Saturday, May 30, 2020

*उपछाया चंद्रग्रहण 5 जून को*



5 जून को ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को अपछाया चंद्रग्रहण भारत में दिखाई देगा। ये पूर्ण ग्रहण नहीं होगा। इसलिए सूतक नहीं लगेगा। इस ग्रहण में चंद्रमा ग्रसित नहीं होगा। जातकों पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं होगा। ये ग्रहण रात 11:16 बजे से 2:34 बजे तक दिखेगा। 

निर्जला एकादशी व्रत 2 जून को रहेगा। 

✍🏻 *आचार्य डॉ प्रदीप द्विवेदी*
वरिष्ठ सम्पादक- इंडेविन टाइम्स समाचार पत्र
संस्थापक/ अध्यक्ष- स्वामी विवेकानंद व्यक्तित्व विकास संस्थान

Thursday, May 21, 2020

ज्योतिष का मूल वेदों में है 

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी





भारतीय मान्यता के अनुसार वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी है (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/18)। वेद अनादि-अपोरूषेय और नित्य हैं तथा उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। इस प्रकार का मत आस्तिक सिद्धान्त वाले सभी पौराणिकों एवं सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के दार्शनिकों का है। न्याय और वैशेषिक के दार्शनिकों ने वेद को अपौरूषेय नहीं माना है, पर वे भी इन्हें परमेश्वर द्वारा निर्मित, परन्तु पूर्वानुरूपीका ही मानते हैं। इन दोनों शाखाओं के दार्शनिकों ने वेद को परम प्रमाण माना है। जो वेद को प्रमाण नहीं मानते, वे आस्तिक नहीं कहे जाते। अतः सभी आस्तिक मतवाले वेद को प्रमाण मानने में एकमत हैं, केवल न्याय और वैशेषिक दार्शनिकों की अपौरूषेय मानने की शैली कुछ भिन्न है। नास्तिक दार्शनिकों ने वेदों को अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा रचा हुआ ग्रन्थ माना है। चार्वाक मतवालों ने तो वेद को निष्क्रिय लोगों की जीविका का साधन तक बता डाला है। किन्तु सनातमधर्म एवं भारतीय संस्कृति का मूल आधारस्तम्भ विश्व का अति प्राचीन और सर्वप्रथम वांग्मय वेद माना गया है। वेद छन्दोमयी वाणी में हैं। अतः इसे समझने के लिये छन्दों का ज्ञान आवश्यक है।
वेद के 6 अंग हैं जिन्हें वेदांग कहा जाता है। इनके नाम इस प्रकार हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष। जिस प्रकार व्याकरण वेद का मुख है, उसी प्रकार ज्योतिष को उसका नेत्र कहा गया है- ‘‘ज्योतिषामयनं चक्षुः’’। नेत्रों के बिना जिस प्रकार मानव अपने आप नहीं चल सकता उसी प्रकार ज्यौतिष शास्त्र के बिना वेदपुरूष में अन्धता आ जाती है। वेद की प्रवृत्ति विशेषरूप से यज्ञ-सम्पादन के लिये होती है। यज्ञ का विधान विशिष्ट काल की अपेक्षा करता है। यज्ञ-याग को करने के लिये समय-शुद्धि की विशेष आवश्यकता होती है। कुछ कर्मकाण्डीय विधान ऐसे होते हैं, जिनका सम्बन्ध संवतसर से होता है और कुछ का ऋतु से। कहने का मतलब यह है कि निश्चितरूप से नक्षत्र, तिथि, पक्ष, मास, ऋतु और संवत्सर के समस्त अंशों के साथ यज्ञ-याग के विधान वेदों में प्राप्त होते हैं। इसलिए इन नियमों के पालन के लिये और निश्चितरूप से निर्वहन के लिये ज्यौतिष शास्त्र का ज्ञान बहुत आवश्यक है। विद्वानों ने इसे ‘‘कालविज्ञापक शास्त्र’’ के नाम से पुकारा है। मुहूर्त निकालकर की जाने वाली यज्ञ आदि क्रिया विशेष फलदायक होती है। इसलिए वेदांग ज्यौतिष का विशेष आग्रह है कि जो मनुष्य ज्यौतिष शास्त्र को अच्छी तरह से जानता है, वही यज्ञ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान रखता है। यज्ञ की सफलता केवल समुचित विधान से ही नहीं होती, वरन उचित निर्दिष्ट नक्षत्र में और समुचित काल में प्रयोग से होती है। वैदिक यज्ञ विधान के लिये ज्यौतिष के महत्व को स्वीकार कर सुविख्यात ज्यौतिष-मातर्ण्ड भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ ‘‘सिद्धान्तशिरोमणि’’ में स्पष्ट कहा है-
वेदास्तावद् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्तस्ते तु कालाश्रयेण।
शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्याद् वेदांगत्वं ज्यौतिषस्योक्तमस्मात्।।
अर्थात वेद यज्ञ कर्म में प्रवृत्त होती हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते हैं तथा ज्यौतिष शास्त्र से कालज्ञान होता है, इससे ज्यौतिष शास्त्र का वेदांगत्व सिद्ध होता है।
प्राचीन समय में चारों वेदों का अलग-अलग ज्यौतिष शास्त्र था, उनमें सभी सामवेद का ज्यौतिष उपलब्ध नहीं है, अवशिष्ट तीन वेदों के ज्यौतिष प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
ऋग्वेद ज्यौतिष-आर्च ज्यौतिष, 36 पद्यात्मक।
यजुर्वेद ज्यौतिष-याजुष ज्यौतिष, 39 पद्यात्मक।
अथर्ववेद ज्यौतिष-अथर्वण ज्यौतिष, 162 पद्यात्मक।
वस्तुतः आर्च ज्यौतिष और याजुष ज्यौतिष में समानता प्रतीत होती है। कहीं कहीं इतिहास में दो ज्यौतिष का ही उल्लेख प्राप्त होता है। आथर्वण ज्यौतिष की चर्चा ही नहीं है। संख्या के विषय में भी मतैक्य नहीं है। याजुष ज्यौतिष की पद्य संख्या 39 बताई गयी है, कहीं कहीं 49 है। इसी प्रकार आथर्वण ज्यौतिष के स्थान पर ‘‘अथर्व ज्यौतिष’’ इस प्रकार का नाम भी मिलता है।
यदि पूछा जाये कि ज्योतिष क्या है? तो कह सकते हैं कि यह ज्योति का शास्त्र है। ज्योति आकाशीय पिण्डों नक्षत्र, ग्रह आदि से आती है, परन्तु ज्योतिष में हम सब पिण्डों का अध्ययन नहीं करते। यह अध्ययन केवल सौरमण्डल तक ही सीमित रखते हैं। ज्योतिष का मूलभूत सिद्धान्त है कि आकाशीय पिण्डों का प्रभाव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर पड़ता है। इस प्रकार मानव जगत में भी इन नक्षत्रों, ग्रहों आदि का प्रभाव पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आकाशीय पिण्डों एवं मानव जगत में पारस्परिक सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को अथर्ववेद में तीन मन्त्रों द्वारा बताया गया है-
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि।
तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम्।। ( अथर्ववेद 19/7/1)
अर्थात द्युलोक सौरमण्डल में चमकते हुये विशिष्ट गुणवाले अनेक नक्षत्र हैं, जो साथ मिलकर अत्यन्त तीव्र गति से टेढ़े-मेढ़े चलते हैं। सुमति की इच्छा करता हुआ मैं प्रतिदिन उनको पूजता हूं, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो। इस प्रकार इस मन्त्र में नक्षत्रों को सुख तथा सुमति देने में समर्थ माना गया है। यह सुमति मनुष्यों को नक्षत्रों की पूजा से प्राप्त होती है। यह मनुष्यों पर नक्षत्रों का प्रभाव हुआ। जिसे ज्योतिष शास्त्र ही मानता है। दूसरा मन्त्र इस प्रकार है-
यानि नक्षत्राणि दिव्यन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु।
प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु।। (अथर्ववेद 19/8/1)
अर्थात जिन नक्षत्रों को चन्द्रमा समर्थ करता हुआ चलता है, वे सब नक्षत्र मेरे लिये आकाश में, अन्तरिक्ष में, जल में, पृथ्वी पर, पर्वतों पर और सब दिशाओं में सुखदायी हों।
यहां एक प्रश्न उठता है कि चन्द्रमा किन नक्षत्रों को समर्थ करना हुआ चलता है? वेदों में इन नक्षत्रों की संख्या 28 बताई गयी है। इनके नाम अथर्ववेद के 19वें काण्ड के 7वें सूक्त में मन्त्र संख्या 2 से 5 तक यानि 4 मन्त्रों में दिये गये हैं। अश्विनी, भरणी आदि 28 नाम वही हैं, जो ज्योतिष ग्रन्थों में हैं। इस प्रकार नक्षत्रों के नाम तथा क्रम में पूर्ण समानता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ज्योतिष का मूल वेदों में है। तीसरा मन्त्र इस प्रकार से है-
अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे।
योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पद्ये योगं च नमोअहोरात्राभ्यामस्तु।। (अथर्ववेद 19/8/2)
अर्थात 28 नक्षत्र मुझे वह सब प्रदान करें, जो कल्याणकारी ओर सुखदायक हैं। मुझे प्राप्ति सामर्थ्य और रक्षा सामर्थ्य प्रदान करें। दूसरे शब्दों में पाने के साथ साथ रक्षा के सामर्थ्य को भी पाऊं और रक्षा के सामर्थ्य के साथ ही पाने के सामर्थ्य को भी मैं पाऊं। दोनों अहोरात्र अर्थात दिन और रात्रि को नमस्कार हो। इस मन्त्र में योग और क्षेम की प्राप्ति के लिये प्रार्थना की गयी है। साधारणतया जो वस्तु मिली नहीं है, उसको जुटाने का नाम योग है। जो वस्तु मिल गयी है, उसकी रक्षा करना ही क्षेम है। नक्षत्रों से इनको देने की प्रार्थना से स्पष्ट है कि नक्षत्र प्रसन्न होकर यह दे सकते हैं। इस प्रकार इस मन्त्र से भी ज्योतिष का नाता है। मन्त्र में जो अहोरात्र पद आया है, उसका ज्योतिष के होराशास्त्र में बहुत महत्व है।
अहोरात्राद्यंतलोपाद्धोरेति प्रोच्यते बुधैः।
तस्य हि ज्ञानमात्रेण जातकर्मफलं वदेत्।। (बृ0पा0हो0शास्त्र पू0 अध्याय 3/2)
अर्थात अहोरात्र पद के आदिम (अ) और अन्तिम (त्र) वर्ण के लोप से होरा शब्द बनता है। इस होरा (लग्न) के ज्ञान से जातक का शुभ या अशुभ कर्मफल किया जाना चाहिए।
आकाशीय पिण्डों में नक्षत्र और ग्रह दोनों आते हैं। ज्योतिष ने इन दोनों में कुछ अन्तर किया है, इस श्लोक में देखें-
तेजःपुज्जा नु वीक्ष्यन्ते गगने रजनीषु ये।
नक्षत्रसंज्ञकास्ते तु न क्षरन्तीति निश्चलाः।।
विपुलाकारवन्तोअन्ये गतिमन्तो ग्रहाः किल।
स्वगत्या भानि गृहृन्ति यतोअतस्ते ग्रहाभिधाः।। (अध्याय 3/4-5)
अर्थात ‘‘रात्रि के समय आकाश में जो तेजःपुज्ज दिखाई देते हैं, वे ही निश्चल तारागण नहीं चलने के कारण नक्षत्र कहे जाते हैं। कुछ अन्य विपुल आकारवाले गतिशील वे तेजःपुज्ज अपनी गति के द्वारा निश्चल नक्षत्रों को पकड़ लेते हैं, अतः वे ग्रह के नाम से जाने जाते हैं।’’ उपरोक्त तीन मन्त्रों में नक्षत्रों से सुख, सुमति, योग, क्षेम देने की प्रार्थना की गयी है। अब ग्रहों से दो मन्त्रों में इसी प्रकार की प्रार्थना का वर्णन है। दोनों मन्त्र अथर्ववेद के 19वें काण्ड के नवम सूक्त में हैं। इस सूक्त के 7वें मन्त्र का अन्तिम चरण शं नो दिविचरा ग्रहाः है, जिसका अर्थ है आकाश में घूमने वाले सब ग्रह हमारे लिये शान्तिदायक हों। यह प्रार्थना सामूहिक है। इस सूक्त का 10वां मन्त्र इस प्रकार है-
शं नो ग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्यश्च राहुणां
शं नो मृत्युर्धूमकेतुः शं रूद्रास्तिग्मतेजसः।।
अर्थात ‘‘चन्द्रमा के समान सब ग्रह हमारे लिये शान्ति प्रदाता हों। राहु के साथ सूर्य भी शान्तिदायक हों। मृत्यु, धूम और केतु भी शान्तिदायक हों। तीक्ष्ण तेजवाले रूद्र भी शान्तिदायक हों।’’
यहां प्रश्न उठता है कि चन्द्र के समान अन्य ग्रह कौन हैं? इसका उत्तर है कि 5 ताराग्रह। मंगल, बुध, गुरू, शुक्र और शनि। ये चन्द्र के समान सूर्य की परिक्रमा करने से एक ही श्रेणी में आते हैं। सूर्य किसी की परिक्रमा नहीं करता। इसलिये इसको भिन्न श्रेणी में रखा गया है। राहु और केतु प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले ग्रह नहीं हैं। इसलिए ज्योतिष में इसे छायाग्रह कहा जाता है, किन्तु वेदों ने इन्हें ग्रह की श्रेणी में ही रखा है। इस प्रकार सूर्य, यन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केत को ज्योतिष में नवग्रह कहा गया है।
कुछ भाष्यकारों ने ‘चान्द्रमसाः’’ का अर्थ चन्द्रमा के ग्रह भी किया है और उसमें नक्षत्रों (कृत्तिका) आदि की गणना की है, किन्तु यह तर्क संगत प्रतीत नहीं होता। इस मन्त्र में आये हुये मृत्यु एवं धूम को महर्षि पराशर ने अप्रकाश ग्रह की संज्ञा दी है। ये पाप ग्रह हैं और अशुभ फल देने वाले हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार गुलिक को ही मृत्यु कहते हैं। ऊपर के मन्त्रों में इनकी प्रार्थना से यह बात तो स्पष्ट है कि इनका प्रभाव भी मानव पर पड़ता है। ज्योतिष के अतिरिक्त शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन, पुराण आदि सभी धर्मग्रन्थों के मूल आधार वेद ही हैं। वास्तव में जीव, जगत, प्रकृति और परमात्मा के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान ही वेद का स्वरूप है।


देश के अधिक मान्यता वाले देवी मां के कुछ मन्दिर

संकलन एवं शोध- आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)






असम का कामाख्या देवी मन्दिर
कामाख्या देवी मन्दिर असम के नीलांचल पर्वत पर स्थित है। यह मन्दिर सती के सबसे पुरातन शक्ति पीठों में से एक है। यह मन्दिर दस महाविद्या को समर्पित है। इसे 8वीं सदी में निर्मित माना जाता है। वर्णन है कि जब भगवान शिव सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर कर रहे थे तब देवी का योनि भाग यहां (कामाख्या) में गिरा था। इस मन्दिर के गर्भ गृह में योनि के आकार का कुंड भी मौजूद है। इसमें पानी का प्रवाह होता रहता है। इस कुंड को योनि कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर शक्ति कामाख्या देवी के रूप में पूजित हैं। मान्यता है कि असम में मानसून आने के अवसर पर यहां तीन दिन का मेला लगता है जिसे अंबुबाची मेला कहते हैं, इस दौरान कामाख्या महावारी की स्थिति में होती हैं। जिसके कारण योनि कुण्ड से पानी की स्थान पर खून का प्रवाह शुरू हो जाता है। इसलिए इस कुण्ड को इन दिनों लाल कपड़े से ढक दिया जाता है। जिसके कारण मन्दिर में भक्तों को प्रवेश नहीं दिया जाता। इस मेले के दौरान भक्त कोई शुभ कर्म नहीं करते। मेला समाप्त होने के चौथे दिन मन्दिर के पुजारी देवी को शुद्ध करने के लिसे विधि-विधान से योनि कुण्ड को स्नान करवाते हैं। इसके बाद मन्दिर के कपाट खोले जाते हैं। भक्तों को प्रसाद के तौर पर योनि कुण्ड को स्नान करवाया जल, दूध, शहद व अन्य सामग्री दी जाती है। कामाख्या देवी को मोक्षदायिनी और सन्तानोत्पत्ति की मनोकामना पूरी करने के लिये जाना जाता है। यहां पर कई और मन्दिर भी हैं जैसे - कमला, तारा, शोदषी, भैरवी, बगलामुखी, मातंगी, छिन्नमस्त, धुमवती, और काली मन्दिर। यहां पाशुओं की बलि देनी की परम्परा भी है। किन्तु मादा पशुओं को बलि नहीं चढ़ाया जाता। इस मन्दिर का प्रवेश द्वार नीलांचल पर्वत की तराई में स्थापित है। नई दिल्ली से गुवाहटी के लिये कई ट्रेने चलती हैं। गुवाहटी रेलवे स्टेशन से यह मन्दिर लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर है।

मध्यप्रदेश का मैहर देवी मन्दिर
भारत में कई एैसे मन्दिर हैं जिनकी महत्ता और मान्यता बहुत अधिक है। उनमें से कुछ मन्दिरों की जानकारी हम पाठकों के लिये लेकर आये हैं। मैहर देवी का मन्दिर मध्यप्रदेश के सतना जनपद में स्थित है। इसकी गणना 52 शक्ति पीठों में नहीं होती फिर भी इसका महत्व भारत, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में स्थित अन्य शक्ति पीठों जैसा ही है। वर्णन है कि जब भगवान शिव अपनी पत्नी सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर रहे थे, तब देवी का हार मैहर में गिर गया था। मैहर जिले के नामकरण के पीछे भी यहीं कथा बताई जाती है। पौराणिक कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि सती के पिता महाराज दक्ष भगवान शिव को किसी कारण पसन्द नहीं करते थे। सती ने पिता के खिलाफ जाकर शिव से विवाह किया था। शिव को अपमानित करने के लिये दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन किया। इस आयोजन में शिव और सती को न्यौता नहीं दिया। जबकि अन्य देवी देवताओं को बुलाया। सती ने यज्ञ में पहुंचकर इसका कारण दक्ष से पूछा तो वह शिव को अपशब्द कहने लगे। पिता के इस बर्ताव से सती ने वहां हवन कुण्ड में जल रही अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे दी। जब शिव को इस बात का पता चला तो उनका तीसरा नेत्र खुला। आयोजन स्थल पर पहुंच कर उन्होंने सती का पार्थिव शरीर उठाया और तांडव करने लगे। देवताओं के अनुरोध पर शिव को शान्त करने के लिये भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाया। इससे सती का शरीर 52 भागों मेेेेेेेेें बट गया। तांडव के दौरान यह जहां-जहां गिरा, उस-उस स्थान पर शक्ति पीठ बना।
विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर के बारे मान्यता है कि माँ शारदा की प्रथम पूजा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी। मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्म ग्रंथों में महेन्द्र मिलता है। इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है। जन श्रुतियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम माँ शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया। यहां मां शारदा का वास माना जाता है। इस मन्दिर में मूर्ति की स्थापना का काल 502 ईस्वी माना जाता है।  यहां नारियल, लाई, मिशरी, फूल माला, अगरबत्ती, छत्री चढाने की प्रथा है। कालभैरव के दर्शन को यहां जरूरी माना गया है। इस मन्दिर की खोज पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करने वाले आल्हा-उदल द्वारा की गयी थी, यहीं पर आल्हा-उदल ने 12 वर्ष तपस्या करके अमरत्व का वरदान पाया था। कहते हैं कि आज भी आल्हा-उदल सुबह सबसे पहले यहां आकर पूजा कर जाते हैं। इसी मन्दिर के नीचे आल्हा तालाब स्थित है। मन्दिर के लिये 1063 सीढ़ियों का पैदल मार्ग जाता है। दिल्ली से यह मन्दिर लगभग 770 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
झारखण्ड के देवघर में स्थित बैद्यनाथ धाम
यह मन्दिर शिव के नौवें ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात है। फिर भी इसकी गणना देवी सती के 52 शक्ति पीठों में की जाती है। इसे हृदयपीठ के नाम से भी जाना जाता है। ग्रन्थों के पन्नें पलटने से पता चलता है कि जब शिव अपनी पत्नी सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर रहे थे, तब देवी का हृदय वैद्यनाथ में गिर गया था। यहां पर सती जयदुर्गा के रूप में पूजित हैं। इनकी रक्षा कालभौरव के रूप में भगवान वैद्यनाथ करते हैं। मान्यता है कि सती का हृदय यहां गिरने के कारण शिव और सती दोनों यहां निवास करते हैं। पौराणिक ग्रन्थों के हिसाब से रावण ने इसी जगह शिव की तपस्या की थी। शिव को प्रसन्न करने के लिये लंकापति रावण ने अपने दस सिरों की बलि दी थी। अपने भक्त के कष्ट से द्रवित होकर भगवान शिव ने प्रकट होकर वैद्य के रूप में उसके सारे कष्ट हरे। इस धाम के नामकरण के बारे में यहीं कथा प्रचलित है। यहां पर पार्वती, काली और लक्ष्मीनारायण सहित 21 देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। नई दिल्ली से इसकी दूरी लगभग 1280 किलोमीटर है। सावन में लाखों कावडिये यहां जल जढ़ाने पहुंचते हैं।

बिहार के कैमूर जिले में स्थित मां मुडेश्वरी देवी मन्दिर
मां मुंडेश्वरी देवी का मन्दिर देश के प्राचीनतम शक्तिपीठों में दर्ज मुंडेश्वरी धाम शैव, शाक्त और वैष्णव उपासना का मिला जुला तीर्थस्थल है। यहां पर मुंडेश्वरी मां कई रूपों में पूजी जाती हैं। इस मन्दिर के मूल देवता नारायण अर्थात विष्णु हैं। इसकी पौराणिक और धार्मिक प्रधानता है। मध्य युग में यहां शक्ति की उपासना प्रारम्भ हुई थी। यह वही काल था जब मंदिर में मूल नायक के रूप में स्थापित चतुर्मुख शिवलिंग की उपासना भी प्रारम्भ हुई। यह शिवलिंग अपनी छटा कई बार बदलता है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार भगवती ने जब देखा की इस क्षेत्र में मानव जाति पर घोर अत्याचार हो रहा है और असुर मुंड सनातन संस्कृति को नष्ट कर रहा है। यह देख मां ने मुंड का वध कर अपने एैश्वर्य का प्रदर्शन किया। इसी से देवी का नाम मुडेश्वरी विख्यात हुआ। इस मन्दिर के इतिहास के बारे में पता लगता है कि यह मन्दिर प्रवरा पहाड़ी के शिखर पर लगभग 600 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। ब्रिटिश यात्री आरएन मार्टिन और फ्रासिंस बुकानन सन 1812 से लेकर 1904 के बीच इस मन्दिर का भ्रमण किया था। वहीं पुरातत्वविदों के अनुसार यहां से प्राप्त शिलालेख 389ई0 से 636ई0 के बीच का है, जो इसकी प्राचीनता को दर्शाता है। इस मन्दिर की नक्काशी और मूर्तियां उत्तर गुप्तकाल की बताई जाती हैं।
यहां की मूर्ति के विषय में मान्यता है कि इस प्रतिमा को देखते ही मां के वाल्सल्य का पता चल जाता है। प्रसाद के रूप में नारियल, सिन्दूर, रक्षा, रोली आदि यहां चढ़ाने की पुरानी परम्परा है। मन्दिर तक जाने के लिये 524 सीढ़ियां भी हैं। मन्दिर में पहुंचने के लिये एक किलोमीटर लम्बा सड़क मार्ग है। यहां से हल्की गाड़ियां ही प्रवेश कर सकती हैं। एैसी परम्परा है कि मुंडेश्वरी देवी के दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी के पास लगे लोहे में घंटा बांधकर लोग अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। यहां लोग मुंडन संस्कार के लिये भी आते है। मुख्यतः यहां लोग सन्तान और बेहतर स्वास्थ्य की कामना से आते हैं।

जम्मू का वैष्णो देवी मन्दिर
जम्मू के त्रिकूट पर्वत पर मां वैष्णो देवी तीन पिंडों में विराजमान हैं- काली, सरस्वती और लक्ष्मी। किवदन्ती है कि कटरा के हंसाली ग्राम निवासी श्रीधर मां शक्ति के परम भक्त हुये। आज से लगभग 700 वर्ष पहले मां ने कन्या के रूप में उन्हें दर्शन दिये थे। उस कन्या ने श्रीधर से भण्डारा करने को कहा। इस भण्डारे में कन्या की परीक्षा लेने गांव वालों के साथ भैरवनाथ भी पहुंचे। उसने कन्या से मांस-मदिरा की मांग की और कहा कि जब हर व्यक्ति को अपनी पसंद का भोजन मिल रहा है तो मुझे भी मिले। कन्या ने कहां कि आप ब्राह्मण की कुटिया में बैठ कर भोजन कर रहे है यह स्मरण रहे। कन्या नहीं मानी। यह देख भैरवनाथ ने क्रोध में आकर कन्या को पकड़ना का प्रयास किया तो वह त्रिकूट पर्वत की ओर दौड़ी। दर्शनी दरवाजा, बाण गंगा, चरण पादुका, आदिकुमारी होकर वह कन्या अर्धक्वारी गुफा में पहुंची। भैरवनाथ भी वहां पहुंच गया। यह देख उस कन्या (देवी) ने क्रोध में आकर उसका वध कर दिया। भेरवनाथ का सिर भवन से 8 किलोमीटर दूर जाकर गिरा। आज यहीं पर भैरवनाथ मंन्दिर है। कन्या के चले जाने पर श्रीधर बहुत दुखी हुये। एक रात मां ने श्रीधर के स्वप्न में आकर अपने दिव्य धाम के दर्शन कराये। अगले दिन प्रातः काल ही श्रीधर देवी के धाम को ढूढने निकल गये। अन्त में वे गुफा तक पहुंचे। त्रिकूट पर्वत की इसी गुफा में आज वैष्णों माता विराजमान हैं। नई दिल्ली से जम्मू तक सड़क मार्ग की दूरी 575 किलोमीटर है, हवाई मार्ग दूरी 503, रेल मार्ग दूरी 578 है। फिर जम्मू से कटरा तक की दूरी 50 मिलोमीटर है। कटरा से मन्दिर की दूरी 14 किलोमीटर है। यहां एैसी मान्यता है कि मां के दर्शन के बाद भैरवनाथ मन्दिर के दर्शन करने पर मनोकामना अवश्य पूरी होती हैं।

दिल्ली के करोलबाग स्थित मां दुर्गा का झंडेवालान मन्दिर
देश की राजधानी दिल्ली के करोलबाग स्थित मां दुर्गा का यह मन्दिर दुर्गा मां के विख्यात मंदिरों में शुमार है। इस मन्दिर का नाम इसके चोटी पर लगे ध्वज के नाम पर रखा गया है। यह ध्वज बहुत दूर से दिखता है। मंदिर अष्टकोणिय है तथा इसमें 6 द्वार हैं। बताते हैं कि 18वीं शताब्दी में यहां साधना हेतु एक कपड़ा व्यापारी आया, जिसका नाम बद्री दास था। एक दिन ध्यान के दौरान उसे एैसा अनुभव हुआ कि यहां गुफा में कोई मंदिर दबा है। बाद में इसकी खुदाई करवाई गयी जिसमें देवी की मूर्ति निकली। निकालते हुये इस प्रतिमा के दोनों हाथ टूट गये थे। इसके महत्व को देखते हुये प्रतिमा में चांदी के हांथ लगवाये गये। देवी की वह प्रतिमा उसी गुफा में रखी गयी। साथ ही एक शिवलिंग भी यहां मिला। शास्त्रों को मत है कि खंडित प्रतिमा की पूजा वर्जित है। इसलिये गुफा के ऊपर एक नई प्रतिमा की स्थापना की गयी। इस गुफा में लगभग 8 दशकों से 2 अखण्ड ज्योति जल रही हैं। एक ज्योति घी की है तथा दूसरी तेल की जो कि शनिदेव के लिये है। नवरात्रों के दौरान यहां दो बार माता की चौकी होती है। मंदिर जाने के लिये यहां मेट्रो की व्यवस्था है। श्रृद्धालु अपनी मनोकामना लेकर यहां आते हैं, मनोकामना पूर्ण होने पर वे देवी को चुनरी चढाकर तथा चौकी या फिर भण्डारा करवाता है। मंगलवार और रविवार को यहां भण्डारे का आयोजन किया जाता है।
उत्तराखंड के हरिद्वार में स्थित मंसा देवी मन्दिर
यह मन्दिर हरिद्वार के 5 तीर्थों में गिना जाता है। बिल्व पर्वत पर विराजमान मंसा देवी मनोकामना की देवी के रूप में जानी जाती हैं। पौराणिक ग्रन्थों को यदि खंगाला जाये तो मंसा देवी का वर्णन ऋषि कश्यप और नागमाता कदू्र की पुत्री के रूप में मिलता है। नागराज वासुकी मंसा के भाई माने गये हैं। वासुकी ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी जिसके फलस्वरूप वासुकी को शिव जी के गले में लिपटने का वरदान मिला था। वर्णन है कि एक दिन वासुकी को स्वप्न आया कि उनकी बहन का पुत्र नाग वंश की रक्षा करेगा। तब वासुकी ने मंसा का विवाह ऋषि जगतकारू से कर दिया। दोनों के पुत्र आस्तिक ने सर्पों को राजा जनमेजय के प्रकोप से बचाया था। कथा है कि एक सर्प के काटने से पिता परिक्षित की मृत्यु के बाद जनमेजय ने नागवंश के विनाश की प्रतिज्ञा ली थी। पौराणिक ग्रन्थों में मंसा नागकन्या होने के नाते उन्हें विषहरिणी के रूप में प्रतिष्ठा मिली। कहा जाता है कि समुद्र मन्थन से जब विष निकला तो उसे शिव ने पिया, तब मंसा ने ही उनकी विष से रक्षा की थी। इसके बाद मंसा की पूजा विष हरने वाली देवी के रूप में भी होने लगी। बताया जाता है कि जगतकारू ने मंसा से विवाह अपने पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति के लिये किया था। आस्तिक के जन्म के बाद उन्होने पत्नी को छोड़ दिया था। आहत मंसा ने शिव की कठोर तपस्या की। मंसा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने मंसा को मनोकामना पूर्ति की देवी के रूप में पूजे जाने का वरदान दिया।
इस मन्दिर में 8 भुजाओं और 3 मुखों 5 हांथों वाली देवी की दो प्रतिमांए हैं। चुनरी व छत्री चढाने का बहुत महत्व है। मन्दिर तक पहुंचने के लिये 2 किलोमीटर लम्बा पैदल रास्ता है। नई दिल्ली से यदि मन्दिर के लिये सड़क मार्ग से जाया जाये तो 209 किलोमीटर है मन्दिर और यदि रेल मार्ग से जाया जाये तो 271 किलोमीटर है। मंसा देवी के दर्शन के बाद इसके बाहर लगे कचनार के वृक्ष पर धागा बांधकर मनोकामना मांगने की परम्परा है। सर्प दोष से मुक्ति हेतु भी यहां लोग आते हैं।

हिमांचल का नैनादेवी मन्दिर
हिमाचल राज्य के बिलासपुर जिले में यह मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर 52 शक्तिपीठों में से एक है। मन्दिर 1177 मीटर ऊंची पहाड़ी पर है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जब शिव अपने कंधे पर उठाये सती के मृत शरीर को लिये फिर रहे थे तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस देह को कई हिस्सों में बांट दिया। उस देह से सती की आंख यहा गिरी। जिसके कारण इस शक्तिपीठ का नाम नैना देवी पड़ा। यहीं पर मां ने महिषासुर का वध किया था। जिसके कारण इसका एक नाम महिशपीठ भी है। यहां पर मां पिण्ड रूप में पूजित होती हैं। दिन में 5 बार नैना देवी की पूजा की जाती है। दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा आवश्यक मानी गयी है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर एक विशाल पीपल का सदियों पुराना वृक्ष है। द्वार पर ही दो शेरों की प्रतिमा है जो कि देवी के वाहन मानें जाते हैं। मन्दिर के गर्भ गृह में माता काली, गणेश और बीच में नैनादेवी का पिण्ड विराजमान है। यहां परिसर में एक हवन कुण्ड है। माना जाता है कि इस हवन कुण्ड की भस्म को मस्तक पर लगाने से मन को बहुत शान्ति मिलती है। मन्दिर की चढाई में लगभग 2 घंटे लगते हैं। दिल्ली से यह मन्दिर 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में स्थित मां विन्ध्यवासिनी देवी मन्दिर
उत्तर प्रदेश राज्य के मिर्जापुर जपनद में उत्तरी छोर पर मां विन्ध्यावासिनी देवी का मन्दिर स्थित है। इसकी महत्ता सिद्धपीठ के रूप में विख्यात है। माना जाता है कि यहां मां का विग्रह अनादि काल रहा है। यह भी कहते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विन्ध्यक्षेत्र के त्रिकोण जैसा कोई स्थान नहीं है। इस मन्दिर में महालक्ष्मी के स्वरूप में मां विन्ध्यवासिनी, महाकाली के रूप में काली और महा सरस्वती के रूप में अष्टभुजा माता विराजमान हैं। इन तीनों देवियों का मन्दिर त्रिकोण पर स्थित है। एैसी भी मान्यता है कि जब गंगा धरती पर अवतरित हुई तो वह विन्ध्य क्षेत्र से होकर गुजर रही थीं किन्तु मां विन्ध्यवासिनी के चरण धुलने क लिये वह पूरी तरह दक्षिण की ओर मुड़ गईं। इस मन्दिर से आगे बढ़ने के बाद ही पुनः गंगा उत्तरमुखी होकर अपने मूल रास्ते पर आ गईं। कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान राम और रावण ने भी मां विन्ध्यवासिनी की पूजा की थी। दिल्ली से यह मन्दिर 715 किलोमीटर पूरब एनएच 76 के किनारे है।

वट सावित्री व शनि जयंति पर विशेष- 22 जून
दीर्घायु और अमरत्व का प्रतीक है वट वृक्ष  

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)





पति की दीर्घायु हेतु सुहागिन महिलायें वट सावित्री व्रत की पूजा करती है। यह पूजा इस वर्ष 22 जून को मनाई जा रही है। इस दिन स्त्रियां अपने-अपने समूह में या अकेले ही आकर बरगद के पेड़ के पास अपने पति की लम्बी आयु के लिये पूजा-अर्चना करती है।

तिथि व मुहूर्त- ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अमावस्या 22 मई को है। इसी दिन शनि जयंति व वट सावित्री व्रत रहेगा। शनिदेव सूर्यदेव और माता छाया के पुत्र हैं। शनिदेव का जन्म ज्येष्ठ अमावस्या के दिन हुआ था। इनकी पूजा के लिये जातक को 5, 7, 11, 21 और 51 की संख्या में काली सरसों के तेल के दीपक शनि प्रतिमा के सामने या पीपल के पेड़ के नीचे जलाकर उनको नमन करना चाहिये। शनि जयंती होने के कारण बरगद और पीपल की पूजा शनि, मंगल, राहु के अशुभ प्रभाव भी दूरे होंगे। वट वृक्ष को देव वृक्ष माना जाता है। इसकी जड़ों में ब्रह्मा, तने में विष्णु और डाली व पत्तों में शिव का वास होता है। इसी दिन सोमवती अमावस्या भी है। इस रूप में सौभाग्यवती स्त्रियों का विशेष पर्व  है एवं इसमें पीपल वृक्ष की जड़ में भगवान विष्णु को प्रतिष्ठित मानते हुये स्त्रियां विहित मंत्र ‘‘अश्वत्थ मूले......’’ का जप करते हुये 108 परिक्रमा करती हुयी एवं अक्षुण सौभाग्य की मंगल कामना करती हैं।

वट-बरगद वृक्ष का महत्त्व
इस संसार में अनेक प्रकार के वृक्ष है उनमे से बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। शास्त्रानुसार ‘वट मूले तोपवासा’ ऐसा कहा गया है। वट वृक्ष तो दीर्घायु और अमरत्व का प्रतीक है। पुराण के अनुसार बरगद में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का निवास होता है। इस वृक्ष के नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोवांक्षित फल की प्राप्ति शीघ्र ही होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता तथा दीर्घायु के लिए लोक में प्रसिद्ध है। ऐसा लगता है कि सुहागन महिलाएं वटवृक्ष की पूजा यही समझकर करती है कि मेरे पति भी वट की तरह विशाल और दीर्घायु बने रहे।

कैसे करें वट सावित्री व्रत पूजा
वट सावित्री व्रत पूजन विधि में क्षेत्र के अनुसार कुछ अंतर पाया जाता है। प्रायः सभी भक्त अपने-अपने परम्परा के अनुसार वट सावित्री व्रत पूजा करते हैं। सामान्य पूजा के अनुसार इस दिन महिलाएँ सुबह स्नान कर नए वस्त्र पहनकर, सोलह श्रृंगार करती हैं। इस दिन निराहार रहते हुए सुहागिन महिलाएं वट वृक्ष में कच्चा सूत लपेटते हुए परिक्रमा करती हैं। वट पूजा के समय फल, मिठाई, पूरी, पुआ भींगा हुआ चना और पंखा चढ़ाती हैं । उसके बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। पुनः सावित्री की तरह वट के पत्ते को सिर के पीछे लगाकर घर पहुंचती हैं। इसके बाद पति को पंखा झलती है जल पिलाकर व्रत तोड़ती हैं। विशेष रूप में इस पूजन में स्त्रियाँ चौबीस बरगद फल (आटे या गुड़ के) और चौबीस पूरियाँ अपने आँचल में रखकर बारह पूरी व बारह बरगद वट वृक्ष में चढ़ा देती हैं। वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करती हैं। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वे वृक्ष की बारह परिक्रमा करती हैं। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाती हैं। और सूत तने पर लपेटती जाती हैं। परिक्रमा के पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। उसके बाद बारह कच्चे धागा वाली एक माला वृक्ष पर चढ़ाती हैं और एक को अपने गले में डालती हैं। पुनः छः बार माला को वृक्ष से बदलती हैं, बाद में एक माला चढ़ी रहने देती हैं और एक स्वयं पहन लेती हैं। जब पूजा समाप्त हो जाती है तब स्त्रियाँ ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलती हैं। और इस तरह व्रत तोड़ती हैं। इसके पीछे कथा है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को जीवित कर दिए तब सावित्री ने अपने पति सत्यवान को जल पिलाकर स्वयं वटवृक्ष की बौंडी खाकर जल ग्रहण की थी। कथा के अनुसार सावित्री ने अपने पति की प्राण रक्षा के लिए निराहार व्रत किया और विष्णु की आराधना करने लगी। अमावस्या के दिन सत्यवान का प्राण लेने यमराज आए, लेकिन सावित्री की भक्तिसे प्रसन्न होकर सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे दिया। जब यमराज पति का प्राण लेकर जाने लगे, तो वह पीछे लग गई। आखिरकार यमराज ने प्राण लौटाना पड़ा

सावित्री सत्यवान कथा
महाभारत के वनपर्व में सावित्री और सत्यवान की कथा का वर्णन मिलता है। वन में युधिष्ठिर मार्कण्डेय मुनि से पूछते है कि क्या कोई अन्य नारी भी द्रोपदी की जैसे पतिव्रता हुई है जो पैदा तो राजकुल में हुई है पर पतिव्रत धर्म निभाने के लिए जंगल-जंगल भटक रही है। तब मार्कण्डेय मुनि युधिष्ठर से कहते है की पहले भी सावित्री नाम की एक कन्या हुई थी जो इससे भी कठिन पतिव्रत धर्म का पालन कर चुकी है तब युधिष्ठिर मुनि से आग्रह करते है की कृप्या वह कथा मुझे सुनाये। मुनि कथा सुनाते हुए कहते है-
मद्र देश में अश्वपति नाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा हुआ करता था। जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई तब महाराज उसके विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। महाराज अपनी पुत्री के लिए योग्य वर ढूंढने के लिए बहुत प्रयास किये परन्तु अपनी पुत्री के लिए योग्य वर नहीं ढूंढ सके। तब अन्ततः उन्होंने सावित्री से कहा बेटी अब आप विवाह के योग्य हो गयी है इसलिए स्वयं ही अपने योग्य वर चुनकर उससे विवाह कर लें।तब राजकुमारी शीघ्र ही वर की तलाश में चल दी। तलाश करते करते वह शाल्व देश के राजा के पुत्र सत्यवान जो जंगल में ही पले बढे थे को अपने पति के रूप में स्वीकार की। राजकुमारी अपने देश लौटकर दरबार में पहुंची तो और राजा देवर्षि नारद जी से मंत्रणा कर रहे थे राजा ने अपनी पुत्री से वर के चुनाव के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने शाल्वदेश के राजा के पुत्र को पति रूप में स्वीकार किया है। जिसका नाम सत्यवान है। तब नारदमुनि बोले राजन ये तो बहुत ही दुःख की बात है क्योंकि इस वर में एक दोष है तत्क्षण राजा ने पूछा भगवन बताये वो कौन सा दोष है ? तब नारदजी ने कहा जो वर सावित्री ने चुना है उसकी आयु बहुत ही कम है। वह सिर्फ एक वर्ष के बाद मरने वाला है। उसके बाद वह अपना देहत्याग देगा। तब सावित्री ने कहा पिताजी कन्यादान एक बार ही किया जाता है जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया है। मैं उसी से विवाह करूंगी आप उसे कन्यादान कर दें। उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया।

सत्यवान व सावित्री के विवाह के कुछ समय बीत जाने के बाद जिस दिन सत्यवान मरने वाला था वह दिन नजदीक आ चुका था । सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी। उसके दिल में नारदजी का वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है। उसने तीन दिन तक व्रत धारण किया। जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गया तो सावित्री ने उससे कहा कि मैं भी साथ चलुंगी। तब सत्यवान ने सावित्री से कहा तुम व्रत के कारण कमजोर हो रही हो। जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए आप यहीं रहें। लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सत्यवान के साथ जंगल की ओर चल दी। सत्यवान जब लकड़ी काटने लगा तो एकदम उसकी तबीयत खराब होने लगी तब वह सावित्री से बोला मेरी तबियत खराब हो रही है अब मई बैठ भी नहीं सकता हू तब सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया। पुनः वह नारदजी की बात स्मरण कर मन ही माह दिन व समय का विचार करने लगी। वैसे ही वहां एक भयानक पुरुष दिखाई दिया जिसके हाथ में पाश था। वे यमराज थे। सावित्री पूछी आप कौन है तब यमराज ने कहा मैं यमराज हूं। इसके बाद यमराज ने सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी। तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं वापस नहीं लौटा सकता हू पतिव्रता स्त्री होने के कारण मझसे मनचाहा वर मांग लो। सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु। उसके बाद भी सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे पुनःसमझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका पूरा राज्य वापस मिल जाए। उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। यमराज ने कहा तथास्तु। पुनः सावित्री उनके पीछे-पीछे चलने लगी यमराज ने कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो। तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। यमराज ने कहा तथास्तु। यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढने लगे। सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तब सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं। आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आशीर्वाद दिया है। तब यमराज ने सत्यवान के प्राण वापस लौटा दिए और जीवित कर दिये। उसके बाद सावित्री जब सत्यवान के शव के पास पहुंची तो कुछ ही देर में सत्यवान के शव में चेतना आ गयी और सत्यवान जीवित हो उठा। उसके बाद सावित्री ने अपने को पति को पानी पिलाया व स्वयं पानी पीकर अपना व्रत तोड़ा।

Monday, May 18, 2020

शुद्ध आहार से होती है अन्तःकरण की शुद्धि

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)




भारतीय संस्कृति में अध्यात्म मार्ग का अवलम्बन करने वाले योगी-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिये सात्विक अर्थात शुद्ध आहार की योजना है। भोजन हमारे मन, बुद्धि, अन्तःकरण के निर्माण में सहायक है। हम जैसा कुछ खाते हैं, वैसा ही मन बनता है। खाये हुये से ही रक्त की उत्पत्ति होती है। इसमें वे ही गुण आते हैं, जो हमारे भोजन के थे। सरलता, शान्ति, सहानुभूति, क्रोध, कपट, घृणा, मृदुता आदि सब स्वभाव के गुणदोष भोजन पर ही निर्भर है। जो व्यक्ति उत्तेजक भोजन करते हैं, वे संयम से नहीं रह पाते। वे शुद्ध बुद्धि का विकास कैसे कर पायेंगे। राजसी आहार करने वाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि उत्तेजक भोजन करने पर भजन-पूजन, स्वाध्याय या संयम सम्भव नहीं। भोजन हमारे संस्कार बनाता है। इसी के द्वारा हमारे विचार बनते हैं। भोजन यदि सात्विक है तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार सात्विक और पवित्र होंगे। इसके विपरीत उत्तेजक या राजसी भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध और विलासी होंगे। जिन लोगों में मांस, अंडे, लहसुन, प्याज, मदिरा, तम्बाकू आदि प्रयोग किया जाता है, वे अक्सर विलासी विकारमय और गन्दे विचारों से भरे होते हैं। उनकी कर्मेन्द्रियां उत्तेजक रहती हैं, मन कुकल्पनाओं से परिपूर्ण रहता है। थोड़े से लालच में अन्तर्द्वन्द्व से परिपूर्ण हो जाता है। 

पशुओं में बैल, भैंस, गधे, घोड़े, हाथी, बकरी आदि शारीरिक श्रम करने वाले पशुओं का मुख्य भोजन घासपात, हरी सब्जियां या अनाज होता है। परिणामस्वरूप वे सहनशील, शान्त, मृदु होते हैं। इसके विपरीत शेर, चीते, भेड़िये, बिल्ली आदि मांसभक्षी चंचल, उग्र, क्रोधी, उत्तेजक स्वभाव के हो जाते हैं। घासपात और मांस के भोजनक का यह प्रभाव है। इसी प्रकार उत्तेजक भोजन करने वाले व्यक्ति कामी, क्रोधी, झगड़ालू, अशिष्ट होते हैं। विलासी भोजन करने वाले आलस्य में डूबे रहते हैं, दिन-रात में 10-12 घंटे वे सोकर ही नष्ट करते रहते हैं। सात्विक भोजन करने वाले हलके, चुस्त, अच्छे कार्यों के प्रति अपनी रूचि दिखाते हैं। कम सोते हैं। मधुर स्वभाव के होते हैं। उनमें कामवासना अधिक नहीं सताती। उनके आन्तरिक अवयवों में विष-विकार एकत्रित नहीं होते।
भोजन से शरीर का छीजन, जो हर समय होता रहता है, दूर होता है। यदि यह छीजन दूर न होगा तो कोष दुर्बल हो जायेंगे और चूंकि शरीर कोषों का एक समूह है, कोष के दुर्बल होने से सम्पूर्ण शरीर दुर्बल हो जायेगा। कोषों को वे ही पदार्थ मिलने चाहिए, जिनकी उन्हें आवश्यकता हो, जैसे गरमी तथा स्फूर्ति देनेवाले, उनको पुष्ट करने और अच्छी हालत में रखने वाले पदार्थ। कोषों के अंशों के टूटने-फूटने से शरीर में बहुत से विषैले अम्ल पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इनको दूर करने के लिये क्षार बनाने वाले पदार्थ (पक्के मीठे फल, खट्टे फल, नीबू, आम, अनानास या प्राकृतिक ढंग से पकायी गयी साग-सब्जी, दही, छाछ, साग, घी खाने चाहिए)।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न करने वाले भोजनों की ओर संकेत किया है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा, उसका आचरण भी वैसा ही होता जाता है। भोजन से हमारी इन्द्रियां और मन संयुक्त हैं। इसी बात को छान्दोग्योपनिषद भी इस प्रकार कहता है ‘‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः, सत्वशुद्वौ धु्रवा स्मृतिः, स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।’’ अर्थात आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है। सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है, फिर पवित्र और निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुलभता से प्राप्त होती है।
अध्यात्म जगत में उपवास का बहुत ही महत्व है। अधिक खाये हुये अन्न पदार्थ को पचाने और उदर को विश्राम देने के लिये हमारे ऋषियों ने उपवास की योजना की है। चित्तवृत्तियां भोजन में लगी रहने से किसी उच्च विषय पर ध्यान एकाग्र नहीं होता। सात्विक अल्पाहार करने वाले व्यक्ति आध्यात्म मार्ग में दृढ़ता से अग्रसर होते हैं। जो अन्न बुद्धिवर्धक हो, वीर्यरक्षक हो, उत्तेजक न हो, कब्ज न करे, रक्त दूषित न करे, सुपाच्य हो इस प्रकार का भोजन सत्वगुण युक्त कहा जाता है। अध्यात्म जगत में उन्नति करने वालों के लिये पवित्र विचार और अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले तथा ईश्वरीय तेज उत्पन्न करने वाले अभ्यासियों को सात्विक आहार लेना चाहिए।
जितना ही अधिक अन्न पकाया जाता है, उतना ही उसके शाक्ति-तत्व विलीन हो जाते हैं। स्वाद चाहे बढ़ जाये, किन्तु उसके विटामिन पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। अलग-अलग रीतियों से उबालने, भूनने या तेल में पूड़ी-कचौड़ी की तरह तलने से आहार निर्जीव होकर राजसी-तामसी बन जाता है। विलायती दूध, सूखा दूध, रासायनिक दवाइयां, बाजारू मिठाइयां निर्जीव होकर अपना शक्ति-तत्व नष्ट कर देते हैं। भोजन में सुधार करना शारीरिक कायाकल्प करने का प्रथम मार्ग है। जो व्यक्ति जितनी जल्दी से गलत भोजनों से बचकर सही भोजन करने वाले हो जायेंगे, उनके शरीर दीर्घकाल तक सुदृढ़, पुष्ट और स्फूर्तिमान बने रहेंगे। क्षणिक जीभ के सुख को न देखकर, भोजन से शरीर, मन और आत्मा का जो संयोग है, उसे सामने रखना चाहिए। जब तक अन्न शुद्ध नहीं होगा, अन्य धार्मिक, नैतिक या सामाजिक कृत्य सफल नहीं होंगे। अन्न शुद्धि में सबसे बढ़कर आवश्यक है कि शुद्ध कमाई की सम्पत्ति का अन्न। जिसमें झूठ, कपट, छल, घूस, अन्याय, वस्तुओं में मिलावट आदि न हो। इस प्रकार की आजीविका से कमाये गये धन से जो अन्न प्राप्त होता है वही शुद्ध अन्न है। इसलिए व्यापार, नौकरी या अन्य पेशे में से यह पाप निकलना जरूरी है।

हम जो भोजन खाते हैं, केवल उसी के द्वारा हमारे शरीर का पोषण और नया निर्माण नहीं होता, अपितु भोजन करते समय हमारी जो मनःस्थिति होती है, हमारा मन जैसे सूक्ष्म प्रभाव फेंकता है और जिन संस्कारों या वातावरण में हम भोजन ग्रहण करते हैं, वे मनोभाव, विचार एवं भावनाएं अलक्षितरूप मे भोजन और जल के साथ हम ग्रहण करते हैं। वे हमारे शरीर में बसते और मासं, रक्त, मज्जा आदि का निर्माण करते हैं। इतः भोजन करते समय हमारे कैसे विचार और भावनाएं हैं, इस तत्व पर हमारे ग्रन्थों में बहुत महत्व दिया गया है। भोजन करते समय की आन्तरिक मनःस्थिति की स्वच्छता आवश्यक मानी गयी है। जैसे अच्छी-बुरी हमारी मनःस्थिति होगी, उसका वैसा ही प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ेगा।

यदि भोजन करते समय मन की स्थिति दूषित है तो अच्छे से अच्छा भोजन भी विकार और विषमय हो जाता है। क्रोध, उद्वेग, चिन्ता, चिड़चिडे़पन, आवेश आदि की उद्विग्न मनःस्थिति में किया हुआ भोजन विषैला हो जाता है। यह पुष्ट करने के स्थान पर उल्टा शरीर को हानि पहुंचाता और पाचन क्रिया को विकारमय कर देता है। क्रोध की स्थिति का भोजन न ठीक से चबाया जाता है और न ही सही से पचता है। इसी प्रकार चिन्तित मनःस्थिति को भोजन नसों में घाव उत्पन्न कर देता है। हमारी कोमल पाचन नलिकाएं शिथिल हो जाती हैं। इसके विपरीत शान्त और प्रसन्न चित्त मुद्रा में खाया गया अन्न शरीर और मन के स्वास्थ्य पर जादू जैसा गुणकारी प्रभाव डालता है। अन्तःकरण की शान्त सुखद वृत्ति में किये हुये भोजन के साथ-साथ हम प्रसन्नता, सुख-शान्ति और उत्साह की स्वस्थ भावनाएं भी खाते हैं, जिसका स्वास्थप्रद प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। आनन्द एवं प्रफुल्लता ईश्वरीय गुण हैं और क्लेश, चिन्ता, उद्वेग आसुरी प्रवृत्तियां हैं। इन दोनों प्रकार की चित्तवृत्तियों के अनुसार ही हमारा दैनिक भोजन दैवी या आसुरी गुणों से युक्त बनता है। हमारे देश में भोजन की आन्तरिक स्वच्छता को अधिक महत्व दिया जाता है। हिन्दू अपने से नीच विचारों के लोगों के हाथ का बना हुआ या उनके साथ बैठकर खाना इसलिए पसन्द नहीं करते कि उनके गुप्त और हीन विचारों प्रभावित होने से भोजन की पवित्रता नष्ट होती है। विदेशों में लोग बाहरी सफाई को ही पर्याप्त समझते हैं।

आप कभी ध्यान से देखिए कि हंसते-हंसते दूध पीने वाला शान्त, निर्दोष शिशु किस सरलता से साधारण सा दूध और मामूल अन्न खाकर और उसे पचाकर कैसा मोटा-ताजा, सुडौल, सात्विक और निर्विकार बनता जाता है। उसके मुख पर आपको सरलता दिखाई देगी। हमारे जीवन के विकास के साथ-साथ हमारे गुप्त मन का भी विकास होता रहता है और गुप्त मन हमारे शरीर में अज्ञातरूप से अनेक महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं किया करता है। इन प्रतिक्रियाओं का प्रभाव निरन्तर चलता रहता है। पोषण, मलविसर्जन, निवनिर्माण, नई शक्ति का उत्पादन, रक्त का बनना आदि सभी कार्य अन्तर्मन से होते रहते हैं।

भोजन बनाने वाले व्यक्ति का भोजन पर सर्वप्रथम प्रभाव पड़ता है। अतृप्त, भूखा, लालची, क्रोधी, हिंसावृत्तियुक्त, गंदा रसोइया अपने सम्पर्क से ही भोजन को दूषित कर देता है। एक तो वह शरीर या वस्त्रों से स्वच्छ नहीं होता और उसके शरीर या वस्त्रों की अस्वच्छता ही भोजन को दूषित कर देती है। दूसरे उसकी लालची मनोवृत्ति, स्वयं भोजन ग्रहण करने की इच्छा निरन्तर भोजन पर विषैला प्रभाव डाला करती है। बाजारू भोजन, दूकानों पर बिकनेवाली मिठाइयां, दूध आदि पर असंख्य अतृप्त भूखें व्यक्तियों की दृष्टियां पड़कर उन्हें दूषित बना देती है। अतः वे न तो पचती हैं और न शरीर को कोई लाभ ही देती हैं।

इसलिए सावधान रहिए। भोजन सात्विक वृत्ति के व्यक्ति का बनाया हुआ हो। वह तृप्त तथा स्वच्छ हो। रोगी न हो। भोजन स्वच्छ स्थान पर शान्तिपूर्वक प्रसन्न मुद्रा से गहण करें। जो कुछ मिल जाये उसे भ्रवान का प्रसाद मानकर ग्रहण कर लीजिए। इस प्रकार मन में शुभ भाव लाकर ब्रह्मार्पण करके जो भोजन किया जाता है, वह मन में शुद्ध, सात्विक संस्कार उत्पन्न करता है। भोजन में ईश्वरीय तत्वों का समावेश करने से रूखा-सूखा भोजन भी शक्ति उत्पन्न करता है। 
क्या आपके घर में वास्तुदोष है?

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इंडेविन टाइम्स)





यदि आपके घर में वास्तुदोष है तो इसे दूर कर मंगलमय वातावरण बना सकते हैं। प्रस्तुत है कुछ प्रबल वास्तु दोष नाशक आजमाये हुये प्रयोग जिनको करके आप अपने घर में विपुल लक्ष्मी एवं शान्ति का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
1 घर में अखंड रूप से 9 बार श्रीरामचरितमानस का पाठ करने से वास्तुदोष का निवारण होता है।
2 हाटकेश्वर क्षेत्र में वास्तुपद नामक तीर्थ के दर्शन मात्र से ही वास्तुजनित दोषों का निवारण होता है।
3 मुख्य द्वार के ऊपर सिंदूर से नो अंगुल लम्बा नै अंगुल चौड़ा स्वास्तिक का चिन्ह बनायें और जहां-जहां भी वास्तु दोष है वहां इस चिन्ह का निर्माण करें वास्तुदोष का निवारण हो जाता है।
4 रसोई घर गलत स्थान पर हो तो अग्निकोण में एक बल्ब लगा दें और सुबह-शाम अनिवार्य रूप से जलायें।
5 द्वार दोष और वेध दोष दूर करने के लिये शंख, सीप, समुद्र झाग, कौड़ी लाल कपड़े में या मोली में बांधकर दरवाजे पर लटकायें।
6 घर के दरवाजे पर घोड़े की नाल (लोहे की) लगायें। यह अपने आप गिरी होनी चाहिए।
7 घर के सभी प्रकार के वास्तु दोष दूर करने के लिये मुख्य द्वार पर एक ओर केले का वृक्ष दूसरी ओर तुलसी का पौधा गमले में लगायें।
8 दुकान की शुभता बढ़ाने के लिये प्रवेश द्वार के दोनों ओर गणपति की मूर्ति या स्टिकर लागायें। एक गणपति की दृष्टि दुकान पर पडे़गी, दूसरे गणपति की बाहर की ओर।
9 यदि दुकान में चोरी होती हो या अग्नि जलती हो तो भौंम यंत्र की स्थापना करें। यह यंत्र पूर्वोत्तर कोण या पूर्व दिशा में, फर्श से नीचे दो फिट गहरा गढ्ढा खोदकर स्थापित किया जाता है।
10 यदि प्लाट खरीदते हुये बहुत समय हो गया हो और मकान बनने का योग ना आ रहा हो तो उस प्लाट में अनार का पौधा पुष्य नक्षत्र में लगायें।
11 एक घर में 9 दिन तक अखंड कीर्तन करने से वास्तुजनित दोषों का निवारण होता है।
12 अगर आपका घर चारों ओर से बड़े मकानों से घिरा हो तो उनके बीच बांस का लम्बा फ्लैग लगायें या कोई बहुत ऊंचा बढ़ने वाला पेड़ लगायें।
13 फैक्ट्री, कारखाने के उद्घाटन के समय चांदी का सर्प पूर्व दिशा में जमीन में स्थापित करें।
14 अपने घर के उत्तर के कोण में तुलसी का पौधा लगायें।
15 हल्दी को जल में घोलकर एक पान के पत्ते की सहायता से अपने सम्पूर्ण घर में छिडकाव करें। इससे घर में लक्ष्मी का वास तथा शान्ती भी बनी रहती है।
16 अपने घर में मन्दिर में घी का एक दीपक नियमित जलायें तथा शंख की ध्वनि तीन बार सुबह और शाम के समय करने से नकारात्मक ऊर्जा घर से बाहर निकलती है।
17 घर में सफाई हेतु रखी झाडू को रास्ते के पास न रखें। यदि झाडू के बार-बार पैर पर स्पर्श होता है, तो यह धन-नाश का कारण होता है। झाडू के ऊपर कोई वजनदार वस्तु भी न रखें।
18 अपने घर में दीवारों पर सुन्दर, हरियाली से युक्त और मन को प्रसन्न करने वाले चित्र लगायें। इससे घर के मुखिया को होने वाली मानसिक परेशानियों से मुक्ति मिलती है।
19 वास्तुदोष के कारण यदि किसी सदस्य को घर में रात को नींद नहीं आती या स्वभाव चिड़चिड़ा रहता हो, तो उस दक्षिण दिशा की तरफ सिर करके शयन करायें। इससे उसके स्वभाव में बदलाव होगा और अनिद्रा की स्थिति में भी सुधार होगा।
20 अपने घर के ईशान कोण को साफ सुथरा और खुला रखें। इससे घर में शुभत्व की वृद्धि होती है।
21 घर के उत्तर पूर्व में कभी भी कचरा इकट्ठा न होने दें और न ही इधर भारी मशीनरी रखें।
बड़ा मंगल पर विशेष
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)




उत्तर प्रदेश की राजधानी है लखनऊ। कहते हैं कि ये नगरी श्रीराम के भाई लक्ष्मण द्वारा बसाई गयी है। यहां आपको संस्कृति के विविध आयाम देखने को मिलेगे। यहाँ पर परम्परा के रूप में ज्येष्ठ मास के प्रथम मगलवार को बड़ा मंगल के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस परम्परा की शुरूआत लगभग 400 वर्ष पूर्व मुगल शासनक ने की थी। ज्येष्ठ माह में पड़ने वाले जितने भी मंगल आते हैं वे सभी उतने ही उल्लास से मनाये जाते है। यह पर्व केवल सनातन धर्मावलम्बियों का ही नहीं है अपुति सभी धर्मों के लिये महत्त्वर्पूण होता है और समस्त मतावलम्बी पूर्ण उत्साह से इस पावन परम्परा का निर्वाह करते हैं।
इसे मनाने के पीछे दो ऐतिहासिक कारण है। पहला कारण यह है कि नवाब मोहमद अली शाह का बेटा एक बार गंभीर रूप से बीमार हुआ। उनकी बेगम रूबिया ने उसका कई जगह इलाज करवाया किन्तु वह ठीक नहीं हुआ। बेटे की सलामती की दुआ मांगने वह अलीगंज के पुराने हनुमान मंदिर आयी। पुजारी ने बेटे को मंदिर में ही छोड़ देने कहा बेगमरूबिया रात में बेटे को मंदिर में ही छोड़ गयीं। दूसरे दिन रूबिया को बेटा पूरी तरह स्वस्थ मिला। तबरूबिया ने इस पुराने हनुमान मंदिर का र्जीणोद्धार करवाया। र्जीणोद्धार के समय लगाया गया प्रतीक चांद तारा का चिन्ह आज भी मंदिर के गुंबद पर चमक रहा है। मंदिर के र्जीणोद्धार के साथ ही मुगल शासक ने उस समय ज्येष्ठ माह में पड़ने वाले मंगल को पूरे नगर में गुड धनिया, भुने हुए गेहूं में गुड मिलाकर बनाया जाने वाला प्रसाद बंटवाया और प्याऊ लगवाये। तब से इस बडे मंगल की परम्परा की नींव पडी।
दूसरा एतिहासिक कारण यह है कि अवध के तृतीय नवाब शुजाउद्दौला की दूसरी बेगम जनाब ए आलिया को कई वर्ष तक सन्तान नहीं हुई। कई हकीमों वैद्यों और चिकित्सकों की चिकित्सा का जब कोई प्रभाव होता न दिखा तो बेगम पीर, मौलवियों और मजारों पर जाने लगीं। इससे भी उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ, उनकी बेचैनी बढ़ती ही गई। नवाब शुजाउद्दौला भी बहुत चिन्तित थे। एक बार नवाब साहब ने अपने दरबार में र्कायरत एक ब्राह्मण सचिव से अपना दुख व्यक्त किया। दुख को सुनकर ब्राह्मण ने किसी योग्य ज्योतिषी से मिलने की सलाह दी और कहा कि इश्वर चाहेंगे तो अवश्य कोई मार्ग मिल जायेगा। नवाब साहब ने उस ब्राह्मण की बात मानी और एक पाण्डेय कुल के श्रेष्ठ ज्योतिर्विद का पता लगवा कर उनसे संर्पक किया। पाण्डेय जी ने बहुत परिश्रम कर के काल गणना के द्वारा नवाब और उनकी बेगम की जन्मपत्रिका र्निमित की और फिर उसका अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने एक अनुष्ठान्न करने के लिए नवाब को समझाया और संकल्प कराया तथा यह भी कहा कि मै जब तक अनुष्ठान करूं तब तक आप रोजाना बेगम साहिबा के साथ हनुमान मन्दिर में जाकर र्दशन और पूजन प्रतिदिन करिये। अनुष्ठान काल में नवाब साहब प्रतिदिन मन्दिर जाते रहे। एक ही माह पश्चात उनकी बेगम र्गभवती हुईं। नवाब साहब की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। ज्योतिर्विद पाण्डेय जी को बुला कर उन्होंने उन्हें बहुत सम्मानित किया और खूब दान-दक्षिणा प्रदान की।
नवाब साहब की बेगम को एक दिन स्वप्न में एक बन्दर के र्दशन हुए, जिसने मनुष्य की वाणी में उनको बताया कि यह नगर भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण द्वारा बसाया गया है इसकी रक्षा राम के सेवक हनुमान जी करते हैं। तुम्हारे भाग्य में सन्तान सुख नहीं था फिर भी हनुमान जी की कृपा से तुम्हे सन्तान प्राप्त होने जा रही है। तुम हनुमान जी के एक मन्दिर का निर्माण करवाओ। स्वप्न में उस बन्दर ने यह भी र्निदेश दिया कि कल सुबह तुम और नवाब दोनों हाथी पर बैठ कर नगर के भ्रमण के लिए निकलो। जहां पर हाथी रुक जाये उसी स्थान पर विशाल और भव्य मन्दिर का र्निमाण करवाओ। प्रातः को बेगम ने नवाब साहब को बुलवाकर स्वप्न की बात बताई और नगर भ्रमण की इच्छा व्यक्त की। दोनों दम्पत्ति हाथी पर सवार होकर चले। चलते-चलते हाथी एक स्थान पर रूक गया। जिस स्थान पर हाथी रूका आज वो र्वतमान में अलीगंज स्थल है। हांथी पर बैठे महावत ने बहुत प्रयत्न किया किन्तु हाथी वहां से आगे नहीं बड़ा। नवाब साहब ने उसी स्थल को अभीष्ट मान कर हनुमान जी का मन्दिर बनवाने की आज्ञा दे दी। वह मन्दिर आज भी अपने उसी रूप में लखनऊ के अलीगंज क्षेत्र में देखा जा सकता है। उचित समय आने पर ज्येष्ठ मास के प्रथम मंगल को नवाब साहब को एक सन्तान कि प्राप्ति हुई। उसी दिन से लखनऊ में बड़ा मंगल मनाने की परम्परा स्थापित हुई। एैसी मान्यता है कि जो ज्येष्ठ मास के किसी भी मंगल को हनुमान जी के किसी भी मन्दिर में र्दशन करेगा उसकी इच्छा अवश्य र्पूण होगी।
सारे लखनऊ में इस दिन जगह-जगह भंडारे होते हैं, लोग प्याऊ लगवाते हैं और घरो में हनुमान जी का गुणगान किया जाता है। इसमें सभी धर्मों के लोग बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और भेदभाव को भुलाकर भंडारों में प्रसाद ग्रहण करते हैं। धार्मिक मान्यता है कि मेष लग्न में हनुमान जी का जन्म हुआ था और इस दौरान उनकी पूजा-अर्चना करने से विशेष लाभ होता है।
आज के युग में हनुमानजी की जप आराधना करने के लिए अनेक सिद्ध मंत्र और चालीसा का पाठ बताया गया है। हनुमान जी की उपासना से बुद्धि, यश, शौर्य, साहस और आरोग्यता में वृद्धि होती है। राम उनके आर्दश देवता हैं। हनुमानजी जहां राम के अनन्य भक्त हैं, वहां रामभक्तों की सेवा में भी सदैव तत्पर रहते हैं। यदि आप चाहते हैं कि आपके जीवन में कोई संकट न आए तो नीचे लिखे मंत्र का जप अवश्य कर के देखें। प्रति मंगलवार को भी इस मंत्र का जप कर सकते हैं।
मंत्र- ऊँ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा
जप की विधि- सर्वप्रथम स्नान आदि करने के बाद अपने माता-पिता, गुरु, इष्ट व कुल देवता को नमन कर कुश का आसन ग्रहण करें। आपको बता दें कि पारद हनुमान प्रतिमा के सामने इस मंत्र का जप करेंगे तो विशेष फल मिलता है। जप के लिए लाल हकीक की माला का प्रयोग करेंगे तो हितकर रहेगा।
राजधानी के हनुमान सेतु मंदिर, अलीगंज स्थित नया हनुमान मंदिर, पक्का पुल स्थित अहिमर्दन पातालपुरी, अमीनाबाद स्थित महावीर मंदिर और हजरतगंज स्थित दक्षिणमुखी सहित सभी मंदिरों में सुबह से ही पूजा अर्चना के लिए भक्तों की भीड़ जमा हाने लगती है। मंदिरों में चारों तरफ हनुमान चालीसा, सुंदरकांड, बजरंगबाण के पाठ सहित बजरंग बली की आरती के स्वर गूंजते हैं। हनुमान सेतु मंदिर के पुजारी ने बताया कि ज्येष्ठ माह के चारों बड़े मंगल पर बजरंगबली की अपने भक्तों पर खास कृपा होती है। सच्चे दिल से दरबार में आकर शीश झुकाने से अंजनि पुत्र अपने भक्तों को सारे कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं।

Saturday, May 16, 2020

 वैदिक साहित्य में नारी का महत्व


आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी

‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)


नर की शक्ति है नारी। नारी के द्वारा ही नार शक्तिमान होता है। नारी अक्षय शक्ति का स्रोत है। शक्ति के बिना शक्तिमान नहीं, नारी के बिना नर का अस्तित्व नहीं। नारी के जीवन-विकास पर नर के जीवन का उत्कर्ष अवलम्बित है। नर नारी जीवन का आधार है, दोनों एक ही अस्तित्व के ऐसे परस्पर सम्बद्ध पहलू हैं। जिनमें एक की उपेक्षा करने से दूसरे की हानि अवश्यम्भावी है। दोनों के समुचित और सन्तुलित विकास पर ही समाज की स्वस्थता निर्भर करती है। अतएव नर के प्रश्न के समान ही नारी का प्रश्न समाज का एक प्रमुख प्रश्न है। नारी को सम्प्रदाय के रूप में नर की प्रतिद्वन्द्विता में खड़ा करने का आन्दोलन पागलपन के सिवा और कुछ नहीं है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि नारी को दासत्व में रखा जाये और ताड़ना का अधिकारी बनाया जाये। नारी पूज्या है, वह जननी है।
जिस प्रकार महामाया अपने चिद्विलास में विश्वब्रह्माण्ड को व्यक्त करती है, उसी प्रकार नारी अपने शिशु के चित् में व्यक्त जगत की छाया डालती है। जीवन के अरूणोदय में नारी ही जननी के रूप में सात्विक, राजसिक और तामसिक संस्कारों का जो बीज बालक के जीवन क्षेत्र में वपन करती है, बड़ा होने पर वही बीज पुष्पित और पल्लवित होकर जगत जीवन का कारण बनता है। नारी स्रष्टि करती है, उसका पालन करती है और अन्ततः प्रलय के कारणों का संकलन भी उसी के द्वारा होता है। अतः समाज में सुव्यवस्था-दुर्वव्यवस्था, शान्ति-अशान्ति, धर्माधर्म आदि द्वन्द्वों के निर्माण में मूलतः नारी की सहज लीला ही काम करती है। नर-नारी की सृष्टि के साथ माया की क्रीड़ा प्रारम्भ होती है। नर और नारी का कार्य-कारणभाव बीज और वृक्ष के समान अनादि है। आइये अब अपने मूल विषय पर चलें................
कर्म, उपासना और ज्ञान- ये वेदों के मुख्य विषय हैं। जो समस्त मानव जाति के धर्म हैं। इनमें केवल स्त्री अथवा केवल पुरूष को लक्ष्य करके अधिक बातें नहीं कही गयीं हैं। जो कुछ है, सबके लिये है। वेद ज्ञान के भण्डार है। उस भण्डार में खोज करने पर नारी के महत्व को प्रकाशित करने वाले विषय भी अवश्य दृष्टिगोचर होते हैं। वेद चार हैं ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद)। इनमें से ऋग्वेद में ही कुछ ऐसी बातें पायी जाती हैं, जो प्राचीन काल से चली आनेवाली कार्यनारी की सभ्यता और संस्कृति पर प्रकाश डालती हैं। कुछ विदूषी नारियां अपने सद्गुणों के कारण तथा मन्त्रों का साक्षात्कार करने वाली ऋषिकाओं के रूप में प्रतिष्ठित हुई हैं। यजुर्वेद में नारी के विषय में बहुत कम चर्चा है। सामवेद में तो है ही नहीं। अथर्ववेद में चर्चा अवश्य है, पर ऋग्वेद से अधिक नहीं। कुछ महिमामयी नारियां मन्त्र-द्रष्ट्रि ऋषिकाओं अथवा देवियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। जैसे धन की देवी लक्ष्मी, शक्ति की दुर्गा और विद्या की सरस्वती हैं, वैसे ही अदिति, उषा, इन्द्राणी, इला, भारती, होला, निनीवाली, श्रद्धा, पृश्नि आदि वैदिक देवियां कई तत्वों की अधिष्ठात्री हैं। इन्हें कहीं देवमाता और कही देवकन्या कहा गया है। इन सबमें अदिति देवी का उल्लेख सबकी अपेक्षा ज्यादा है।
ऋग्वेद में कई जगहों पर सीता की स्तुति देवी कहकर की गयी है- ‘‘सौभाग्यवती सीता! हम तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम हमें धन और सुन्दर फल दो। पूषा सीता को नियमित करें’’ (4/57/6-7)। उषा का अर्थ प्रभात है। किन्तु ऋग्वेद में लगभग 300 बार उषा का ‘‘देवी’’ रूप में स्तवन किया गया है। सूक्त के सूक्त उषादेवी की स्तुति से भरे पड़े हैं। वहां इनके लिये सत्यमनीषिणी और दीप्तिमती आदि गुणबोधक विशेषण दिये गये हैं। सूर्य की पुत्री का नाम सूर्या है। इन्हें ऋग्वेद में देवी और ऋषिका भी कहा गया है। सूर्या ने दशम मण्डल के 85 वें सूक्त का साक्षात्कार किया था। सूर्या के विवाह का जो वर्णन उपलब्ध होता है, उससे कई प्रचलित प्रथाओं का परिचय मिलता है। जो आज भी कुछ न कुछ पाई जाती हैं। इन्द्राणी इन्द्रदेव की पत्नी हैं। इनका एक नाम शची भी है। ऋग्वेद के दशम मण्डल, सूक्त 145 की ऋषिका भी ये ही हैं। 159वें सूक्त की ऋषिका प्रलोमपुत्री शची कही गयी हैं। वाक भी एक देवी का नाम है। इन्हें अन्न-जल की दात्री एवं हर्षप्रदायिनी माना गया है। ये अम्भृण ऋषि की पुत्री हैं। दशम मण्डल के 125वें सूक्त का प्रथम दर्शन इन्होंने ही किया है। वैदिक देवी सूक्त की ऋषिका ये ही हैं।
सरस्वती ज्ञान की देवी मानी गयी हैं (1/3/10-12)। इनके द्वारा कई मन्त्रों का आविष्कार भी हुआ है। इसी प्रकार भारती, होला, सरण्यू, सिनीवाली, राका, गुंगु, असु तथा श्रद्धा आदि देवियों की महिमा का भी जगह-जगह वर्णन है। आर्य लोग नारियों का बहूत आदर करते थे। उनके विवाह का प्रयोजन था नारी के साथ रहकर धर्मानुष्ठान और यज्ञ-सम्पादन। घरों में गोरक्षा का मुख्य कार्य इन्हीं के हाथ में था। इन बातों का समर्थक कई मन्त्र उपलब्ध होते हैं। (2/3/6 तथा 2/38/4 आदि)। वृद्धावस्था तक नारी अपने घर में प्रभुता रखती थी (10/85/30)। पशु-रक्षिणी और वीरप्रसविनी नारी का उस समय विशेष आदर था। ऐसी नारी की प्राप्ति के लिये देवताओं से प्रार्थना की जाती थी (10/85/44)। इस प्रकार आर्य जाति में प्राचीन काल से ही नारी का सदा समादर होता आया है। अन्य जातियों के प्राचीन इतिहास में यह बात नहीं पायी जाती। कई जातियां तो ऐसी हैं, जो स्त्रियों को पैर की जूती समझती थीं। उनके यहां स्त्रियों के खरीदने-बेचने की भी जघन्य प्रथा थी। एथेंस और स्पार्टा में स्त्रियों की जैसी नारकीय दशा थी, वह इतिहास के विद्यार्थियों से छिपी नहीं है।
ऋग्वेद के अनुशीलन से पता चलता है कि आर्यों में स्त्री-शिक्षा का अच्छा प्रचार था। स्त्रियां वेदाध्ययन करतीं और कवितायें भी बनाती थीं। वे अपनी त्याग-तपस्या से ऋषिभाव को भी प्राप्त होतीं और मन्त्रों का साक्षात्कार करती थीं। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों का आविष्कार स्त्रियों द्वारा ही हुआ है। ब्रह्मवादिनी घोषा द्वारा साक्षात्कृत (दशम मण्डल) के 39वें और 40वें सूक्तों में कुछ ऐसे मन्त्र हैं, जिनसे ज्ञात होता है आर्यलोग विवाह के के समय वर और कन्या को कई वस्त्राभूषणों से विभूषित करके बहुत सम्मान करते थे। लोग स्त्री की प्राण-रक्षा और मर्यादा-रक्षा के लिये भारी से कष्ट सहन करने से भी पीछे नहीं हटते थे। स्त्रियां यज्ञ कर्म में नियुक्त होती थीं। सूर्या के द्वारा आविष्कृत मन्त्रों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि स्त्री अपने पति के अधीन रहती थी, परन्तु घर के अन्य सब पदार्थों पर उसी का प्रभुत्व रहता था।
कुछ मन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय स्त्रियां संगीत आदि में भी निपुण होती थीं। पति के साथ स्त्रियां भी युद्ध में जाती थीं। विश्यला अपने पति के साथ युद्ध में गयी थी और वहां उसकी टांग टूट गयी थी। जिसे अश्विनी कुमारों ने ठीक किया था। नमुचि के पास भी स्त्रियों की सेना थी। वृत्रासुर के साथ उसकी माता दनु भी युद्ध में गयी थी, जो इन्द्र के द्वारा मारी गयी। वैदिक साहित्य से यह भी ज्ञात होता है कि पहले की स्त्रियां वेद पढ़तीं और यज्ञोपवीत भी धारण करती थीं। सुलभा, मैत्रेयी और गार्गी आदि की विद्वता प्रसिद्ध है। वाल्मीकिरामायण (5/15/48) के अनुसार सीताजी वैदिक प्रार्थना करती थीं। कौसल्या के विषय में भी ऐसा वर्णन है कि वे मन्त्रपाठपूर्वक अग्निहोत्र करती थीं।
वीरमित्रोदय ग्रन्थ के संस्कार प्रकाश में स्त्रियों के दो भेद किये गये हैं। एक ब्रह्मवादिनी और दूसरी सद्योद्वाहा। इनमें - ‘ब्रह्मवादिनीनामग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भैक्षचर्या’- ब्रह्मवादिनी स्त्रियों को यह अधिकार है कि वे अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षा ग्रहण करें।’ यमस्मृति ग्रन्थ में कहा गया है- ‘पूर्वकाल में कुमारियों का उपनयन, वेदारम्भ तथा गायत्री-उपदेश होता था। परन्तु उनके गुरू या अध्यापक केवल पिता, चाचा अथवा बड़े भाई ही होते थे। दूसरे किसी को यह अधिकार नहीं था।
कई वेदमन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि स्त्रियां सुन्दर वस्त्र पहनती थीं, सूती वस्त्र पहनती और बुनती भी थीं। ऊनी वस्त्र भी पहनावे में था। हाथों में कड़ा पहनने की प्रथा थी। आभूषण, आयुध, माला, हार, वलय आदि सुवर्ण के बनते थे। लोह और सोने के घर बनने का भी वर्णन मिलता है (7/3/7) और (7/15/4)। हजार दरवाजे वाले विशाल भवन बनाये जाते थे (7/28/5)। द्वार पर द्वारपाल रखा जाता था (2/15/9)। एक हजार खम्भोवाले दुमंजिले मकान बनाये जाते थे (5/62/6)। कुछ मन्त्रों से स्वयंवर प्रथा का भी पता चलता है। एक मन्त्र में कहा गया है- ‘पति स्त्री के वस्त्र को ओढ़े, अन्यथा श्री नष्ट हो जाती है।’ (10/85/30)। हिन्दू धर्म में पति-पत्नी एक दूसरे के सखा और सहधर्मी है। दोनों का समान स्थान है। कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं है। सप्तपदी के विधान द्वारा नव-दम्पति के इसी सख्यभाव को सुदृढ किया जाता है। 10/85/42 में कहा गया है- ‘तुम दोनों दम्पति कभी एक दूसरे से अलग न होना।’ 43वें मन्त्र में पति का कथन है- ‘प्रजापति हमें सन्तति दें, अर्यमा बुढ़ापे तक हमें साथ रखें। वधू! तुम मंगलमयी होकर पति-गृह में रहो। घर के मनुष्यों और पशुओं के लिये कल्याणकारिणी बनो।’ फिर परमात्मा से प्रार्थना की जाती है-
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कुरू।
दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि।।
‘परमात्मन! इस वधू को सुयोग्य पुत्रवाली तथा सौभाग्यवती बनाओ। इसके गर्भ में दस पुत्रों को स्िापित करो। इसके दस पुत्र और ग्यारहवें पति-सब मौजूद रहें।’ तत्पश्चात वधू को आशीर्वाद मिलता है-
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्रश्वां भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु।।
‘वधू! तुम घर में सास, ससुर, ननद और देवर- सबके हृदय की महारानी बनो। सबको अपने प्रेम, सेवा और सद्व्यवहार से जीत लो।’
इन आदर्शों का पालन वधू करती थी। वर्तमान युग में भी विवाह के समय ये शिक्षाएं दी जाती हैं। पर कहीं-कहीं लोग इन आदर्शों से अलग होते जा रहे हैं। अथर्ववेद में बताया गया है कि कन्या ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर तरूण पति को प्राप्त करती है- ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’ (11/5/18)। माता-पिता के निरीक्षण में कन्या पति का चुनाव करती थी (6/61/1)। कन्या की विदाई के समय उसके पिता पलंग, गद्दा और कोच आदि देते थे (14/2/31, 41)। कन्या को खजाने की संदूक आदि भी दी जाती थी (14/2/30, 4/20/3), गाय और कम्बल आदि भी कन्या को दहेज में प्राप्त होते थे। स्त्री का अपने पति पर इस लोक और परलोक में भी अधिकार माना जाता था- ‘त्वं सम्राज्ञ्येधि पत्युरस्तं परेत्य च।’ (14/1/43)
आपस्तम्ब धर्मसूत्र ग्रन्थ में लिखा है- ‘जायापत्योर्न विभागो दृश्यते। पाणिग्रहणाद्धि सहत्वं कर्मसु तथा पुण्यफलेषु द्रव्यपरिग्रहेषु च।। ‘स्त्री और पति में कोई विभाग या बटवारा नहीं देखा जाता। दोनों एक हैं, दोनों के सब कुछ एक हैं। पति जब पाणिग्रहण कर लेता है, तब से प्रत्येक कर्म में दोनों का सहयोग अपेक्षित रहता है। इसी प्रकार पुण्यफल में तथा द्रव्य संग्रह में भी दोनों का सहयोग तथा समानाधिकार है।’ इसी प्रकार वैदिक साहित्य में नारी के प्रति बड़े ही सम्मानपूर्वक भाव मिलते हैं।