृडुद्भवः।
षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे।। 
(श्रीमद्भागवत 3/31/2-4, गुरूणपुराण सारोद्धार 6/6-8) 
अर्थात ‘डिम्बाणु के साथ मिले हुये शुक्राणु की वृद्धि एक रात्रि में कलल, 5 रात्रि में बुद्बुद, 10 रात्रि में कर्कन्धू (बेर) के समान मांस के पिण्ड के रूप में होती है एवं अन्य मानवेतर योनियों में अंडे के रूप में होती है। उसके बाद 2 मास में सिर और बाहु अंग का विग्रह (विभाग) होता है। 3 माह में नख, रोम, हड्डी, चर्म और लिंग आदि छिद्र होते हैं। 4 महीने में सातों धातु बनते हैं, 5 माह में क्षुधा तथा तृषा की उत्पत्ति होती है। एवं 6 माह ममें जरायु (झिल्ली) में लिपटा हुआ दक्षिणकुक्षि में भ्रमण करता है। 7वें माह में सचेत होकर प्रसूतिवायु से कम्पित होता हुआ विष्ठा से उत्पन्न सहोदर कृमि के समान चलता रहता है।’

आयुर्वेद के मुख्य ग्रन्थ सुश्रुतसंहिता के आधार पर गर्भ-वृद्धिक्रम का वर्णन कुछ इस प्रकार से मिलता है- ‘शुक्र और शोणित के संयोग से पहले मास में गर्भ कलल अर्थात बुद्बुदाकार होता है। दूसरे मास में शीत (श्लेष्मा), उष्मा (पित्त) और अनिल (वात) इनसे पच्चमहाभूतों का समूह गाढ़ा बनता है। यदि वह समूह पिण्डाकृति हो तो पुत्र और पेशी (दीर्घाकृति) हो तो कन्या तथा अर्बुद गोला ( ज्नउवनत ) के परिमाण का हो तो नपुंसक होता है। तीसरे माह में दो हाथ, दो पैर और सिर ऐसे 5 अवयवों क पिण्ड होते हैं और गर्दन, छाती, पीठ तथा पेट ( ैजवउंबी ) ये अंग और ठोड़ी, नासिका ( छवेम ), कान, अंगुली, एड़ी आदि प्रत्यंगों का विभाग अस्पष्टतया ज्ञात होता है। चौथे मास में सब अंग-प्रत्यंग के विभाग बहुत स्पष्ट हो जाते हैं तथा गर्भ का हृदय स्पष्ट होने से चतना धातु व्यक्त होता है। क्योंकि हृदय चेतना धातु का स्थान (आश्रय) है। इसलिये इन्द्रियार्थ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध- इनकी अभिलाषा चौथे मास में होती है। पांचवे मास में मन अधिक प्रबुद्ध एवं सचेत होता है। छठे मास में बुद्धि प्राप्त होती है। सातवें में सब अंग-प्रत्यंगों की अभिव्यक्ति होने लगती है। जैसे चार शाखा, सिर और कोष्ठ ये 6 अंग-प्रत्यंग ग्रीवा-मूर्धादि स्पष्ट हो जाते है। आठवें मास में ओज चंचल रहता है। इस मास में बालक पैदा होने पर नैऋर्त भाग के कारण तथा ओजधातु क्षीण रहने से सम्भवतः जीवित नहीं रहता। नवमें, दसवें या ग्यारहवें या बारहवें मास में उत्पन्न बालक जीवित रहता है। इसके बाद यदि प्रसव न हो तो वह विकारी गर्भ माना जाता है। (सुश्रुत शा0 3/14)

जीव का गर्भवास
श्रीमद्भागवतमहापुराण तथा गरूडपुराण सारोद्धार में जीव के गर्भवास का वर्णन विस्तार से मिलता है। उसके अनुसार ‘माता द्वारा भुक्त अन्न या पेय पदार्थ आदि बढ़ा है रस, रक्त आदि धातु जिसका, ऐसा प्राणी असम्मत अर्थात जिससे दुर्गन्ध आती है, जिसमें जीव का सम्भव है ऐसे विष्ठा और मूत्र के गर्त में सोता है। कोमल होने से गर्त में होने वाले भूखे कीड़ों के काटे जाने पर हरपल उस क्लेश से पीड़ित हो मूर्छित हो जाता है। माता से खाये हुये कडुवे, तीक्ष्ण, नमकीन, रूखे और खट्ठे आदि उल्बण पदार्थ से छुए जाने पर अंगों में वेदना होती है तथा जरायु और आंत के बन्धन में पड़कर पीठ और गर्दन के लचकने से कांख में सिर करके पिंजरे के पक्षी के समान अंगों के चलाने में असमर्थ हो जाता है। वहां दैवयोग से सौ जन्म की बात स्मरण कर लम्बी सांस लेता है। अतः कुछ भी सुख नहीं मिलता। संतप्त और भयभीत जीव धातुरूप सात बन्धनों में जकड़ा तथा हाथ जोड़कर, जिसने इस उदर में डाला है, उसकी स्तुति करता है जीव। ये स्तुति गरूडपुराण में इस प्रकार दी हुई है-
श्रीपतिं जगदाधारमशुभक्षयकारकम्।
व्रजामि शरणं विष्णुं शरणागतवत्सलम्।।
त्वन्मायामोहितो देह तथा पुत्रकलत्रके।
अहंममाभिमानेन गतोअहं नाथ संसृतिम।।
कृतं परिजनस्यार्थे मया कर्म शुभाशुभम्।
एकाकी तेन दग्धोअहं गतास्ते फलभागिनः।।
यदि योन्याः प्रमुच्येअहं तत् स्मरिष्ये पदं तव।
तमुपायं करिष्यामि येन मुक्तिं व्रजाम्यहम्।।
विण्मूत्रकूपे पतितो दग्धोअहं जठराग्निना।
इच्छन्नितो विवसितुं कदा निर्यास्यते बहिः।। (ग0पु0 सा0 6/16-20)
अर्थात ‘हे लक्ष्मीपति! जगत के आधार, अशुभ के नाशकर्ता, शरणागत के वत्सल श्रीविष्णु! मैं आपकी शरण हूं। आपकी माया से मोहित होकर देह में मै तथा पुत्र-स्त्री में मेरा अभिमान करके हे नाथ! मैं संसार में प्राप्त हूं। मैंने कुटुम्ब के लिये शुभ-अशुभ कर्म किया, परन्तु उस कर्म से मैं अकेला दग्ध होता हूं और ये कुटुम्बी फल के भागी हुये। यदि योनि से छुटकारा हुआ तो आपके चरणों का स्मरण करूंगा, जिससे संसार से मुक्त हो जाऊं। विष्ठा और मूत्र के कूप में गिरा हुआ मैं बाहर निकलने की इच्छा करता हुआ जठराग्नि से दग्ध हो रहा हूं, मुझे आप कब बाहर निकालेंगे।’

इस प्रकार के करूण विलाप को सुनकर सर्वान्तर्यामी ईश्वर उस पर अपनी अहैतुकी कृपा कर उसे उस नारकीय स्थान से बाहर निकाल देते हैं और जब वह कर्म भोगकर बाहर आता है तभी वैष्णवी माया उस जीव को मोहित कर लेती है तथा वह माया में पड़कर कुछ नहीं बोलता और संसार चक्र में पुनः घूमने लगता है। किन्तु पूर्वजन्म के प्रबल संस्कार से यदि वह भगवद्धभक्ति के सुमार्ग पर चलता है तो इस जन्म में अपना उद्धार कर सकता है। अतः माता-पिता को चाहिये कि अपने बालकों में शुरू से ही इस प्रकार के जीवन के उद्धार संस्कार डालें, जिससे जीव का कल्याण हो सके। 

गर्भवास का वर्णन आयुर्वेद ग्रन्थों में इस प्रकार से प्राप्त होता है- (चरक, शारीरस्थानम 6/15) ‘गर्भ की अपनी प्यास और भूख नहीं होती। उसका जीवन पराधीन होता है। कहने का तात्पर्य माता के अधीन होता है। वह सत् और असत् (सूक्ष्म) अंगों वाला गर्भ माता पर आश्रित रहता हुआ उपस्नेह (रिसकर आये रस) और उपस्वेद (उष्मा) से जीवित रहता है। जब अंग के अवयव व्यक्त हो जाते हैं अर्थात स्थूल शरीर में आ जाते हैं, तब कुछ तो लोमकूप के मार्ग से उपस्नेह होता है और कुछ नाभिनाल के मार्ग से। गर्भ की नाभि पर नाड़ी लगी रहती है। नाड़ी के साथ अपरा जुड़ी रहती है और अपरा का सम्बन्ध माता के हृदय के साथ रहता है। गर्भ को माता का हृदय स्पन्दमान (बहती हुई) सिराओं द्वारा उस अपरा को रस या रक्त से भरपूर किये रहता है। वह रस गर्भ को वर्ण एवं बल देनेवाला होता है। सब रसों से युक्त आहार रस गर्भिणी स्त्री में 3 भागों में बंट जाता है। एक भाग उसके अपने शरीर की पुष्टि के लिये होता है और दूसरा भाग क्षीरोत्पत्ति के लिये तथा तीसरा भाग गर्भवृद्धि के लिये होता है। इस प्रकार वह गर्भ इस आहार से परिपालित होकर गर्भाशय में जीवित रहता है।’

सुश्रुत संहिता (2/52) कहती है ‘माता के निःश्वास, उच्छ्वास, संक्षोभ तथा स्वप्न से उत्पन्न हुये निःश्वास, उच्छ्वास, संक्षोभ और स्वप्नों को गर्भ प्राप्त करता है। अर्थात जब तक बालक माता के गर्भ में रहता है, वह माता के शरीर के अंग के समान होता है और माता के प्रत्येक भले-बुरे कर्म का परिणाम जैसे उसके शरीर पर होता है, वैसे ही गर्भ के ऊपर भी होता है। माता जब श्वास लेती और छोड़ती है, तब उसके रक्त के साथ-साथ गर्भ रक्त की भी शुद्धि होती है। माता जब सोती है तो उसके साथ-साथ गर्भ को आराम मिलता है। माता जब भोजन करती है, तब उसके शरीर के पोषण के साथ गर्भ का भी पोषण होता है। माता जब संक्षुब्ध होती है, तब उसके शरीर ( ठवकल ) पर जो परिणाम होता है, वही परिणाम गर्भ पर भी होता है। कहने का तात्पर्य कि माता के प्रत्येक कर्म के साथ-साथ गर्भ भी वही कर्म करता महसूस होता है। वास्तव में न गर्भ श्वास लेता है, न सोता है, न भोजन करता है, न क्रुद्ध होता है और न मल-मूत्र का त्याग ही स्वतन्त्रवृत्ति से करता है।’ गर्भ पूर्णतया माता की वृत्तियों पर आश्रित होता है। इसलिये माता को हमारे शास्त्र ये आदेश देते हैं कि वह अच्छा भोजन करे। जो अधिक नमकीन, कडुये, तीखे, खट्टे आदि पदार्थों से रहित हो। परिश्रम अधिक न करे। ऐसी बातें न करे जो मन को कष्ट देती हां। गन्दे वस्त्र धारण न करे। मैथुन, वाहन की सवारी आदि छोड़ दे। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिये। अच्छी वस्तुओं का दर्शन करे। अच्छी कथाएं सुने। कुसंग का त्याग करे। एैसा करने से गर्भ में पल रहे शिशु को किसी प्रकार की पीड़ा नही होगी और वह अच्छा व शुद्ध जीवन व्यतीत करेगा। अष्टांगहृदय, शारीरस्थान ( 1/56) ग्रन्थ कहता है- ‘गर्भ की नाभि में लगी नाड़ी के द्वारा माता के आहार-रस से गर्भ का पोषण केदारकुल्या न्याय से होता है। जिस प्रकार एक किसान कई क्यारियों में बोये पौंधों की सिंचाई करता है। उसी प्रकार नाभि नाड़ी की एक ही मूल नाली से जाते हुये आहार रस के द्वारा कई धातुओं का पोषण होता है।

Wednesday, June 10, 2020

कौन थे ओम जय जगदीश हरे आरती के रचयिता?


आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है।

पं. श्रद्धाराम शर्मा (या श्रद्धाराम फिल्लौरी) लोकप्रिय आरती ओम जय जगदीश हरे के रचयिता हैं। इस आरती की रचना उन्होंने 1870 में की थी। वे सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी व पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वाक्पटुता के बल पर उन्होने पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया। जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित उर्वर भूमि मिली।

जीवन परिचय
पं. श्रद्धाराम शर्मा का जन्म सन ................ पंजाब के जालंधर जनपद में स्थित फिल्लौर शहर में हुआ था। उनके पिता जयदयालु स्वयं एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने पुत्र का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। उन्होंने 7 वर्ष की आयु तक गुरुमुखी में पढाई की। दस वर्ष की आयु में संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा ज्योतिष की पढाई प्रारम्भ की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों में पारंगत हो गये। उनका विवाह सिख महिला महताब कौर के साथ हुआ था। 24 जून 1881 को लाहौर में उनका देहावसान हुआ।

उनका कार्यक्षेत्र
पं. श्रद्धाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में ‘सिक्खां दे राज दी विथियाँ’ और ‘पंजाबी बातचीत’ जैसी पुस्तकें लिखीं। अपनी पहली ही किताब ‘सिखों दे राज दी विथिया’ से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के विषय में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया। पुस्तक में 3 अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।

उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उद्धरण देते हुये अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई। वे महाभारत का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। 1865 में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही। पं० श्रद्धाराम स्वयं ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं० श्रद्धाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं० श्रद्धाराम ने पादरी के कहने पर बाइबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं० श्रद्धाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिये भी बहुत काम किया।

विरासत
1870 में उन्होंने ‘ओम जय जगदीश’ की आरती की रचना की। पं० श्रद्धाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गये थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिये आमंत्रित किया जाने लगा। हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है। 1877 में भाग्यवती नामक एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है), इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। पं० श्रद्धाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष डॉ० हरमिंदर सिंह ने काफी शोध कर 3 तीन संस्करणों में श्रद्धाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं० श्रद्धाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं० श्रद्धाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रद्धाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है।

रचनाएं
लगभग दो दर्जन रचनाओं का पत चलता है
  • संस्कृत - (1) नित्यप्रार्थना (शिखरिणी छंद के 11 पदों में ईश्वर की दो स्तुतियाँ)। (2) भृगुसंहिता (सौ कुंडलियों में फलादेश वर्णन), यह अधूरी रचना है। (3) हरितालिका व्रत (शिवपुराण की एक कथा)। (4) कृष्णस्तुति विषयक कुछ श्लोक, जो अब अप्राप्य हैं।
  • हिंदी - (1) तत्वदीपक (प्रश्नोत्तर में श्रुति, स्मृति के अनुसार धर्म कर्म का वर्णन)। (2) सत्य धर्म मुक्तावली (फुल्लौरी जी के शिष्य श्री तुलसीदेव संगृहीत भजनसंग्रह) प्रथम भाग में ठुमरियाँ, बिसन पदे, दूती पद हैंय द्वितीय में रागानुसार भजन, अंत में एक पंजाबी बारामाह। (3) भाग्यवती (स्त्रियों की हीनावस्था के सुधार हेतु प्रणीत उपन्यास)। (4) सत्योपदेश (सौ दोहों में अनेकविध शिक्षाएँ) (5) बीजमंत्र (सत्यामृतप्रवाह नामक रचना की भूमिका)। (6) सत्यामृतप्रवाह (फुल्लौरी जी के सिद्धांतों और आचार विचार का दर्पण ग्रंथ)। (7) पाकसाधनी (रसोई शिक्षा विषयक)। (8) कौतुक संग्रह (मंत्रतंत्र, जादूटोने संबंधी)। (9) दृष्टांतावली (सुने हुए दृष्टांतों का संग्रह, जिन्हें श्रद्धाराम अपने भाषणों और शास्त्रार्थों में प्रयुक्त करते थे)। (10) रामलकामधेनु (नित्य प्रार्थना में प्रकाशित विज्ञापन से पता चलता है कि यह ज्योतिष ग्रंथ संस्कृत से हिंदी में अनूदित हुआ था)। (11) आत्मचिकित्सा (पहले संस्कृत में लिखा गया था। बाद में इसका हिंदी अनुवाद कर दिया गया। अंततः इसे फुल्लौरी जी की अंतिम रचना ‘सत्यामृत प्रवाह’ के प्रारंभ में जोड़ दिया गया था)। (12) महाराजा कपूरथला के लिए विरचित एक नीतिग्रंथ (अप्राप्य है)।

  • उर्दू - (1) दुर्जन-मुख-चपेटिका, (2) धर्मकसौटी (दो भाग), (3) धर्मसंवाद (4) उपदेश संग्रह (फुल्लौरी जी के भाषणों आदि के विषय में प्रकाशित समाचारपत्रों की रिपोर्टें), (5) असूल ए मजाहिब (पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के इच्छानुसार फारसी पुस्तक ‘दबिस्तानि मजाहिब’ का अनुवाद)। पहली तीनों रचनाओं में भागवत (सनातन) धर्म का प्रतिपादन एवं भारतीय तथा अभारतीय प्राचीन अर्वाचीन मतों का जोरदार खंडन किया गया।
  • पंजाबी - (1) बारहमासा (संसार से विरक्ति का उपदेश)। (2) सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ (यह ग्रंथ अंग्रेजों के पंजाबी भाषा की एक परीक्षा के पाठ्यक्रम के लिए लिखा गया था। इसमें कुछेक अनैतिहासिक और जन्मसाखियों के विपरीत बातें भी उल्लिखित थीं)। (3) पंजाबी बातचीत, पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों की उपभाषाओं के नमूनों, खेलों और रीति रिवाजों का परिचयात्मक ग्रंथ)। (4) बैंत और विसनपदों में विरचित समग्र ‘रामलीला’ तथा कृष्णलीला (अप्राप्य)।


फुल्लौरी जी की अधिकांश रचनाएँ गद्य में हैं। वे 18वीं शताब्दी उत्तरार्ध के हिंदी और पंजाबी के प्रतिनिधि गद्यकार हैं। उनके हिंदी गद्य में खड़ी बोली का प्राधान्य है। यत्रतत्र उर्दू और पंजाबी का पुठ भी है। पंजाबी गद्य दो शैलियों में उपलब्ध है। ‘सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ’ में सरल, गंभीर तथा अलंकारविहीन भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें दुआबी और मालवी का मिश्रित रूप उपलब्ध होता है। ‘पंजाबी बातचीत’ में मुहावरेदार और व्यंग्यपूर्ण भाषा व्यवहृत हुई है। उसमें पंजाबी की प्रमुख क्षेत्रीय उपभाषाओं का समुच्चय है। उनकी पद्यरचना अधिक नहीं है। प्रारंभ में उन्होंने हिंदी काव्यरचना हेतु ब्रज को अपनाया था, किंतु खड़ी बोली को जनोपयोगी भाषा समझकर वे उस ओर प्रवृत्त हुए। उनके भजनों में खड़ी बोली ही व्यवहृत हुई है। उत्तर भारत के वैष्णव में पूजा के समय उनकी प्रसिद्ध आरती (जय जगदीश हरे। स्वामी जय जगदीश हरे। भगत जनों के संकट छिन में दूर करें....) आज भी गाई जाती है।

ईसाई मत की ओर उन्मुख हो रहे कपूरथला नरेश रणधीर सिंह के संशय निवारण से इनका प्रभाव खूब बढ़ा। समय-समय पर इन्हें पटियाला, कपूरथला, जम्मू तथाश् काँगड़ा प्रदेश के राजाओं से सम्मान और वृत्तियाँ भी प्राप्त हुई। ‘असूल एक मजाहिब’ तथा ‘भाग्यवती’ नामक उनकी रचनायें पुरस्कृत भी हुईं।

वैदिक जगत के सूर्य सर्ववेदभाष्कार आचार्य सायण

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(पत्रकार/लेखक)

वेद पर कई आचार्यों ने भाष्य लिखे हैं, उनमें से आचार्य सायण का स्थान सर्वोपरि माना गया है। उन्हें वैदिक जगत का सूर्य कहा गया। वेद का अर्थ स्पष्ट करते समय जिस तथ्य की विवेचना उन्होने अपने भाष्यों में की है, उसे युक्ति-युक्त प्रमाण समन्वित शास्त्रोक्त शैली में इतने स्पष्ट रूप से विवेचित किया है कि उस विषय में फिर पाठकों के लिये अन्य कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। वेद के अर्थ के निरूपण में उन्होने षड्ग-शिक्षा, कल्पसूत्र, निरूक्त, व्याकरण, छन्द एवं ज्योतिष आदि के साथ संदर्भ स्पष्ट करने के लिये पौराणिक कथाओं का भी आश्रय लिया है। इससे उनका भाष्यकार्य प्रामाणिक एवं सटीक है। व्याकरण द्वारा शब्दों की व्युत्पत्ति एवं सिद्धि करने तथा स्वरांकन करने की उनकी पद्धति बड़े-बड़े व्याकरणाचार्यों को भी आश्चर्य में डालने वाली है। आचार्य सायण ने आधुनिक, पाश्चात्य तथा तदनुगामी भारतीय वेदभाष्यकारों की भांति अपने पूर्ववर्ती भाष्यकारों की उपेक्षा नहीं की। उन्होने स्कन्धस्वामी तथा वेंकटमाधव आदि पूर्ववर्ती भाष्यकारों के भाष्यों का सारांश भी अपने भाष्य में उद्धृत किया है। इससे पता चलता है कि उनका वैदिक ज्ञान कितना परम्परागत है। 

शास्त्रों का कथन है कि यज्ञ के चार मुख्य ऋत्विक् होते हैं। होता, उद्गाता, अध्वर्यु ओर ब्रह्मा। होता का वेद ऋग्वेद, उद्गाता का सामवेद, अध्वर्यु का यजुर्वेद और ब्रह्मा का अथर्ववेद। याज्ञिक विधान वेद की आत्मा है। इसीलिये यज्ञ को वेद का प्रधान विषय माना जाता है। यही कारण है कि याज्ञिक विधान के सम्यक ज्ञान के बिना कोई वेद का भाष्य नहीं कर सकता। आचार्य सायण को याज्ञिक विधान का अच्छा ज्ञान था। उनका भाष्य इतना प्रामाणिक, युक्ति-युक्त तथा शास्त्र के अनुकूल है कि उसमें कहीं भी लेशमात्र संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिये उन्होनें वेद के प्रत्येक सूक्त की व्याख्या करने से पूर्व ही उस सूक्त के ऋषि, देवता, छन्द और विनियोग आदि का ऐसा प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिससे सूक्तगत मन्त्रों की प्रसंगों के अनुकूल व्याख्या करने का मार्ग प्रशस्त होता है। उनके भाष्यों की भाष्य भूमिका तो वैदिकदर्शन से परिचित होने के लिये ऐसा मार्ग है, जिस पर चलकर कई जिज्ञासुओं और देश-विदेश के विद्वानों को वेदविद्या का तथ्यपरक ज्ञान प्राप्त हुआ है।
प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने भी आचार्य सायण को वेदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रशस्त माना है। एच.एच.विल्सन द्वारा उनके भाष्य का अनुसरण करते हुये ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद करना भी यही स्पष्ट करता है कि यदि आचार्य सायण के विविधार्थ-संकलित भाष्यरत्न नहीं होते तो किसी भी भारतीय अथवा पाश्चात्य विद्वान का वेद के अगम्य ज्ञानदुर्ग में प्रवेश करना सम्भव नहीं होता।

आचार्य सायण का परिचय
वैदिक दर्शन के मर्मज्ञ, सर्ववेदभाष्यकार और भारतीय संस्कृति के महान उपासक आचार्य सायण की जन्म तिथि के विषय में निश्चित जानकारी नहीं है। कुछ प्रसिद्ध विद्वानों ने इस पर अनुसंधान किया, उसी के आधार पर कुछ कहा जा सकता है। आचार्य सायण का जन्म तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती हप्पी नामक नगर में संवत 1324 विक्रमी में हुआ था। उनके पिता का नाम मायण और माता का नाम श्रीमती था। उनके 2 भाई थे- माधव और भोगनाथ। उनके बड़े भाई माधवाचार्य विजयनगर हिन्दू साम्राज्य के संस्थापकों में थे। यह हिन्दू साम्राज्य लगभग 300 वर्षों तक मुस्लिम राजाओं से युद्ध करता रहा।

आचार्य सायण अपनी 31 वर्ष की आयु में एक कुशल राज्य प्रबन्धक एवं मन्त्री थे। वि0सं. 1403 (सन 1346) में वे हरिहर के अनुज कम्पण राजा के मन्त्री बने और 9 वर्ष तक उन्होनें बड़ी कुशलता से राज्य संचालन का कार्य किया। कम्पण राजा की मृत्यु होने पर उनका एकमात्र पुत्र संगम (द्वितीय) अबोध बालक था। उसकी शिक्षा दीक्षा का सारा भार प्रधान मन्त्री पद पर रहते हुये आचार्य सायण ने जिस तत्परता, लगन तथा ईमानदारी से वहन किया, उसका ही यह परिणाम हुआ कि संगम नरेश राजनीति में अत्यन्त पटु होकर आदर्श राजा के रूप में प्रसिद्ध हुये। 48 वर्ष की आयु होने पर उन्होने लगभग 16 वर्षा सन 1364-1380 तक विजयनगर के प्रसिद्ध हिन्दू सम्राट बुक्क के यहां मंत्री के उत्तरदायी पद पर रहे। राजा बुक्क की मृत्यु होने पर उनके पुत्र महाराज हरिहर के वे सन 1381 से 1387 तक मंत्री रहे। आचार्य सायण के बड़े भाई माध्वाचार्य असाधारण प्रतिभासम्पन्न महापुरूष थे। इनकी प्रतिभा का आंकलन सर्वदर्शन-संग्रह, पराशरमाधव, पंच्चदशी, अनुभूतिप्रकाश तथा शंकरदिग्विजय आदि ग्रन्थों से पता चलता है। आचार्य सायण के छोटे भाई भी प्रसिद्ध विद्वान थे। इनकी एक सिंगले नामक बहन भी थी, जिसका विवाह रामरस नामक ब्राह्मण से हुआ था। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि उनका परिवार लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों तथा महापुरूषों का था।

आचार्य सायण के विद्या गुरू
ग्रन्थों के अवलोकन से पता चलता है कि आचार्य सायण भारद्वाज गोत्री कृष्णयजुर्वेदी ब्राह्मण थे। उनकी वैदिक शाखा तैत्तिरीय थी और सूत्र बौधायन था। आचार्य सायण के 3 गुरू थे। विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकृष्णाचार्य। ये तीनों अपने समय के बहुत ही प्रख्यात और आध्यात्मिक ज्ञानसम्पन्न महापुरूष थे। ये तीनों प्रख्यात विद्वान न केवल आचार्य सायण तथा उनके दोनों भाइयों के विद्यागुरू थे, वरन तत्कालीन विजयनगर के हिन्दू राजाओं के भी आध्यात्मिक गुरू थे। स्वामी विद्यातीर्थ परमात्मतीर्थ के शिष्य थे। वे आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीपीठ के प्रसिद्ध आचार्य थे। इसके पश्चात श्रृंगेरीपीठ के आचार्य पद पर माध्वाचार्य नियुक्त हुये।

आचार्य सायण का वैदिक ज्ञान और साहित्य
संस्कृत भाषा तथा वैदिक साहित्य के महान विद्वान थे आचार्य सायण। उनके द्वारा किये गये ऋग्वेद के प्रथम एवं द्वितीय अष्टक के भाष्य को देखने पर ज्ञात होता है कि उनका संस्कृत व्याकरण का ज्ञान असाधारण था। मीमांसा शास्त्र की विशेष शिक्षा ग्रहण करने के कारण वे अपने युग के मीमांसा-दर्शन के अद्वितीय विद्वान हुये। उनके भाष्य ग्रन्थों में उनका मीमांसा शास्त्र का उच्च कोटि का ज्ञान परिलक्षित होता है। उन्होने ऋग्वेद, कृष्ण एवं शुक्ल-यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की प्रमुख संहिताओं, ब्राह्मणों तथा आरण्यकों का गुरू-परम्परा से विधिपूर्वक अध्ययन एवं मनन किया था। इसीलिए वे इस समस्त वैदिक साहित्य के पूर्ण अधिकारी विद्वान बनकर इतने उच्च कोटि के भाष्य प्रणयन का कार्य कर सके। जिसके प्रकाश से आज 6 शताब्दियां व्यतीत होने पर भी समस्त वैदिक जगत प्रकाशित है और आगे भी प्रकाशमान रहेगा। वास्तव में उनका जन्म ईश्वरीय विभूति के रूप में वेदभाष्य प्रणयन के लिये हुआ था। इसी हेतु उनका पूरा बाल्यकाल इसी महान लक्ष्यप्राप्ति की तैयारी में ही व्यतीत हो गया था। संस्कृत साहित्य की प्रत्येक विद्या से परिचित होने के कारण एक महान वैदिक विद्वान के रूप में आचार्य सायण का आविर्भाव भारतीय इतिहास की अविस्मरणीय घटना है।

वेदों के गूढ ज्ञान से लेकर पुराणों के व्यापक पाण्डित्य तक, अलंकारों के विवेचन से पाणिनि-व्याकरण के उत्कृष्ट अनुशीलन तक, यज्ञमीमांसा के अन्तःपरिचय से लेकर आयुर्वेद जैसे लोक कल्याणकारी शास्त्र के व्यावहारिक ज्ञान तक सर्वत्र आचार्य सायण का असाणारण पाण्डित्य सामान्य जनता के लिये उपकारक  तथा प्रतिभाशाली विद्वानों के लिये विस्मयपूर्ण आदर का पात्र बना हुआ है। डा0 ऑफ्रैक्ट के अनुसार उन्होने लगभग 30 वर्ष की आयु से लेकर अपने जीवन के अन्तिम समय तक लगातार अटूट परिश्रम एवं अदम्य उत्साह से साहित्य साधना करते हुये छोटे-बड़े 50 ग्रन्थों की रचना की। आचार्य सायण के 7 ग्रन्थ विशेष विख्यात है- सुभाषित-सुधानिधि, प्रायश्चित-सुधानिधि, अलंकार-सुधानिधि, आयुर्वेद-सुधानिधि, पुरूषार्थ-सुधानिधि, यज्ञतन्त्र-सुधानिधि और धातुवृत्ति। इन रचनाओं से ज्ञात होता है कि उन्होने वेदभाष्य के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों की रचना से अपने बहु-आयामी व्यक्तित्व का परिचय दिया है।

आचार्य सायण ने ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद (काण्वशाखा), कृष्णयजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन पांचों संहिताओं तथा ऐतरेय, तैत्तिरीय, ताण्ड्य, षड्विंश सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, उपनिषद, संहितोपनिषद, वंश, शतपथ और गोपथ नामक उक्त पांचों संहिताओं के 12 ब्राह्मणों एवं तैत्तिरीय तथा ऐतरेय नामक कृष्णयजुर्वेद और ऋग्वेद के 2 आरण्यकों पर भाष्य लिखकर उन्होने वैदिक जगत का महान उपकार किया है। उन्होने शुक्लयजुर्वेद और सामवेद के समस्त ब्राह्मणों पर भाष्य रचना की। शुक्लयजुर्वेद के 100 अध्यायों वाले शतपथ ब्राह्मण का उनका भाष्य वैदिक कर्मकाण्ड का विश्वकोष है। सामवेद के 8 उपलब्ध होने वाले ब्राह्मणों पर उनके भाष्य वैदिक दर्शन के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ऋग्वेद की शाकल-संहिता पर उनका जो भाष्य मिलता है, वह भारतीय चिन्तन एवं मनन और ज्ञान का अथाह समुद्र है। उसके समक्ष पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती सभी भाष्य अपूर्ण तथा फीके प्रतीत होते हैं। उसी का आश्रय लेकर उत्तरवर्ती भाष्यकारों ने अपने-अपने भाष्यां के प्रणयन का प्रयास किया है। ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण ओर ऐतरेय आरण्यक पर उनके भाष्य इतने उत्कृष्ट एवं प्रामाणिक हैं कि विद्वान उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता, उसके ब्राह्मण तथा आरण्यक पर उनके भाष्य यज्ञ-सम्बन्धी महान ज्ञान के द्योतक हैं। अथर्ववेद की संहिता और उसके गोपथ ब्राह्मण पर लिखा उनका भाष्य उनकी अद्भुत प्रतिभा का परिचायक है।

आचार्य सायण के इन महान वेद-भाष्य कार्य को देखकर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उन्होने वैदिक साहित्य के बहुत बड़े भाग पर अपने विस्तृत तथा प्रामाणिक भाष्य लिखकर इस क्षेत्र में अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया है। आज तक किसी भारतीय अथवा पाश्चात्य विद्वान ने इतने अधिक वैदिक ग्रन्थों पर ऐसे सारगर्भित एवं प्रामाणिक भाष्य नहीं लिखे। इसीलिए पाश्चात्य विद्वान प्रो0 मैक्समूलर ने कहा था ‘‘आचार्य सायण के भाष्य-ग्रन्थ वैदिक विद्वानों के लिये अन्धे की लकड़ी के समान हैं।’’ भारत के महान मनीषी स्वामी श्रीकरपात्रीजी ने भी कहा था कि वैदिक विद्वानों को सायण की ओर लौटना चाहिए। उनका यह कथन आचार्य सायण का वेदभाष्य कार्य को अतुलनीय एवं अद्वितीय घोषित करता है। आचार्य सायण ही एकमात्र ऐसे वेदभाष्यकार हैं, जिन्हें विद्वान सर्ववेदभाष्यकार कहकर सम्बोधित करते हैं। उनके भाष्य ग्रन्थ सनातन संस्कृति, धर्म, आध्यात्म और शिक्षा के विश्वकोष हैं।

 

प्रकृति ने दिये हैं हमें आठ चिकित्सक 


आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)

मानव शरीर और प्रकृति में बड़ा सामजस्य रहा है। मानव प्रकृति की गोद में जन्म लेता है और पलता है। उसी के फैले हुये प्रांगण में खेलता और चला जाता है। इस शरीर का निर्माण भी पृथ्वी (मिट्टी), जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच प्राकृतिक तत्वों से हुआ है। ये पांच तत्व मानव जीवन के लिये प्रत्येक क्षण कल्याण करने वाले हैं। प्रकृति का यह विचित्र विधान है कि जिन तत्वों से प्राणी के शरीर का निर्माण हुआ, उन्हीं तत्वों से उसकी प्राकृतिक चिकित्साएं भी होती हैं। चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र तथा तन्त्र-मन्त्र के ग्रन्थ प्रत्यक्ष शास्त्रों में आते हैं, क्योंकि चिकित्सा शास्त्रों में दी गयी औषधि का रोग के अनुसार सेवन करते ही रोग का नष्ट होना उसकी प्रत्यक्षता का प्रमाण है। हमारे धर्मशास्त्र विश्वास की धुरी पर टिके हैं और कहते हैं- ‘‘मन्त्रे तीर्थे द्विजे दैवज्ञे भेषजे गुरौ। यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।।’’ अर्थात मन्त्र में, तीर्थ में, ब्राह्मण में, देवता में, दैवज्ञ में, औषधि में तथा गुरू में जो जैसी भावना या निष्ठा रखता है, उसे फल भी उसी अनुसार मिलता है।

प्रकृति ने हमें आठ चिकित्सक दिये हैं, जिनके सहयोग तथा सही सेवन से हम यथासम्भव आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। वे 8 चिकित्सक इस प्रकार हैं- वायु, आहार, जल, उपवास, सूर्य, व्यायाम, विचार और निद्रा। आइए इन्हे समझें। सभी जानते हैं कि मानव जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्वपूर्ण है। वेद कहता है कि वायु अमृत है, वायु ही प्राण रूप में स्थित है। प्रातः काल वायु सेवन करने से देह की धातुएं और उपधातुएं शुद्ध एवं पुष्ट होती हैं। नेत्र और श्रवणेन्द्रिय की शक्ति बढ़ती है। सुबह की शीतल मन्द वायु पुष्पों के सौरभ को लेकर अपने पथ में हर जगह फैलाती है, इस समय में वायु सेवन करने से मन प्रफुल्लित और प्रसन्न रहता है। शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, शुद्ध प्रकाश एवं शुद्ध अन्न यह ‘‘पंच्चामृत’’ कहलाता है। प्रातःकाल का वायु सेवन ‘‘ब्रह्मवेला का अमृतपान’’ कहा गया है।

आहार- शरीर और आहार का बहुत गहरा सम्बन्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को सात्विक भोजन करना चाहिए। क्योंकि सात्विक आहार से शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुंचता है। स्वल्प आहार करना चाहिए। थोड़ा आहार करना स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होता है। आहार उतना ही करें जितना सुगमता से पच सके। शुद्ध एवं सात्विक आहार शरीर का पोषण करनेवाला, तृप्तिकारक, आयुष्य और तेजोवर्धक तथा मानसिक शक्ति और पाचन शक्ति बढ़ाने वाला है। आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक लिखते हैं कि ‘‘देहो हृहारसम्भवः’’ अर्थात शरीर आहार से ही बनता है। उपनिषद में भी आहार के विषय में कहा गया है कि ‘‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्व-शुद्धौ धु्रवा स्मृतिः समृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः’’ (छान्दोग्योपनिषद 7/26/2) अर्थात आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है, सत्वशुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बनती है। फिर पवित्र एवं निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुगमता से प्राप्त होती है। गरिष्ठ भोजन अधिक हानिप्रद होता है।

जल- स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जल का महत्वपूर्ण स्थान है। सोकर उठते ही स्वच्छ जल पीना स्वास्थ्य के लिये हितकर है। सूर्योदय के समय (सूर्योदय से पहले) आठ घूंट जल पीनेवाला मनुष्य रोग से मुक्त होकर सौ वर्ष जीवित रहता है। कुएं का ताजा जल अथवा ताम्र पात्र में रखा हुआ जल पीने के लिये अच्छा होता है। खाने से एक घंटा पूर्व अथवा खाने के दो घंटे बाद जल पीना चाहिये। एक व्यक्ति को एक दिन में कम से कम ढाई सेर जल पीना चाहिए, इससे रक्तसंचार सुचारू रूप से होता है।

उपवास- हमारे धर्मशास्त्रों में उपवास का बहुत महत्व प्रतिपादित किया गया है। उपवास से शरीर, मन और आत्मा सभी की उन्नति होती है। उपवास से शरीर के त्रिदोष नष्ट हो जाते हैं। आंतों को अवशिष्ट भोजन के पचाने में सुविधा मिलती है तथा शरीर स्वस्थ और हल्का सा प्रतीत होता है। कहते हैं कि यदि महीने में दोनों एकादशियों के निराहार व्रत का विधिवत पालन किया जाये तो प्रकृति पूर्ण सात्विक हो जाती है। उपवास करने वाले को चाहिए कि वे अपने मन को चारों ओर से खींचकर आत्मचिन्तन में लगायें, सन्त महात्माओं के पास बैठकर उपदेश ग्रहण करें। इस प्रकार के उपवास से शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्त होता है।
सूर्य- जीवन की रक्षा करनेवाली सभी शक्तियों का मूल स्रोत सूर्य है। जीवन में सूर्य रश्मियों का का महत्व बहुत अधिक है। सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ने से हमारे शरीर के अनेक रोग-कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इस विषय में अथर्ववेद कहता है- ‘‘मा ते प्राण उप द्सन्मो अपानोअपि धायि ते। सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरूदायच्छतु’’ (5/30/15) अर्थात हे जीव! तेरा प्राण विनाश को न प्राप्त हो और तेरा अपान भी कभी न रूके अर्थात तेरे शरीर के श्वास-प्रश्वास की क्रिया कभी बन्द न हो। सबका स्वामी सूर्य, सबका प्रेरक परमात्मा तुझे अपनी व्यापक बलकारिणी किरणों से ऊंचा उठाये रखे। तेरे शरीर को और जीवनी शक्ति को गिरने न दें। चिकित्सकों का मत है कि सूय रश्मि के सेवन से प्रत्येक प्रकार के रोग शान्त किये जा सकते हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि चराचर प्राणी और समस्त पदार्थों की आत्मा तथा प्रकाश होने से परमेश्वर का नाम सूर्य है। अतः इन्हें वेद में जीवनदाता कहा गया है।
व्यायाम- आयुर्वेद का मत है कि व्यायाम करने से शरीर का विकास होता है, शरीर के अंगों की थकावट नष्ट हो जाती है, निद्रा खूब आती है और मन की चंचलता दूर होती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा आलस्य मिट जाता है। शारीरिक सौदर्य की वृद्धि होती है और मुख की कान्ति में निखार आता है। आयुर्वेद के ममर्ज्ञ आचार्य वाग्भट लिखते हैं कि - ‘‘लाघवं कर्मसामर्थ्यं दीप्तोअग्निर्मेदसः क्षयः। विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते।।’’ (अष्टांगहृदय सूत्र-2/10) तात्पर्य यह है कि व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि प्रज्वलित होती है, मोटापा नहीं रहता तथा शरीर के सब अंग पुष्ट होते हैं। साथ ही सही व्यायाम से प्रकृति के विरूद्ध गरिष्ठ भोजन भी शीघ्र पच जाता है तथा शरीर में शिथिलता जल्दी नहीं आ पाती। जीवन में प्रसन्नता, स्वास्थ्य एवं सोन्दर्य के लिये व्यायाम बहुत ही जरूरी है। सदाचार और व्यायाम के बलपर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव हो सकता है।

विचार- विचार शक्ति में एक महान उद्वेश्य छिपा रहता है। इसलिए हमें अपने विचारों को हमेशा शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिए। विचारों को प्रभाव सीधे स्वास्थ्य पर पड़ता है। संकल्पिक दृढ़ता तथा सात्विक चिन्तन मनन रोगों की निर्मूलता के लिये बहुत आवश्यक है। दूषित विचारों से न केवल मन विकृत होता होकर रूग्ण होता है, अपितु शरीर भी रोगी हो जाता है। सम्यक सत् चिन्तन एवं सम्यक सद्विचार एक जीवनी शक्ति हैं।
निद्रा- स्वास्थ्य रक्षा के लिये जिस प्रकार शुद्ध वायु जल, सूर्य और भोजन आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार सही निद्रा भी बहुत आवश्यक है। रात्रि में ठीक समय सोने से धातुएं साम्य अवस्था में रहती हैं और आलस्य दूर होता है। पुष्टि, कान्ति, उत्साह और बल बढ़ता है। स्वास्थ्य के लिये प्रगाढ निद्रा आवश्यक है। रात्रि में सत् विचारों का स्मरण करते हुये सोना चाहिए। दिन में सोने से कई प्रकार की व्याधियां घेर लेती हैं। सही समय सोने से आयुर्बल बढ़ता है, स्वप्नदोष, धातुदौर्बल्य, सिर के रोग, आलस्य, अल्ममूत्र और रक्तविकार आदि से रक्षा होती है। सोने से पूर्वमन को समस्त शोक, चिन्ता और भय से रहित करके सोना चाहिए। एैसा करने पर आप प्रातःकाल अपने आप में बहुत बड़ा परिवर्तन पायेंगे। यही प्रकृति के आठ चिकित्सक हैं।