Thursday, April 30, 2020

हर छात्र अपना जीवन-लक्ष्य निर्धारित करे


आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)

विद्यार्थी जीवन वह स्वर्णिम काल है जब उमंगों, आकांक्षाओं से भरपूर मानवी व्यक्तित्व कुछ न कुछ ग्रहण करने को लालायित रहता है। नई कल्पनाएं अंकुरित होती हैं, नई आशाएं कोंपलों की भांति उग आती हैं। नई उपलब्धियों की कलियां फूल बनकर खिलखिलाती हैं। सीखने, कुछ जानने, कुछ बनने का सतत सार्थक प्रयास इसी समय में होता है। प्रत्येक छात्र को यह अनुभव करना चाहिए कि वह एक ऐसी अवधि से होकर गुजर रहा है, जो उसके भाग्य और भविष्य निर्माण करने की निर्णायक भूमिका अदा करेगी। इन्हीं दिनों श्रेष्ठ विचार, सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों का अभ्यास किया जाता रहे तो उसका प्रभाव जीवन भर बना रहता है और सुख-शांति की संभावनाएं साकार होती हैं। 
इन्ही दिनों मित्रां का आकर्षण अपनी चरम सीमा पर रहता है। अच्छे साथी मिले तो विकास एवं प्रसन्नता की वृद्धि में सहायता ही मिलती है। हर समझदार छात्र का कर्तव्य है कि मित्रता से पूर्व हजार बार सोचे। सच्चरित्र मित्रों, श्रेष्ठ पुस्तकों और सर्वशक्तिमान परमात्मा का ही संग करे। सद्विचारों की नोटबुक बनाएं। जब भी कोई अच्छी बात पढ़े, सुनें तो नोट करें। समय-समय पर दोहराएं। आदर्श व्यक्तियों का, महापुरूषों का ध्यान व उनके चरित्र का चिन्तन मनन करें। 
स्वास्थ्य-संरक्षण के लिये भी यही समय सबसे अधिक उपयुक्त होता है। प्राकृतिक नियमों, आहार-विहार, सोने-जागने आदि का यदि ठीक ध्यान रखा जाये तो तंदुरस्ती ऐसी बन जायेगी जो जीवन भर साथ देगी। अधिकतर अकुशल छा़त्र ही अनुशासनहीन हुआ करते हैं। पढ़ने-लिखने में उनका मन नहीं लगता। अच्छे विद्यार्थी के लक्षणों से रहित होने से गुरूजनों के प्रति श्रद्धा नहीं होती। ऐसे छात्र आगामी जीवन के उत्तरदायित्व से अनभिज्ञ रहते हैं, जीवन का कोई विशेष लक्ष्य नहीं रखते। इसी प्रकार की मानसिक शून्यताओं से जन्मी हीनभावना को दबाने के लिये अकुशल एवं अयोग्य छात्र अनुशासनहीनता को शान समझने लगते हैं। जिन विद्यार्थियों के लक्षण पढ़ने के होते हैं, वे पढ़ाई के सिवाय बेकार की खुराफातों में नहीं पड़ते।
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये प्रत्येक छात्र का अपना एक लक्ष्य, एक उद्वेश्य होना आवश्यक है। सबसे पहले अपने जीवन में लक्ष्य का, उद्वेश्य का निर्धारण करो। जीवन में क्या बनना चाहते हो, क्या करना चाहते हो? फिर इस लक्ष्य को पाने के लिये दृढ़ संकल्प के साथ जुट जाओ। मन में यह पक्का विश्वास लेकर चलो कि सफलता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। निरन्तर लक्ष्य की प्राप्ति की धुन सवार रहे। छात्र जीवन के इस स्वर्णिम दौर को व्यर्थ न जाने दें। अपने लक्ष्य को महान सामाजिक उद्वेश्यों से जोड़ें। बस फिर ये ध्यान रखें कि तमाम व्यवधानों के बावजूद मंजिल पानी है। समय निकल जाने पर पश्चाताप के सिवाय कुछ नहीं बचता है। जब आपकी सारी शक्तियां विचारों की, समय की, शरीर की, साधन की एक ही लक्ष्य की ओर लग जाती हैं, तो फिर सफलता प्राप्ति में संदेह नहीं रहता। अपनी शक्ति को पहचानों। अपने लक्ष्य को चुनौती के रूप में स्वीकारो। 
याद रखिए कि आपका कोई भी लक्ष्य या उद्वेश्य क्यों न हो, आपकी अपनी शक्ति द्वारा ही पूरा हो सकता है। इधर-उधर बगलें झांकने से कुछ नहीं होगा। दूसरों पर भरोसा किया तो निराशा ही हाथ लगेगी। अपने उद्वेश्य को प्राप्त करने के लिये अपने पांवों पर खड़े होइए। अपने उद्वेश्य को प्राप्त करना चाहते हो तो उठो, अपनी शक्तियों को बढ़ाओ, अपने अन्दर लगन, कर्मण्यता और आत्मविश्वास पैदा करो। ऐसे दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ने पर आप पायेंगे कि कदम-कदम पर सफलता परछाईं की तरह आपके साथ है। जब आप अपनी सहायता खुद करेंगे तो ईश्वर भी आपकी सहायता करने के लिये दौड़े चले आयेंगे। 
कमजोर विचारों का परित्याग कर दीजिए। स्मरण रखिए शक्ति का स्रोत साधनों में नहीं, संकल्प में है। सतत परिश्रम और एक लक्ष्य-सिद्धि से ही भाग्य बनता है। कभी भी विकट परिस्थिति से हार न मानों, बल्कि जितनी कठिन परिस्थति हो, उतना ही अधिक धैर्य और उत्साह अन्दर से प्रकट करो। संकल्प की मजबूती, धैर्य और साहस से व्यक्ति जीतता है। संकल्प उस दुर्ग के समान है, जो भयंकर व्यवधान, दुर्बल एवं डावांडोल परिस्थितियों से भी रक्षा करता है और सफलता के द्वार तक पहुंचने में मदद करता है। आपके पास ईश्वर प्रदत्त एक पूंजी है समय। समय संसार की अमूल्यवान सम्पदा है। यह वह मूल्यवान संपत्ति है, जिसकी कीमत पर संसार की कोई भी सफलता प्राप्त की जा सकती है। समय के सच्चे पुजारी एक क्षण भी नष्ट नहीं होने देते। अपने एक-एक क्षण को हीरे-मोतियों से तोलने लायक बनाकर उसका सदुपयोग करते हैं और सफल और श्रेयाधिकारी महामानव बनते हैं। 
समय की कमी का रोना कभी मत रोइए। संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसे ईश्वर ने 24 घंटे में एक पल भी कम समय दिया हो। जिसे आप समय की कमी कहते हो, वह समय की कमी नहीं, समय की अव्यवस्था है। इसी कारण समय अनुपयोगी कार्यों में लग जाता है। फिर वह समय उपयोगी कार्यों के लिये रह ही नहीं जाता। जो समय का सदुपयोग नहीं कर पाते, वे जीवन जीते नहीं, काटते हैं। नष्ट करते हैं। कोई कितने वर्ष जिया यह जीवन नहीं, किसने कितने समय का सदुपयोग कर लिया, वहीं जीवन की लम्बाई है। हर छात्र के जीवन में एक परिवर्तनकारी समय आया करता है, किन्तु आप उसके आगमन से अनभिज्ञ रहा करते हैं। इसीलिए हर बुद्धिमान छात्र हर क्षण को बहुमूल्य समझकर व्यर्थ नहीं जाने देता। 
आलसी अथवा दीर्घसूत्री छात्र बहुधा किसी उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करते-करते ही सारी जिन्दगी खो देते हैं और उन्हें कभी भी उपयुक्त अवसर नहीं मिल पाता। आपको समय के छोटे से छोटे क्षण का मूल्य एवं महत्व समझना चाहिए। जीवन में सफलता के लिये जहां परिश्रम एवं पुरूषार्थ की अनिवार्य आवश्यकता है, वहां समय का सामजंस्य उससे भी अधिक आवश्यक है। श्रम तभी संपत्ति बनता है, जब वह समय में संयोजित कर दिया जाता है और समय तब ही सम्पदा के रूप में संपन्नता एवं सफलता ला सकता है, जब उसका श्रेय के साथ सदुपयोग किया जाता है। दुर्भाग्य का पश्चाताप उन्हें सहन करना पड़ता है जो लम्बी योजना बनाकर उस पर निश्चयपूर्वक चलते रहना तो दूर अपनी दिनचर्या बनाने की आवश्यकता नहीं समझते और बहुमूल्य समय को ऐसे ही आलस्य-प्रमाद की अस्त-व्यस्तता में गंवाते रहते हैं। 
जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है। हमारा विकास और भविष्य हमारे विचारों पर निर्भर है। जैसा बीज होगा, वैसा ही पौधा उगेगा। जैसे विचार होंगे, वैसे कर्म बनेंगे और जैसे कर्म करेगें, वैसी परिस्थितियां बन जायेंगीं। इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का दास नहीं, वह उनका निर्माता, नियंत्रणकर्ता और स्वामी है। आपके विचार आपके जीवन पर तो महान प्रभाव छोड़ते ही हैं, परन्तु दूसरों पर, आपसे सम्पर्क में आने वालों पर तथा आस-पास के वातावरण में भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं। आपके विचार आपके व्यक्तित्व से, आपके हावभाव, व्यवहार से, आपके मुख की आभा और कान्ति से झलकते रहते हैं। यदि आप कोई अच्छा काम नहीं कर सकते, तो कम से कम गन्दे विचारों की दूषित बेल तो न बोइए। 
प्रयत्न कीजिए कि आपके मन में दूसरों के प्रति दया, उदारता, सहायता, सेवा और स्नेहपूर्ण विचारों का ही उद्गम और पोषण हो। किसी के मन को दुर्बल मत बनाइए। किसी के मन को निष्क्रिय मत बनाइए। किसी को दीन-हीन मत बनाइए, न उनके प्रति ऐसे विचार अपने मन में आने दीजिए। आपको चाहिए कि आप एैसे व्यक्ति बनें, जो सफलता के प्रतिबिम्ब हैं, जो दूसरों के सहायक हैं, जो दूसरों को ऊंचा उठाने का यत्न करते हैं, जो दूसरों की सहायता करते हैं, जो दूसरों को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। आप प्रयत्न कीजिए कि आपसे आशा की किरणें फूटें, उदारता की सुगन्ध फैले, अनुत्साही जनों में उत्साह का संचार हो। आप सदा ही स्नेह व प्रेम का मन्द समीर फैलाएं जिससे लोगों के जीवन में बहार जा जाए।
विचारों के निर्माण में अच्छी पुस्तकों का विशेष महत्व होता है। हम जैसी पुस्तके पढ़ेंगे वैसे ही हमारे विचार बनेंगे। आज की परिस्थितियों में जैसे भी सम्भव हो सके हमें ऐसी पुस्तकें तलाश करना चाहिए जो प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता से संपन्न हो। उसे पढ़ने के लिये कम से कम एक घंटा निश्चित रूप से निकालिए। पढ़ने के बाद उन विचारों पर बराबर मनन करें। जब भी मस्तिष्क खाली रहे, यह सोचना आरम्भ कर देना चाहिए कि आज के स्वाध्याय में जो पढ़ा गया था, उस आदर्श तक पहुंचने के लिए हम क्या प्रयत्न करें। केवल पढ़ने का कार्य कर लेना ही स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्याय वही कहा जायेगा जो हमारी जीवन की समस्याओं पर, आन्तरिक उलझनों पर प्रकाश डालता है और मानवता को उज्जवल करने वाली सद्प्रवृत्तियों को अपनाने की प्रेरणा देता है। अच्छी पुस्तकें सहज ही हमारी सच्ची मित्र बन जाती हैं। वे हमें सही रास्ता दिखाती हैं, जीवन पथ पर आगे बढ़ने में हमारा साथ देती हैं। याद रखों छात्रों पुस्तकें जाग्रत देवता हैं। ये अच्छी पुस्तके अन्धकार और उलझनों से भरे प्रत्येक चौराहे पर आपका मार्गदर्शन करेगीं, निराशा में आशा का संचार करेंगी।

समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा 

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
मो0- 08115383332

हमारे पास ईश्वर द्वारा दी गयी एक अद्भुत पूंजी है और वह है समय। खोई हुई दौलत फिर कमाई जा सकती है। भूली हुयी विद्या फिर याद की जा सकती है। खोया स्वास्थ्य चिकित्सा के द्वारा लौटाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय किसी भी प्रकार से लौटाया नहीं जा सकता। उसके लिये मात्र पश्चाताप ही शेष रह जाता है। यदि हम जीवन में समय-संयम, विचार-संयम, इन्द्रिय-संयम तथा अर्थ-संयम का अभ्यास करते रहें तो सफलता सहज ही हमारे कदम चूमेगी। समय संसार की सबसे मूल्यवान सम्पदा है। कहा जाता है कि परिश्रम से ही सफलता मिलती है, किन्तु परिश्रम का अर्थ भी समय का सदुपयोग ही है। समय पालन ईश्वरीय नियमों में सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रमुख नियम है। समय के सच्चे पुजारी एक क्षण भी नष्ट नहीं होने देते, अपने एक-एक क्षण को हीरे-मोतियों से तोलने लायक बनाकर उसका सदुपयोग करते हैं और सफल महामानव बनते हैं। समय की कमी का रोना कभी मत रोओ। संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसे विधाता ने 24 घंटे में एक पल भी कम समय दिया हो। जिसे आप समय की कमी कहते हो, वह समय की कमी नहीं, समय की अव्यवस्था है। इसी कारण समय अनुपयोगी कार्यों में लग जाता है और उपयोगी कार्यों के लिये समय रह ही नहीं जाता। 
जो समय का सदुपयोग नहीं कर पाते, वे जीवन जीते नहीं, काटते हैं। नष्ट करते हैं। कोई कितने वर्ष जिया यह जीवन नहीं, किसने कितने समय का सदुपयोग कर लिया, वही जीवन की लम्बाई है। सबके जीवन में एक परिवर्तनकारी समय आता है, किन्तु हम उसके आगमन से अनभिज्ञ रहा करते हैं। इसीलिए हर बुद्धिमान मनुष्य हर क्षण को बहुमूल्य समझकर व्यर्थ नहीं जाने देते। आलसी अथवा दीर्घसूत्री व्यक्ति बहुधा किसी उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करते-करते ही सारी जिन्दगी खो देते हैं और उन्हें कभी भी उपयुक्त अवसर नहीं मिल पाता। प्रत्येक मनुष्य को समय के छोटे से छोटे क्षण का मूल्य एवं महत्व समझना चाहिए। जीवन में कुछ कर गुजरने वाले व्यक्तियों को अपना काम कल पर भूलकर भी नहीं टालना चाहिए। जो आज किया जाना है, उसे आज ही करें।
जीवन में सफलता के लिये जहां परिश्रम एवं पुरूषार्थ की अनिवार्य आवश्यकता है, वहां समय का सामंजस्य उससे भी अधिक आवश्यक है। श्रम तभी सम्पत्ति बनता है, जब वह समय में संयोजित कर दिया जाता है और समय तब ही सम्पदा के रूप में सम्पन्नता एवं सफलता ला सकता है, जब उसका श्रम के साथ सदुपयोग किया जाता है। समय के प्रतिफल का सच्चा लाभ उन्हें मिलता है, जो अपनी दिनचर्या बना लेते हैं और नियमित रूप से निरन्तर उसी क्रम पर आरूढ़ रहने का संकल्प लेकर चलते हैं। नियम समय पर काम करने से अन्तर्मन को उस समय वही काम करने की आदत भी पड़ जाती है। जो जीवन से अधिक प्यार करते हों, वे व्यर्थ में एक क्षण भी न गवाएं।
उन्ही लोगों का मार्ग अवरूद्ध रहता है जो अपने ऊपर भरोसा नहीं करते। कितने ही व्यक्ति आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित होकर अच्छे-खासे साधन होते हुये भी अपने आपको गया गुजरा मानते हैं। कितने व्यक्ति हैं जो समय का मूल्य समझते है और उसका सदुपयोग करते हैं? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुये जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बरबाद करते रहते हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु बीत जाती है और अन्तिम समय वे देखते हैं कि उन्होने कुछ भी प्राप्त नहीं किया। हर बुद्धिमान व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा परिचय यही दिया है कि उसने जीवन के क्षणों को व्यर्थ बरबाद नहीं होने दिया। अपनी समझ के अनुसार जो अच्छे से अच्छा उपयोग हो सकता था, उसी में उसने समय को लगाया। उसका यही कार्यक्रम अन्ततः उसे इस स्थिति तक पहुंचा सका, जिस पर उसकी आत्मा सन्तोष कर अनुभव कर पाये।
साधारण मनुष्य जिस समय को बेकार की बातों में खर्च करते रहते हैं, उसे विवेकशील लोग किसी उपयोगी कार्य में लगाते हैं। यही कारण है कि जो सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों को भी सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचा देती है। जिसने इस तथ्य को समझा और कार्य रूप में उतारा, उसने ही यहां आकर कुछ प्राप्त किया है। अन्यथा तुच्छ कार्यों में आलस्य और उपेक्षा के साथ दिन काटने वाले लोग किसी प्रकार सांसे तो पूरी कर लेते हैं, पर उस लाभ से वंचित ही रह जाते हैं, जो मानव जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु प्राप्त होने पर उपलब्ध होनी चाहिए या हो सकती थी। समय अपनी गति से भाग रहा है। निरन्तर इस गतिमान इस समय के साथ कदम मिलाकर चलने पर ही मानव जीवन की सार्थकता है। इसके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है। पिछड़ना आपको सफलता से दूर हटा देता है। समय अमूल्य है। समय को जिसने बिना सोचे समझे खर्च कर दिया वह जीवन पूंजी भी यों ही गवां देता है। समय को व्यर्थ गवांकर आप एक प्रकार से अपनी आत्महत्या कर रहे हैं। इस धरोहर अधिकांश मनुष्य समुचित सदुपयोग नहीं करते। 
प्रकृति ने किसी को अमीर-गरीब नहीं बनाया, उसने तो सबको मुक्त हस्त से अपना अमूल्य वैभव लुटाया है। श्रम की सामर्थ्य तथा समय का अनुदान इन दो अस्त्रों से सुसज्जित करके उसने अपने सभी पुत्रों को जीवन के समरांगण में मस्तक पर तिलक कर विजयश्री वरण करने के लिये भेजा है। यह समय की सम्पदा धन से महत्वपूर्ण है। हमारा कीमती वर्तमान धीरे-धीरे भूतकाल बनता चला जा रहा है और हम देख समझ नहीं पाते। समय के साथ उपेक्षा करने वाले अपने साथ एक क्रूर मजाक करते हैं। हम धीरे-धीरे मर रहे हैं। जीवन की सम्पदा का एक-एक दाना एक-एक क्षण के साथ समाप्त होता चला जा रहा है। बूंद-बूद पानी टपकते रहने से फूटा हुआ घड़ा भी कुछ ही समय में खाली हो जाता है। जीवन की रत्न सम्पदा हर सांस के साथ घटती चली जाती है। महाकाल की उपासना का जो स्वरूप समझ सका है उसी को मृत्युंजयी बनने का सौभाग्य मिला है। किसी के भी साथ मजाक किया जा सकता है, पर महाकाल के साथ नहीं। 
समय के दुरूपयोग की भूल अपने भाग्य और भविष्य को ठुकराने-लतियाने की तरह है। जो समय व्यर्थ में ही खो दिया गया, उसमें यदि कमाया जाता तो अर्थ प्राप्ति होती। स्वाध्याय या सत्संग में लगाते तो विचार और सन्मार्ग को प्रेरणा मिलती। जगत का कालचक्र भी कहीं अनियमित नहीं। लोग और दिक्पाल, पृथ्वी और सूर्य, चन्द्र और अन्य ग्रह वक्त की गति से गतिमान हैं। प्रातःकाल की मुक्त वायु शरीर को शक्ति और पोषण प्रदान करती है। दिनभर देह स्फूर्ति और ताजगी से भरी रहती है। इस अवसर को गंवाना रोग और दुर्बलता को निमंत्रण देने से सकम नहीं है। फिर भी जो बिस्तरों में पड़े सोते रहते है, वे प्रातःकालीन ऊषीय रश्मियों, निर्दोष वायु से वंचित रह जाते हैं और उनका शरीर सुस्त और निस्तेज हो जाता है। 
आलस्य में समय गंवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वार उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर होता है। जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझती है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रूचि नहीं होती, खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराईयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में अव्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकांश बुराइयां और कलह बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गंवाते रहते हैं। इसलिये यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयां ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है। 
जगत में जितने भी महापुरूष हुए हैं उनकी महानता का एक ही आधार स्तम्भ है कि उन्होने अपने समय का पूरा-पूरा उपयोग किया। जिस समय लोग मनोरंजन, खेल-तमाशे में व्यस्त रहे हैं, व्यर्थ आलस्य प्रमाद में पड़े रहते हैं, उस समय महान व्यक्ति महत्वपूर्ण कार्यों का सृजन करते रहते हैं। समय बहुत बड़ा धन है। जवानी का समय तो विश्राम के नाम पर नष्ट करना ही घोर मूर्खता है क्योंकि यही वह समय है जिसमें मुनष्य अपने जीवन का, अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जिस प्रकार लोहा ठंण्डा पड़ जाने पर घन पटकने से कोई लाभ नहीं, उसी प्रकार अवसर निकल जाने पर मनुष्य प्रयत्न भी व्यर्थ चला जाता है। विश्राम करें, अवश्य करें। अधिक कार्यक्षमता प्राप्त करने के लिये विश्राम आवश्यक है, लेकिन उसका भी समय निश्चित करें। 
इस प्रकृति का प्रत्येक क्षण एक उज्जवल भविष्य की सम्भावना लेकर आता है। हर घड़ी एक महान मोड़ का समय हो सकती है। क्या पता जिस क्षण को हम व्यर्थ समझकर बरबाद कर रहे हैं, वह ही हमारे लिये अपनी झोली में कोई सुन्दर सौभाग्य की सफलता लाया हो। घनघोर घटाएं छाई रहने पर भी पक्षी प्रातःकाल होते ही चहचहाने लगते हैं और सूर्य अस्त होने का समय आते ही अपने घोंसले में सोने के लिये चले जाते हैं। जंगलों में सियारों के चिल्लाने का एक नियत समय निर्धारित है। वे हर रात को उसी समय बोलते हैं। चिड़ियां दाना चुगने उड़ जाती हैं पर साथ ही उन्हें यह भी याद रहता है कि घोंसले के बच्चों को किस समय भोजन देना है। वे चोंच में मुलायम बीज या कीड़े लेकर ठीक उसी समय आहार की प्रतीक्षा करते हैं। समय से कुछ मिनट पहले तक वे घोंसले में ऐसे ही पड़े सुस्ताते रहते हैं। निर्धारित समय में हेर-फेर करते रहने वाले बहुधा लज्जा एवं आत्मग्लानि के भागी बनते हैं। 

Saturday, April 25, 2020

परशुराम जयन्ती पर विशेष (25 अप्रैल)



आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)

महापराक्रमी परशुराम की गणना सप्त चिरंजीवियों में की जाती है। भगवान विष्णु के मुख्य 10 अवतरों की चर्चा अधिक होती है। वैसे तो भगवान विष्णु के 24 अवतार प्रसिद्ध है। उन्ही 10 अवतारों में परशुराम अवतार सातवां अवतार है। एक समय सारी पृथ्वी पर क्षत्रियों का अनाचार बढ़ गया था। वे प्रजा को कई प्रकार से कष्ट पहुंचाने लगे थे। इससे दुखित होकर ब्राह्मणों ने भगवान विष्णु की कई प्रकार से स्तुति और तप किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने अन्याय और अत्याचार को मिटाने के लिये और धर्म की पुनः स्थापना के लिये वैशाख शुक्ल तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में माता रेणुका के गर्भ से अवतरित हुये। भविष्यपुराण के अनुसार- ‘स्वोच्चगैः षडग्रहैर्युक्त मिथुने राहुसंस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णों विभुः स्वयम्।।’ अर्थात जिस समय इनका जन्म हुआ उस समय सूर्य, चन्द्र, मंगल, गुरू, शुक्र एवं शनि ये 6 ग्रह उच्च राशि के थे।
परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका थीं। पुत्र इच्छा से इनकी माता और विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था। जो दैववश आपस में बदल गया। उनमें से एक प्रसाद में उत्तम ब्राह्मण उत्पन्न करने का गुण था, विश्वामित्र जी का जन्म हुआ और उसके प्रभाव से विश्वामित्र क्षत्रि कुल में जन्म लेने पर भी ब्रह्मर्षि हुये। दूसरे प्रसाद में उत्तम क्षत्रिय उत्पन्न करने का गुण था, जिससे परशुराम जी का जन्म हुआ उसके प्रभाव से ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी परशुरामजी में क्षत्रियोचित गुण विद्यमान थे। शास्त्रों का अध्ययन करने के साथ ही वे शस्त्रास्त्र चलाने का भी अभ्यास किया करते थे। शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप किया। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दो वरदान दिये। प्रथम इच्छामृत्यु का और दूसरा एक शस्त्र (परशु) जिसके हाथ में रहने तक उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। यह परशु धारण करने के पश्चात ही उनका नाम राम से परशुराम हुआ। पितृभक्ति का परिचय देते हुये, इन्होने एक बार माता का सिर भी अपने परशु से काट दिया था, जिन्हें बाद में इनके पिता ने इनकी पितृभक्ति से प्रसन्न होकर पुनः जीवित कर दिया था।
कथा है कि एक बार इनके पिता महर्षि जमदग्नि तपस्या में लीन थे। तभी सहस्त्रार्जुन ने उनका सिर काट दिया था। जब परशुरामजी को इस घटना का ज्ञान हुआ तो क्रोधित होकर उन्होने भगवान शिव के दिये अमोघ परशु से सहस्त्रार्जुन का वध कर दिया। इसके बाद जब भी राजाओं ने एकत्र होकर उन पर आक्रमण किया, तब उन्होन उनका नाश कर दिया। इस तरह 21 बार उन्होने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन किया था। स्कन्दपुराण और भविष्यपुराण के अनुसार इनकी एक जन्मपत्रिका भी प्राप्त होती है। इसके आधार पर इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन किया जा रहा है।
ज्योतिष की दृष्टि से परशुरामजी का जीवनकाल
परशुरामजी का जन्म तुला लग्न में हुआ था एवं इनकी जन्म राशि वृष है। हालांकि इनकी जन्म राशि के सम्बन्ध में कतिपय मतभेद भी है। लेकिन पर्याप्त शोधकार्य के बाद इनकी जन्मराशि वृष ही सिद्ध हुई है। इनके जन्म के समय 6 ग्रह उच्च राशि में थे (राहु-केतु की गणना नहीं की है) इसके आधार पर परशुरामजी की कुंडली में कुछ योग बन रहे हैं।
आजीवन ब्रह्मचारी रहने का योग- लग्न से सप्तम भाव में सूर्य स्थित है एवं विवाह स्थान पर शनि एवं मंगल दो पाप ग्रहों की दृष्टि है। इसके अलावा मंगल चतुर्थ भाव में स्थित होकर प्रबल मांगलिक योग बना रहा है। द्वादशेश बुध (पृथककारी) भी विवाह स्थान में स्थित है। इन योगों के कारण ही परशुरामजी ने विवाह नहीं किया था।
अजेय एवं पराक्रमी होने का योग- लग्न में उच्च राशि का शनि है। लग्नेश भी उच्च राशि का है और केन्द्र स्थानों में मंगल और सूर्य उच्च राशि में स्थित है। तृतीय स्थान में केतु पराक्रम को बढ़ा रहा है एवं तृतीयेश गुरू भी उच्च राशि स्थित है। सूर्य लग्न से तृतीय स्थान में राहु उच्चस्थ है। चन्द्र लग्न से तृतीय स्थान में गुरू उच्च राशि में है एवं लग्न से तृतीय स्थान में केतु स्थित है। ये योग उन्हें महान पराक्रमी बनाते हैं।
मातृहंता योग- लग्न से मातृ भाव में पाप ग्रह मंगल स्थित है। चन्द्र लग्न से मातृ स्थान पर द्वादशेश (चन्द्र लग्न में) मंगल की दृष्टि है। सूर्य लग्न से मातृ स्थान पर मंगल की नीच दृष्टि है। इन तीनों स्थितियों में मंगल का विशेष प्रभाव है। एवं मंगल शस्त्राघात का कारक भी है। इसी कारण परशुरामजी ने अपने परशु से माता का सिर काट दिया था। लेकिन साथ ही मातृ स्थान पर शुभ ग्रह गुरू की अमृतमयी दृष्टि भी है। इसलिये उनकी माता पुनर्जीवित हो गयीं थी।
पंचमहापुरूष योग- परशुरामजी की जन्मपत्रिका में मंगल से रूचक, शनि से शश एवं गुरू से हंस नाम पंचमहापुरूष योग बन रहे हैं। इन योगों के कारण ही उनका व्यक्तित्व और उनके कार्य इतने विशिष्ट है। मंगल जहां उन्हें अतुलनीय बल और साहस दे रहा है, वहीं शनि अनुकरणीय व्यक्तित्व दे रहा है और गुरू हंस योग बनाकर आध्यात्मिक उन्नति दे रहा है।
बुधादित्य योग- बुध सूर्य के साथ सप्तम भाव में स्थित होकर बुधादित्य योग बना रहा है। ऐसा व्यक्ति बहुत बुद्धिमान एवं सर्वत्र सम्मानित होता है।
अमल कीर्तियोग- लग्न से दशम भाव में कोई शुभ ग्रह स्थित हो, तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग में उत्पन्न जातक राज्यपूज्य, दानी, बंधुजन प्रिय, परोपकारी तथा गुणवान होता है। परशुरामजी की जन्मपत्रिका में गुरू दशम में उच्च राशि में स्थित होकर इस योग का निर्माण कर रहा है।
वेशि योग- सूर्य से द्वादश भाव में चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रह स्थित हो, तो यह योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक कुशल, दानशील, जितेन्द्रीय, बलवान एवं कीर्तिमान होता है। परशुरामजी की जन्मपत्रिका में भी इस योग का निर्माण हो रहा है। भगवान राम, भरतजी, लक्ष्मणजी, राजा हरिश्चन्द्र आदि की जन्म कुंडलियां ही परशुरामजी की कुंण्डली से तुलना कर सकती हैं।

Thursday, April 23, 2020

लुप्त होता गर्भाधान संस्कार



 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)


सामान्य अर्थ में संस्कार का अर्थ होता है निखारना या जिस क्रिया के द्वारा किसी भी वस्तु में निखार आये, उसे उस वस्तु का संस्कार कहा जाता है। जैसे कोई सुनार गन्दे आभूषण को चमकदार बना देता है तो उसे आभूषण का निखारना या संस्कार कहा जायेगा। पदार्थ के दोष, मैल तथा अशुद्धि को दूर कर उसमें गुणों का आधान करना ही संस्कार है। हमारे ग्रन्थों में 16 या 48 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। संस्कार निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। मानव को अपने आचरण की शुद्धता के लिये और इसी शरीर में देवत्व की प्रतिष्ठा के लिये सतत सावधान रहकर संस्कारवान बनने की जरूरत है। जिस तरह बहुत सुन्दर चित्र बनाने के लिये उसके खाके को सजाने-संवारने तथा सभी तरह से उन्नत बनाने के लिये उसमें रंग भरे जाते हैं, उसी तरह समग्र विकास के लिये, चरित्रनिर्माण के लिये विधिपूर्वक किये गये संस्कारों का होना जरूरी है।
तथ्य यह भी है कि संस्कारों द्वारा हमारा पुनर्जन्म होता है। जिस प्रकार धातुपात्रों में मलापनयन एवं गुणानुसंधान के लिये घर्षण, मार्जन आदि संस्कारों से उन्हें चमकीला एवं सुन्दर बनाया जाता है, सोने को तपाने, छीलने आदि प्रक्रिया से कुन्दन बनाया जाता है, उसी प्रकार गर्भ के मल-मूत्र आदि से संनद्ध इस शारीरिक पिण्ड को अग्न्यादि संस्कारयुक्त जातकर्म-नामकर्म, पंच्चगव्यप्रोक्षण, अवघ्राण एवं प्राशनादि संस्कारों से संस्कृत किया जाता है। गर्भादान आदि संस्कारों का तात्पर्य भी मुख्यतः मलापनयन एवं अतिशयाधानादि द्वारा आत्म शुद्धि विधान से ही है।
आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक एवं मेडिकल साइंस वाले भी अब भारतीय आर्य हिन्दू सनातन संस्कार विधि को मानने लगे हैं। हमारे यहां कर्णवेध आदि संस्कारों का मुख्य आधार लेकर एवं उसी विज्ञान की दिशा में प्रेरित होकर एक्यूप्रेशर एवं एक्यूपंक्चर चिकित्सा पद्धति विकसित की गयी है। पूर्व काल में जो लोग बालक का चूडाकरण संस्कार करते थे जिसमें बालक की चोटी ‘‘शिखा’’ रखी जाती थी। शिखा के कारण सिर एवं ब्रह्मरन्ध्र की रक्षा होती थी और शिरःशूल तथा शिरोरोग नहीं होते थे। आजकल ब्रेनहेमरेज आदि भयंकर रोग हो रहे हैं।
आज पाश्चात्य शैली के अनुकरण से हमारी संस्कृति में भारी बदलाव एवं गिरावट आई है। जिसके फलस्वरूप संस्कारों के अनुष्ठान की प्रक्रिया लुप्त सी हो रही है। 16 संस्कारों में गर्भादान संस्कार का विशेष महत्व है। जो आज के समय में पूर्णतः लुप्त सा ही है। भारतीय पंचाग में छपे गर्भाधान के मुहूर्त को देखकर विदेशी तो हंसते ही हैं, तथाकथित शिक्षित भारतीय भी इसके तात्विक रहस्य को न समझकर इसे मूर्खता बताते हैं। हमारी सनातन संस्कृति में सन्तानोत्पादन को एक पवित्र यज्ञ माना गया है। इस यज्ञ के द्वारा संतति के सभी प्रकार के विकास को संस्कारित किया जाता है। उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये गर्भाधान आदि विशेष प्रक्रिया शास्त्रों में वर्णित है। गर्भाधान भोग की स्थिति नहीं है, यह योग की स्थिति है।
भारतीय वांग्मय में पुत्रोत्पपादन के लिये एक मास के अनुष्ठानात्मक कर्मकाण्ड की चर्चा मिलती है, जिसमें पति-पत्नि यह निर्णय करते हैं कि मुझे कैसी सन्तान चाहिये। उसी के अनुसार दैवज्ञ से मुहूर्त का निर्णय कराते हैं तथा देवता और विधान का चुनाव करके एक पक्ष संयम पूर्वक रहकर देवपूजन, भजन, मनन, चिन्तन के साथ-साथ देवता से सद्गुणसम्पन्न सन्तान के लिये प्रार्थना करते हैं। दूसरे पक्ष में मौन, व्रत, जप, यज्ञ तथा हवन के साथ-साथ पवित्र हविष्यान्न ग्रहण करके दम्पत्ति अपने भीतर ओज का आधान करते हैं। पुनश्च रात्रि विशेष में विशेष नियम द्वारा गर्भाधान सम्पन्न करते हैं। यह आध्यात्मिक उपचार ही संस्कार है। इन क्रियाओं के द्वारा मानव की आत्मा देवस्तर की हो जाती है, किन्तु आज हमारे असंयम तथा भोगवृत्ति ने इस संस्कार को खत्म ही कर दिया है।
हमारे यहां विवाह एक संस्कार है। मोक्षप्राप्ति का एक सोपान है। इससे विलास वासना का सूत्रपात नहीं होता, बल्कि संयमपूर्ण जीवन का प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह में अन्य विषयों के विचार के साथ साथ काल का भी विचार किया गया है। इसमें सर्वप्रधान है कि कन्या का विवाह रजोदर्शन से पूर्व हो जाना चाहिये। रजोदर्शन सब देशों में एक उम्र में नहीं होता। अतएव उम्र का निर्णय अपने देश काल की स्थिति के अनुसार करना चाहिए। रजोदर्शन प्रकृति का एक महान संकेत है। इसके द्वारा स्त्री गर्भ धारण करने योग्य हो जाती है और इसी कारण ऋतुकाल मे स्त्रियों की काम वासना बलवती हुआ करती है। इसी स्वाभाविक वासना को केन्द्रीभूत करने के लिये रजस्वला होने से पूर्व विवाह का विधान किया गया है। देर से विवाह होने पर यही कामवासना गलत रूप भी ले सकती है। जेसा कि आजकल यूरोप मे हो रहा है। वहां कुमारी माताओं की संख्या बढती ही जा रही है। ऋतुमती स्त्री के चित्त की स्थिति ठीक फोटो के कैमरे जैसी होती है। ऋतु स्नान करके वह जिस पुरूष को मन से देखती है, उसकी मूर्ति चित्त पर आ जाती है। इसीलिये ऋतु काल से पहले ही विवाह हो जाना बहुत आवश्यक है।
जैसा कि उपर बताया जा चुका है कि गर्भाधन संस्कार सबसे आवश्यक संस्कार है। लेकिन आजकल यह लोप हो गया है। स्त्री पुरूष के शरीर और मन की स्वस्थता, पवित्रता, आनन्द तथा शास्त्रानुकूल तिथि, वार, समय आदि के संयोग से ही श्रेष्ठ संतान उत्पन्न होती है। जिस प्रकार फोटो में बिलकुल वैसा ही चित्र आता है, जैसा फोटो लेते समय होता है। उसी प्रकार गर्भाधान के समय दम्पत्ति का जैसा तनम न होता है, वैसे ही तन मन वाली संतान होती है। गर्भाधान का उद्वेश्य, गर्भ ग्रहण की योग्यता, तदुपयोगी मन और स्वास्थ्य एवं तदुपयोगी काल इन सब बातों को सोच समझकर विवाहित पति-पत्नी के संसर्ग करने से उत्तम संतान होती है। मनमाने रूप में अथवा स्त्री के ऋतुमती  होती ही शास्त्र की दुहाई देकर पशुवत आचरण करने से तो हानि ही होती है।
शास्त्रों में गर्भाधान काल के सम्बन्ध में कुछ तथ्य स्पष्ट किये गये हैं। आइये उन्हे समझें- लग्न, सूर्य और चन्द्र के पापयुक्त और पापमध्यगत न होने पर, सप्तम स्थान में पापग्रह न रहने पर तथा राशि, लग्न और लग्न के चतुर्थ, पंच्चम, सप्तम, नवम और दशम स्थान शुभग्रहयुक्त होने पर एवं तृतीय, षष्ठ और एकादश स्थान पापयुक्त होने पर गण्ड समय का त्याग करके युग्म रात्रि में पुरूष के चन्द्रादि शुद्ध होने पर उसे गर्भाधान करना चाहिए।
ऋतु के पहले दिन से सोलहवें दिन तक ऋतुकाल माना गया है। इसमें पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि को छोड़कर युग्म रात्रियों में से किसी रात्रि को गर्भाधान करना चाहिए। ज्येष्ठा, मूल, मघा, अष्लेषा, रेवती, कृत्तिका, अश्विनी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभद्रपद नक्षत्र तथा पर्व, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टमी, एकादशी, व्यतिपात, संक्रान्ति, इष्टजयन्ती आदि पर्वों का त्याग करके गर्भाधान करना चाहिए।
महारान मुन के अनुसार 16 रात्रियां ऋतुकाल की हैं। इनमें राक्तस्त्राव की पहली चार रात्रियां अत्यन्त निन्दित हैं। ये 4 तथा 11वीं और 13वीं रात्रि, इस प्रकार 6 रात्रि और अनिन्दित 10 रात्रियों में से कोई सी भी 8 रात्रि। इस प्रकार 14 रात्रियों को छोड़कर शेष पर्ववर्जित दो रात्रियों में स्त्री संसर्ग करने वाले के ब्रह्मचर्य की हानि नहीं होती। इसमें रजोदर्शन के निकट की रात्रियों से उत्तर-उत्तर की रात्रियां अधिक प्रशस्त हैं। सत्रहवीं रात्रि से पुनः रजोदर्शन की चौथी रात्रि तक सर्वथा संयम से रहना चाहिए। भोग की संख्या जितनी कम होगी, उतनी ही शुक्र की नीरोगिता, पवित्रता और शक्तिमत्ता बढ़ेगी।
इसी प्रकार काल का भी अपना महत्व है। दिन में गर्भाधान सर्वथा निषिद्ध है। दिन के गर्भाधान से उत्पन्न संतान दुराचारी और अधम होती है। सन्ध्या की राक्षसी बेला में घोरदर्शन विकटाकार राक्षस तथा भूत-प्रेत-पिशाच आदि विचरण करते रहते हैं। इसी समय भगवान शंकर भी भूतों से घिरे हुये घूमते हैं। रात्रि के तीसरे पहर की सन्तान हरिभक्त और धर्मपरायण हुआ करती है।
गर्भाधान के समय शुद्ध एवं साव्तिक विचार मन में होने चाहिए। चरकसंहिता शारीर-अष्टम अध्याय में वर्णन है कि गर्भाधान के समय रज-वीर्य के मिश्रण काल में माता-पिता के मन में जैसे भाव होती हैं, वे ही भाव पूर्व कर्म के फल का समन्वय करते हुये गर्भस्थ बालक में प्रकट होते हैं। जिस प्रकार की धार्मिक, शूर, विद्वान, तेजस्वी सन्तान चाहिऐ वैसा ही भाव रखना चाहिए, और ऋतुस्नान के बाद प्रतिदिन वैसी ही वस्तओं को देखना और चिन्तन करना चाहिये। महर्षि चरक लिखते हैं कि ‘‘जो स्त्री पुष्ट, बलवान और पराक्रमी पुत्र चाहती हो, उसे ऋतु स्नान के पश्चात प्रतिदिन प्रातःकाल सफेद रंग के बड़े भारी सांड़ को देखना चाहिए।’’
हमारे शास्त्रों में कहा गया है और यह विज्ञानसिद्ध है कि ऋतु स्नान के बाद स्त्री पहले-पहले जिसको देखती है, उसी का संस्कार उसके चित्त पर पड़ जाता है और वैसी ही सन्तान बनती है। एक अमेरिकन स्त्री के कमरे में एक हब्शी की तस्वीर टांगी गई। उसने ऋतु स्नान के बाद पहले उसी को दखा था और गर्भकाल में भी प्रतिदिन उसी को देखा करती थी। इसका गर्भस्थ बालक पर इतना प्रभाव पड़ा कि उस बालक का चेहरा ठीक हब्शी के जैसा हुआ। एैसे कई उदाहरण हैं।
सुश्रुत-शारीरस्थान के द्वितीय अध्याय में लिखा है कि ‘‘ऋतु स्नान करने के बाद स्त्री को पति न मिलने पर वह कभी कभी कामवश स्वप्न में पुरूष-समागम करती है। उस समय अपना ही वीर्य रज से मिलकर जरायु में पहुंच जाता है और वह गर्भवती हो जाती है। परन्तु उस गर्भ में पति-वीर्य के अभाव से अस्थि आदि नहीं होते, वह केवल मांसपिण्ड का कुम्हडा जैसा होता है या सांप, बिच्छू, भेड़िया आदि के आकार के विकृत जीव ऐसे गर्भ में उत्पन्न होते हैं।’’ ऋतुकाल में कुत्ते, भेडिये, बकरे आदिके मैथुन देखने पर भी उसी भाव के अनुसार रात को स्वप्न आते हैं और ऐसे ही विकृत जीव गर्भ में निर्माण हो जाते हैं।
गर्भावस्था के समय स्त्री को बहुत सावधानी के साथ सदविचार, सत्संग, सद्ग्रन्थों का अध्ययन और सत तथा शुभ दृश्यां को देखना चाहिए। गर्भकाल में प्रह्लाद की माता कयाधू देवर्षि नारद के आश्रम मे ंरहकर नित्य हरि चर्चा सुनती थीं, इससे उनके पुत्र प्रह्लाद महान भक्त हुये। इसी प्रकार सुभद्रा के गर्भ में अभिमन्यु ने अपने पिता अर्जुन के साथ माता की बातचीत में ही चक्रव्यूह भेद करने की कला सीख ली थी।
स्मरण रहे कि बहुत सारी सन्तानें होने की अपेक्षा एक सुयोग्य संतान बड़ा महत्व रखती है। बरसात के कीड़े एक साथ लाखों की संख्या में पैदा होते हैं, सर्पिणी लगभग 200 बच्चे एक साथ पैदा करती है और उनमें अधिकांश को स्वयं ही खा जाती है। कुतियां 5 -7 बच्चे पैदा करती है, परन्तु उनका क्या महत्व। महत्ता गुणों में है संख्या में नहीं। श्रीराम अपनी मां के अकेले थे। भीष्म अपनी मां के अकेले थे। शंकराचार्य एक ही थे। पर उनका महत्व बहुत है। सच्चाई तो यह है कि सफल संतान वही है, जो भगवान की भक्त हो। अन्यथा पशुओं की तरह जीने और भोग वासना से क्या लाभ?