परशुराम जयन्ती पर विशेष (25 अप्रैल)
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)
महापराक्रमी परशुराम की गणना सप्त चिरंजीवियों में की जाती है। भगवान विष्णु के मुख्य 10 अवतरों की चर्चा अधिक होती है। वैसे तो भगवान विष्णु के 24 अवतार प्रसिद्ध है। उन्ही 10 अवतारों में परशुराम अवतार सातवां अवतार है। एक समय सारी पृथ्वी पर क्षत्रियों का अनाचार बढ़ गया था। वे प्रजा को कई प्रकार से कष्ट पहुंचाने लगे थे। इससे दुखित होकर ब्राह्मणों ने भगवान विष्णु की कई प्रकार से स्तुति और तप किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने अन्याय और अत्याचार को मिटाने के लिये और धर्म की पुनः स्थापना के लिये वैशाख शुक्ल तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में माता रेणुका के गर्भ से अवतरित हुये। भविष्यपुराण के अनुसार- ‘स्वोच्चगैः षडग्रहैर्युक्त मिथुने राहुसंस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णों विभुः स्वयम्।।’ अर्थात जिस समय इनका जन्म हुआ उस समय सूर्य, चन्द्र, मंगल, गुरू, शुक्र एवं शनि ये 6 ग्रह उच्च राशि के थे।
परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि और माता रेणुका थीं। पुत्र इच्छा से इनकी माता और विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था। जो दैववश आपस में बदल गया। उनमें से एक प्रसाद में उत्तम ब्राह्मण उत्पन्न करने का गुण था, विश्वामित्र जी का जन्म हुआ और उसके प्रभाव से विश्वामित्र क्षत्रि कुल में जन्म लेने पर भी ब्रह्मर्षि हुये। दूसरे प्रसाद में उत्तम क्षत्रिय उत्पन्न करने का गुण था, जिससे परशुराम जी का जन्म हुआ उसके प्रभाव से ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी परशुरामजी में क्षत्रियोचित गुण विद्यमान थे। शास्त्रों का अध्ययन करने के साथ ही वे शस्त्रास्त्र चलाने का भी अभ्यास किया करते थे। शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप किया। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दो वरदान दिये। प्रथम इच्छामृत्यु का और दूसरा एक शस्त्र (परशु) जिसके हाथ में रहने तक उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। यह परशु धारण करने के पश्चात ही उनका नाम राम से परशुराम हुआ। पितृभक्ति का परिचय देते हुये, इन्होने एक बार माता का सिर भी अपने परशु से काट दिया था, जिन्हें बाद में इनके पिता ने इनकी पितृभक्ति से प्रसन्न होकर पुनः जीवित कर दिया था।
कथा है कि एक बार इनके पिता महर्षि जमदग्नि तपस्या में लीन थे। तभी सहस्त्रार्जुन ने उनका सिर काट दिया था। जब परशुरामजी को इस घटना का ज्ञान हुआ तो क्रोधित होकर उन्होने भगवान शिव के दिये अमोघ परशु से सहस्त्रार्जुन का वध कर दिया। इसके बाद जब भी राजाओं ने एकत्र होकर उन पर आक्रमण किया, तब उन्होन उनका नाश कर दिया। इस तरह 21 बार उन्होने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन किया था। स्कन्दपुराण और भविष्यपुराण के अनुसार इनकी एक जन्मपत्रिका भी प्राप्त होती है। इसके आधार पर इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन किया जा रहा है।
ज्योतिष की दृष्टि से परशुरामजी का जीवनकाल
परशुरामजी का जन्म तुला लग्न में हुआ था एवं इनकी जन्म राशि वृष है। हालांकि इनकी जन्म राशि के सम्बन्ध में कतिपय मतभेद भी है। लेकिन पर्याप्त शोधकार्य के बाद इनकी जन्मराशि वृष ही सिद्ध हुई है। इनके जन्म के समय 6 ग्रह उच्च राशि में थे (राहु-केतु की गणना नहीं की है) इसके आधार पर परशुरामजी की कुंडली में कुछ योग बन रहे हैं।
आजीवन ब्रह्मचारी रहने का योग- लग्न से सप्तम भाव में सूर्य स्थित है एवं विवाह स्थान पर शनि एवं मंगल दो पाप ग्रहों की दृष्टि है। इसके अलावा मंगल चतुर्थ भाव में स्थित होकर प्रबल मांगलिक योग बना रहा है। द्वादशेश बुध (पृथककारी) भी विवाह स्थान में स्थित है। इन योगों के कारण ही परशुरामजी ने विवाह नहीं किया था।
अजेय एवं पराक्रमी होने का योग- लग्न में उच्च राशि का शनि है। लग्नेश भी उच्च राशि का है और केन्द्र स्थानों में मंगल और सूर्य उच्च राशि में स्थित है। तृतीय स्थान में केतु पराक्रम को बढ़ा रहा है एवं तृतीयेश गुरू भी उच्च राशि स्थित है। सूर्य लग्न से तृतीय स्थान में राहु उच्चस्थ है। चन्द्र लग्न से तृतीय स्थान में गुरू उच्च राशि में है एवं लग्न से तृतीय स्थान में केतु स्थित है। ये योग उन्हें महान पराक्रमी बनाते हैं।
मातृहंता योग- लग्न से मातृ भाव में पाप ग्रह मंगल स्थित है। चन्द्र लग्न से मातृ स्थान पर द्वादशेश (चन्द्र लग्न में) मंगल की दृष्टि है। सूर्य लग्न से मातृ स्थान पर मंगल की नीच दृष्टि है। इन तीनों स्थितियों में मंगल का विशेष प्रभाव है। एवं मंगल शस्त्राघात का कारक भी है। इसी कारण परशुरामजी ने अपने परशु से माता का सिर काट दिया था। लेकिन साथ ही मातृ स्थान पर शुभ ग्रह गुरू की अमृतमयी दृष्टि भी है। इसलिये उनकी माता पुनर्जीवित हो गयीं थी।
पंचमहापुरूष योग- परशुरामजी की जन्मपत्रिका में मंगल से रूचक, शनि से शश एवं गुरू से हंस नाम पंचमहापुरूष योग बन रहे हैं। इन योगों के कारण ही उनका व्यक्तित्व और उनके कार्य इतने विशिष्ट है। मंगल जहां उन्हें अतुलनीय बल और साहस दे रहा है, वहीं शनि अनुकरणीय व्यक्तित्व दे रहा है और गुरू हंस योग बनाकर आध्यात्मिक उन्नति दे रहा है।
बुधादित्य योग- बुध सूर्य के साथ सप्तम भाव में स्थित होकर बुधादित्य योग बना रहा है। ऐसा व्यक्ति बहुत बुद्धिमान एवं सर्वत्र सम्मानित होता है।
अमल कीर्तियोग- लग्न से दशम भाव में कोई शुभ ग्रह स्थित हो, तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग में उत्पन्न जातक राज्यपूज्य, दानी, बंधुजन प्रिय, परोपकारी तथा गुणवान होता है। परशुरामजी की जन्मपत्रिका में गुरू दशम में उच्च राशि में स्थित होकर इस योग का निर्माण कर रहा है।
वेशि योग- सूर्य से द्वादश भाव में चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रह स्थित हो, तो यह योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक कुशल, दानशील, जितेन्द्रीय, बलवान एवं कीर्तिमान होता है। परशुरामजी की जन्मपत्रिका में भी इस योग का निर्माण हो रहा है। भगवान राम, भरतजी, लक्ष्मणजी, राजा हरिश्चन्द्र आदि की जन्म कुंडलियां ही परशुरामजी की कुंण्डली से तुलना कर सकती हैं।
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