Thursday, April 23, 2020

लुप्त होता गर्भाधान संस्कार



 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)


सामान्य अर्थ में संस्कार का अर्थ होता है निखारना या जिस क्रिया के द्वारा किसी भी वस्तु में निखार आये, उसे उस वस्तु का संस्कार कहा जाता है। जैसे कोई सुनार गन्दे आभूषण को चमकदार बना देता है तो उसे आभूषण का निखारना या संस्कार कहा जायेगा। पदार्थ के दोष, मैल तथा अशुद्धि को दूर कर उसमें गुणों का आधान करना ही संस्कार है। हमारे ग्रन्थों में 16 या 48 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। संस्कार निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। मानव को अपने आचरण की शुद्धता के लिये और इसी शरीर में देवत्व की प्रतिष्ठा के लिये सतत सावधान रहकर संस्कारवान बनने की जरूरत है। जिस तरह बहुत सुन्दर चित्र बनाने के लिये उसके खाके को सजाने-संवारने तथा सभी तरह से उन्नत बनाने के लिये उसमें रंग भरे जाते हैं, उसी तरह समग्र विकास के लिये, चरित्रनिर्माण के लिये विधिपूर्वक किये गये संस्कारों का होना जरूरी है।
तथ्य यह भी है कि संस्कारों द्वारा हमारा पुनर्जन्म होता है। जिस प्रकार धातुपात्रों में मलापनयन एवं गुणानुसंधान के लिये घर्षण, मार्जन आदि संस्कारों से उन्हें चमकीला एवं सुन्दर बनाया जाता है, सोने को तपाने, छीलने आदि प्रक्रिया से कुन्दन बनाया जाता है, उसी प्रकार गर्भ के मल-मूत्र आदि से संनद्ध इस शारीरिक पिण्ड को अग्न्यादि संस्कारयुक्त जातकर्म-नामकर्म, पंच्चगव्यप्रोक्षण, अवघ्राण एवं प्राशनादि संस्कारों से संस्कृत किया जाता है। गर्भादान आदि संस्कारों का तात्पर्य भी मुख्यतः मलापनयन एवं अतिशयाधानादि द्वारा आत्म शुद्धि विधान से ही है।
आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक एवं मेडिकल साइंस वाले भी अब भारतीय आर्य हिन्दू सनातन संस्कार विधि को मानने लगे हैं। हमारे यहां कर्णवेध आदि संस्कारों का मुख्य आधार लेकर एवं उसी विज्ञान की दिशा में प्रेरित होकर एक्यूप्रेशर एवं एक्यूपंक्चर चिकित्सा पद्धति विकसित की गयी है। पूर्व काल में जो लोग बालक का चूडाकरण संस्कार करते थे जिसमें बालक की चोटी ‘‘शिखा’’ रखी जाती थी। शिखा के कारण सिर एवं ब्रह्मरन्ध्र की रक्षा होती थी और शिरःशूल तथा शिरोरोग नहीं होते थे। आजकल ब्रेनहेमरेज आदि भयंकर रोग हो रहे हैं।
आज पाश्चात्य शैली के अनुकरण से हमारी संस्कृति में भारी बदलाव एवं गिरावट आई है। जिसके फलस्वरूप संस्कारों के अनुष्ठान की प्रक्रिया लुप्त सी हो रही है। 16 संस्कारों में गर्भादान संस्कार का विशेष महत्व है। जो आज के समय में पूर्णतः लुप्त सा ही है। भारतीय पंचाग में छपे गर्भाधान के मुहूर्त को देखकर विदेशी तो हंसते ही हैं, तथाकथित शिक्षित भारतीय भी इसके तात्विक रहस्य को न समझकर इसे मूर्खता बताते हैं। हमारी सनातन संस्कृति में सन्तानोत्पादन को एक पवित्र यज्ञ माना गया है। इस यज्ञ के द्वारा संतति के सभी प्रकार के विकास को संस्कारित किया जाता है। उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये गर्भाधान आदि विशेष प्रक्रिया शास्त्रों में वर्णित है। गर्भाधान भोग की स्थिति नहीं है, यह योग की स्थिति है।
भारतीय वांग्मय में पुत्रोत्पपादन के लिये एक मास के अनुष्ठानात्मक कर्मकाण्ड की चर्चा मिलती है, जिसमें पति-पत्नि यह निर्णय करते हैं कि मुझे कैसी सन्तान चाहिये। उसी के अनुसार दैवज्ञ से मुहूर्त का निर्णय कराते हैं तथा देवता और विधान का चुनाव करके एक पक्ष संयम पूर्वक रहकर देवपूजन, भजन, मनन, चिन्तन के साथ-साथ देवता से सद्गुणसम्पन्न सन्तान के लिये प्रार्थना करते हैं। दूसरे पक्ष में मौन, व्रत, जप, यज्ञ तथा हवन के साथ-साथ पवित्र हविष्यान्न ग्रहण करके दम्पत्ति अपने भीतर ओज का आधान करते हैं। पुनश्च रात्रि विशेष में विशेष नियम द्वारा गर्भाधान सम्पन्न करते हैं। यह आध्यात्मिक उपचार ही संस्कार है। इन क्रियाओं के द्वारा मानव की आत्मा देवस्तर की हो जाती है, किन्तु आज हमारे असंयम तथा भोगवृत्ति ने इस संस्कार को खत्म ही कर दिया है।
हमारे यहां विवाह एक संस्कार है। मोक्षप्राप्ति का एक सोपान है। इससे विलास वासना का सूत्रपात नहीं होता, बल्कि संयमपूर्ण जीवन का प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह में अन्य विषयों के विचार के साथ साथ काल का भी विचार किया गया है। इसमें सर्वप्रधान है कि कन्या का विवाह रजोदर्शन से पूर्व हो जाना चाहिये। रजोदर्शन सब देशों में एक उम्र में नहीं होता। अतएव उम्र का निर्णय अपने देश काल की स्थिति के अनुसार करना चाहिए। रजोदर्शन प्रकृति का एक महान संकेत है। इसके द्वारा स्त्री गर्भ धारण करने योग्य हो जाती है और इसी कारण ऋतुकाल मे स्त्रियों की काम वासना बलवती हुआ करती है। इसी स्वाभाविक वासना को केन्द्रीभूत करने के लिये रजस्वला होने से पूर्व विवाह का विधान किया गया है। देर से विवाह होने पर यही कामवासना गलत रूप भी ले सकती है। जेसा कि आजकल यूरोप मे हो रहा है। वहां कुमारी माताओं की संख्या बढती ही जा रही है। ऋतुमती स्त्री के चित्त की स्थिति ठीक फोटो के कैमरे जैसी होती है। ऋतु स्नान करके वह जिस पुरूष को मन से देखती है, उसकी मूर्ति चित्त पर आ जाती है। इसीलिये ऋतु काल से पहले ही विवाह हो जाना बहुत आवश्यक है।
जैसा कि उपर बताया जा चुका है कि गर्भाधन संस्कार सबसे आवश्यक संस्कार है। लेकिन आजकल यह लोप हो गया है। स्त्री पुरूष के शरीर और मन की स्वस्थता, पवित्रता, आनन्द तथा शास्त्रानुकूल तिथि, वार, समय आदि के संयोग से ही श्रेष्ठ संतान उत्पन्न होती है। जिस प्रकार फोटो में बिलकुल वैसा ही चित्र आता है, जैसा फोटो लेते समय होता है। उसी प्रकार गर्भाधान के समय दम्पत्ति का जैसा तनम न होता है, वैसे ही तन मन वाली संतान होती है। गर्भाधान का उद्वेश्य, गर्भ ग्रहण की योग्यता, तदुपयोगी मन और स्वास्थ्य एवं तदुपयोगी काल इन सब बातों को सोच समझकर विवाहित पति-पत्नी के संसर्ग करने से उत्तम संतान होती है। मनमाने रूप में अथवा स्त्री के ऋतुमती  होती ही शास्त्र की दुहाई देकर पशुवत आचरण करने से तो हानि ही होती है।
शास्त्रों में गर्भाधान काल के सम्बन्ध में कुछ तथ्य स्पष्ट किये गये हैं। आइये उन्हे समझें- लग्न, सूर्य और चन्द्र के पापयुक्त और पापमध्यगत न होने पर, सप्तम स्थान में पापग्रह न रहने पर तथा राशि, लग्न और लग्न के चतुर्थ, पंच्चम, सप्तम, नवम और दशम स्थान शुभग्रहयुक्त होने पर एवं तृतीय, षष्ठ और एकादश स्थान पापयुक्त होने पर गण्ड समय का त्याग करके युग्म रात्रि में पुरूष के चन्द्रादि शुद्ध होने पर उसे गर्भाधान करना चाहिए।
ऋतु के पहले दिन से सोलहवें दिन तक ऋतुकाल माना गया है। इसमें पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि को छोड़कर युग्म रात्रियों में से किसी रात्रि को गर्भाधान करना चाहिए। ज्येष्ठा, मूल, मघा, अष्लेषा, रेवती, कृत्तिका, अश्विनी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभद्रपद नक्षत्र तथा पर्व, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टमी, एकादशी, व्यतिपात, संक्रान्ति, इष्टजयन्ती आदि पर्वों का त्याग करके गर्भाधान करना चाहिए।
महारान मुन के अनुसार 16 रात्रियां ऋतुकाल की हैं। इनमें राक्तस्त्राव की पहली चार रात्रियां अत्यन्त निन्दित हैं। ये 4 तथा 11वीं और 13वीं रात्रि, इस प्रकार 6 रात्रि और अनिन्दित 10 रात्रियों में से कोई सी भी 8 रात्रि। इस प्रकार 14 रात्रियों को छोड़कर शेष पर्ववर्जित दो रात्रियों में स्त्री संसर्ग करने वाले के ब्रह्मचर्य की हानि नहीं होती। इसमें रजोदर्शन के निकट की रात्रियों से उत्तर-उत्तर की रात्रियां अधिक प्रशस्त हैं। सत्रहवीं रात्रि से पुनः रजोदर्शन की चौथी रात्रि तक सर्वथा संयम से रहना चाहिए। भोग की संख्या जितनी कम होगी, उतनी ही शुक्र की नीरोगिता, पवित्रता और शक्तिमत्ता बढ़ेगी।
इसी प्रकार काल का भी अपना महत्व है। दिन में गर्भाधान सर्वथा निषिद्ध है। दिन के गर्भाधान से उत्पन्न संतान दुराचारी और अधम होती है। सन्ध्या की राक्षसी बेला में घोरदर्शन विकटाकार राक्षस तथा भूत-प्रेत-पिशाच आदि विचरण करते रहते हैं। इसी समय भगवान शंकर भी भूतों से घिरे हुये घूमते हैं। रात्रि के तीसरे पहर की सन्तान हरिभक्त और धर्मपरायण हुआ करती है।
गर्भाधान के समय शुद्ध एवं साव्तिक विचार मन में होने चाहिए। चरकसंहिता शारीर-अष्टम अध्याय में वर्णन है कि गर्भाधान के समय रज-वीर्य के मिश्रण काल में माता-पिता के मन में जैसे भाव होती हैं, वे ही भाव पूर्व कर्म के फल का समन्वय करते हुये गर्भस्थ बालक में प्रकट होते हैं। जिस प्रकार की धार्मिक, शूर, विद्वान, तेजस्वी सन्तान चाहिऐ वैसा ही भाव रखना चाहिए, और ऋतुस्नान के बाद प्रतिदिन वैसी ही वस्तओं को देखना और चिन्तन करना चाहिये। महर्षि चरक लिखते हैं कि ‘‘जो स्त्री पुष्ट, बलवान और पराक्रमी पुत्र चाहती हो, उसे ऋतु स्नान के पश्चात प्रतिदिन प्रातःकाल सफेद रंग के बड़े भारी सांड़ को देखना चाहिए।’’
हमारे शास्त्रों में कहा गया है और यह विज्ञानसिद्ध है कि ऋतु स्नान के बाद स्त्री पहले-पहले जिसको देखती है, उसी का संस्कार उसके चित्त पर पड़ जाता है और वैसी ही सन्तान बनती है। एक अमेरिकन स्त्री के कमरे में एक हब्शी की तस्वीर टांगी गई। उसने ऋतु स्नान के बाद पहले उसी को दखा था और गर्भकाल में भी प्रतिदिन उसी को देखा करती थी। इसका गर्भस्थ बालक पर इतना प्रभाव पड़ा कि उस बालक का चेहरा ठीक हब्शी के जैसा हुआ। एैसे कई उदाहरण हैं।
सुश्रुत-शारीरस्थान के द्वितीय अध्याय में लिखा है कि ‘‘ऋतु स्नान करने के बाद स्त्री को पति न मिलने पर वह कभी कभी कामवश स्वप्न में पुरूष-समागम करती है। उस समय अपना ही वीर्य रज से मिलकर जरायु में पहुंच जाता है और वह गर्भवती हो जाती है। परन्तु उस गर्भ में पति-वीर्य के अभाव से अस्थि आदि नहीं होते, वह केवल मांसपिण्ड का कुम्हडा जैसा होता है या सांप, बिच्छू, भेड़िया आदि के आकार के विकृत जीव ऐसे गर्भ में उत्पन्न होते हैं।’’ ऋतुकाल में कुत्ते, भेडिये, बकरे आदिके मैथुन देखने पर भी उसी भाव के अनुसार रात को स्वप्न आते हैं और ऐसे ही विकृत जीव गर्भ में निर्माण हो जाते हैं।
गर्भावस्था के समय स्त्री को बहुत सावधानी के साथ सदविचार, सत्संग, सद्ग्रन्थों का अध्ययन और सत तथा शुभ दृश्यां को देखना चाहिए। गर्भकाल में प्रह्लाद की माता कयाधू देवर्षि नारद के आश्रम मे ंरहकर नित्य हरि चर्चा सुनती थीं, इससे उनके पुत्र प्रह्लाद महान भक्त हुये। इसी प्रकार सुभद्रा के गर्भ में अभिमन्यु ने अपने पिता अर्जुन के साथ माता की बातचीत में ही चक्रव्यूह भेद करने की कला सीख ली थी।
स्मरण रहे कि बहुत सारी सन्तानें होने की अपेक्षा एक सुयोग्य संतान बड़ा महत्व रखती है। बरसात के कीड़े एक साथ लाखों की संख्या में पैदा होते हैं, सर्पिणी लगभग 200 बच्चे एक साथ पैदा करती है और उनमें अधिकांश को स्वयं ही खा जाती है। कुतियां 5 -7 बच्चे पैदा करती है, परन्तु उनका क्या महत्व। महत्ता गुणों में है संख्या में नहीं। श्रीराम अपनी मां के अकेले थे। भीष्म अपनी मां के अकेले थे। शंकराचार्य एक ही थे। पर उनका महत्व बहुत है। सच्चाई तो यह है कि सफल संतान वही है, जो भगवान की भक्त हो। अन्यथा पशुओं की तरह जीने और भोग वासना से क्या लाभ?

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