Thursday, May 21, 2020

ज्योतिष का मूल वेदों में है 

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी





भारतीय मान्यता के अनुसार वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी है (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/18)। वेद अनादि-अपोरूषेय और नित्य हैं तथा उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है। इस प्रकार का मत आस्तिक सिद्धान्त वाले सभी पौराणिकों एवं सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के दार्शनिकों का है। न्याय और वैशेषिक के दार्शनिकों ने वेद को अपौरूषेय नहीं माना है, पर वे भी इन्हें परमेश्वर द्वारा निर्मित, परन्तु पूर्वानुरूपीका ही मानते हैं। इन दोनों शाखाओं के दार्शनिकों ने वेद को परम प्रमाण माना है। जो वेद को प्रमाण नहीं मानते, वे आस्तिक नहीं कहे जाते। अतः सभी आस्तिक मतवाले वेद को प्रमाण मानने में एकमत हैं, केवल न्याय और वैशेषिक दार्शनिकों की अपौरूषेय मानने की शैली कुछ भिन्न है। नास्तिक दार्शनिकों ने वेदों को अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा रचा हुआ ग्रन्थ माना है। चार्वाक मतवालों ने तो वेद को निष्क्रिय लोगों की जीविका का साधन तक बता डाला है। किन्तु सनातमधर्म एवं भारतीय संस्कृति का मूल आधारस्तम्भ विश्व का अति प्राचीन और सर्वप्रथम वांग्मय वेद माना गया है। वेद छन्दोमयी वाणी में हैं। अतः इसे समझने के लिये छन्दों का ज्ञान आवश्यक है।
वेद के 6 अंग हैं जिन्हें वेदांग कहा जाता है। इनके नाम इस प्रकार हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष। जिस प्रकार व्याकरण वेद का मुख है, उसी प्रकार ज्योतिष को उसका नेत्र कहा गया है- ‘‘ज्योतिषामयनं चक्षुः’’। नेत्रों के बिना जिस प्रकार मानव अपने आप नहीं चल सकता उसी प्रकार ज्यौतिष शास्त्र के बिना वेदपुरूष में अन्धता आ जाती है। वेद की प्रवृत्ति विशेषरूप से यज्ञ-सम्पादन के लिये होती है। यज्ञ का विधान विशिष्ट काल की अपेक्षा करता है। यज्ञ-याग को करने के लिये समय-शुद्धि की विशेष आवश्यकता होती है। कुछ कर्मकाण्डीय विधान ऐसे होते हैं, जिनका सम्बन्ध संवतसर से होता है और कुछ का ऋतु से। कहने का मतलब यह है कि निश्चितरूप से नक्षत्र, तिथि, पक्ष, मास, ऋतु और संवत्सर के समस्त अंशों के साथ यज्ञ-याग के विधान वेदों में प्राप्त होते हैं। इसलिए इन नियमों के पालन के लिये और निश्चितरूप से निर्वहन के लिये ज्यौतिष शास्त्र का ज्ञान बहुत आवश्यक है। विद्वानों ने इसे ‘‘कालविज्ञापक शास्त्र’’ के नाम से पुकारा है। मुहूर्त निकालकर की जाने वाली यज्ञ आदि क्रिया विशेष फलदायक होती है। इसलिए वेदांग ज्यौतिष का विशेष आग्रह है कि जो मनुष्य ज्यौतिष शास्त्र को अच्छी तरह से जानता है, वही यज्ञ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान रखता है। यज्ञ की सफलता केवल समुचित विधान से ही नहीं होती, वरन उचित निर्दिष्ट नक्षत्र में और समुचित काल में प्रयोग से होती है। वैदिक यज्ञ विधान के लिये ज्यौतिष के महत्व को स्वीकार कर सुविख्यात ज्यौतिष-मातर्ण्ड भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ ‘‘सिद्धान्तशिरोमणि’’ में स्पष्ट कहा है-
वेदास्तावद् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्तस्ते तु कालाश्रयेण।
शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्याद् वेदांगत्वं ज्यौतिषस्योक्तमस्मात्।।
अर्थात वेद यज्ञ कर्म में प्रवृत्त होती हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते हैं तथा ज्यौतिष शास्त्र से कालज्ञान होता है, इससे ज्यौतिष शास्त्र का वेदांगत्व सिद्ध होता है।
प्राचीन समय में चारों वेदों का अलग-अलग ज्यौतिष शास्त्र था, उनमें सभी सामवेद का ज्यौतिष उपलब्ध नहीं है, अवशिष्ट तीन वेदों के ज्यौतिष प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
ऋग्वेद ज्यौतिष-आर्च ज्यौतिष, 36 पद्यात्मक।
यजुर्वेद ज्यौतिष-याजुष ज्यौतिष, 39 पद्यात्मक।
अथर्ववेद ज्यौतिष-अथर्वण ज्यौतिष, 162 पद्यात्मक।
वस्तुतः आर्च ज्यौतिष और याजुष ज्यौतिष में समानता प्रतीत होती है। कहीं कहीं इतिहास में दो ज्यौतिष का ही उल्लेख प्राप्त होता है। आथर्वण ज्यौतिष की चर्चा ही नहीं है। संख्या के विषय में भी मतैक्य नहीं है। याजुष ज्यौतिष की पद्य संख्या 39 बताई गयी है, कहीं कहीं 49 है। इसी प्रकार आथर्वण ज्यौतिष के स्थान पर ‘‘अथर्व ज्यौतिष’’ इस प्रकार का नाम भी मिलता है।
यदि पूछा जाये कि ज्योतिष क्या है? तो कह सकते हैं कि यह ज्योति का शास्त्र है। ज्योति आकाशीय पिण्डों नक्षत्र, ग्रह आदि से आती है, परन्तु ज्योतिष में हम सब पिण्डों का अध्ययन नहीं करते। यह अध्ययन केवल सौरमण्डल तक ही सीमित रखते हैं। ज्योतिष का मूलभूत सिद्धान्त है कि आकाशीय पिण्डों का प्रभाव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर पड़ता है। इस प्रकार मानव जगत में भी इन नक्षत्रों, ग्रहों आदि का प्रभाव पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आकाशीय पिण्डों एवं मानव जगत में पारस्परिक सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को अथर्ववेद में तीन मन्त्रों द्वारा बताया गया है-
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि।
तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम्।। ( अथर्ववेद 19/7/1)
अर्थात द्युलोक सौरमण्डल में चमकते हुये विशिष्ट गुणवाले अनेक नक्षत्र हैं, जो साथ मिलकर अत्यन्त तीव्र गति से टेढ़े-मेढ़े चलते हैं। सुमति की इच्छा करता हुआ मैं प्रतिदिन उनको पूजता हूं, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो। इस प्रकार इस मन्त्र में नक्षत्रों को सुख तथा सुमति देने में समर्थ माना गया है। यह सुमति मनुष्यों को नक्षत्रों की पूजा से प्राप्त होती है। यह मनुष्यों पर नक्षत्रों का प्रभाव हुआ। जिसे ज्योतिष शास्त्र ही मानता है। दूसरा मन्त्र इस प्रकार है-
यानि नक्षत्राणि दिव्यन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु।
प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु।। (अथर्ववेद 19/8/1)
अर्थात जिन नक्षत्रों को चन्द्रमा समर्थ करता हुआ चलता है, वे सब नक्षत्र मेरे लिये आकाश में, अन्तरिक्ष में, जल में, पृथ्वी पर, पर्वतों पर और सब दिशाओं में सुखदायी हों।
यहां एक प्रश्न उठता है कि चन्द्रमा किन नक्षत्रों को समर्थ करना हुआ चलता है? वेदों में इन नक्षत्रों की संख्या 28 बताई गयी है। इनके नाम अथर्ववेद के 19वें काण्ड के 7वें सूक्त में मन्त्र संख्या 2 से 5 तक यानि 4 मन्त्रों में दिये गये हैं। अश्विनी, भरणी आदि 28 नाम वही हैं, जो ज्योतिष ग्रन्थों में हैं। इस प्रकार नक्षत्रों के नाम तथा क्रम में पूर्ण समानता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ज्योतिष का मूल वेदों में है। तीसरा मन्त्र इस प्रकार से है-
अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे।
योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पद्ये योगं च नमोअहोरात्राभ्यामस्तु।। (अथर्ववेद 19/8/2)
अर्थात 28 नक्षत्र मुझे वह सब प्रदान करें, जो कल्याणकारी ओर सुखदायक हैं। मुझे प्राप्ति सामर्थ्य और रक्षा सामर्थ्य प्रदान करें। दूसरे शब्दों में पाने के साथ साथ रक्षा के सामर्थ्य को भी पाऊं और रक्षा के सामर्थ्य के साथ ही पाने के सामर्थ्य को भी मैं पाऊं। दोनों अहोरात्र अर्थात दिन और रात्रि को नमस्कार हो। इस मन्त्र में योग और क्षेम की प्राप्ति के लिये प्रार्थना की गयी है। साधारणतया जो वस्तु मिली नहीं है, उसको जुटाने का नाम योग है। जो वस्तु मिल गयी है, उसकी रक्षा करना ही क्षेम है। नक्षत्रों से इनको देने की प्रार्थना से स्पष्ट है कि नक्षत्र प्रसन्न होकर यह दे सकते हैं। इस प्रकार इस मन्त्र से भी ज्योतिष का नाता है। मन्त्र में जो अहोरात्र पद आया है, उसका ज्योतिष के होराशास्त्र में बहुत महत्व है।
अहोरात्राद्यंतलोपाद्धोरेति प्रोच्यते बुधैः।
तस्य हि ज्ञानमात्रेण जातकर्मफलं वदेत्।। (बृ0पा0हो0शास्त्र पू0 अध्याय 3/2)
अर्थात अहोरात्र पद के आदिम (अ) और अन्तिम (त्र) वर्ण के लोप से होरा शब्द बनता है। इस होरा (लग्न) के ज्ञान से जातक का शुभ या अशुभ कर्मफल किया जाना चाहिए।
आकाशीय पिण्डों में नक्षत्र और ग्रह दोनों आते हैं। ज्योतिष ने इन दोनों में कुछ अन्तर किया है, इस श्लोक में देखें-
तेजःपुज्जा नु वीक्ष्यन्ते गगने रजनीषु ये।
नक्षत्रसंज्ञकास्ते तु न क्षरन्तीति निश्चलाः।।
विपुलाकारवन्तोअन्ये गतिमन्तो ग्रहाः किल।
स्वगत्या भानि गृहृन्ति यतोअतस्ते ग्रहाभिधाः।। (अध्याय 3/4-5)
अर्थात ‘‘रात्रि के समय आकाश में जो तेजःपुज्ज दिखाई देते हैं, वे ही निश्चल तारागण नहीं चलने के कारण नक्षत्र कहे जाते हैं। कुछ अन्य विपुल आकारवाले गतिशील वे तेजःपुज्ज अपनी गति के द्वारा निश्चल नक्षत्रों को पकड़ लेते हैं, अतः वे ग्रह के नाम से जाने जाते हैं।’’ उपरोक्त तीन मन्त्रों में नक्षत्रों से सुख, सुमति, योग, क्षेम देने की प्रार्थना की गयी है। अब ग्रहों से दो मन्त्रों में इसी प्रकार की प्रार्थना का वर्णन है। दोनों मन्त्र अथर्ववेद के 19वें काण्ड के नवम सूक्त में हैं। इस सूक्त के 7वें मन्त्र का अन्तिम चरण शं नो दिविचरा ग्रहाः है, जिसका अर्थ है आकाश में घूमने वाले सब ग्रह हमारे लिये शान्तिदायक हों। यह प्रार्थना सामूहिक है। इस सूक्त का 10वां मन्त्र इस प्रकार है-
शं नो ग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्यश्च राहुणां
शं नो मृत्युर्धूमकेतुः शं रूद्रास्तिग्मतेजसः।।
अर्थात ‘‘चन्द्रमा के समान सब ग्रह हमारे लिये शान्ति प्रदाता हों। राहु के साथ सूर्य भी शान्तिदायक हों। मृत्यु, धूम और केतु भी शान्तिदायक हों। तीक्ष्ण तेजवाले रूद्र भी शान्तिदायक हों।’’
यहां प्रश्न उठता है कि चन्द्र के समान अन्य ग्रह कौन हैं? इसका उत्तर है कि 5 ताराग्रह। मंगल, बुध, गुरू, शुक्र और शनि। ये चन्द्र के समान सूर्य की परिक्रमा करने से एक ही श्रेणी में आते हैं। सूर्य किसी की परिक्रमा नहीं करता। इसलिये इसको भिन्न श्रेणी में रखा गया है। राहु और केतु प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले ग्रह नहीं हैं। इसलिए ज्योतिष में इसे छायाग्रह कहा जाता है, किन्तु वेदों ने इन्हें ग्रह की श्रेणी में ही रखा है। इस प्रकार सूर्य, यन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केत को ज्योतिष में नवग्रह कहा गया है।
कुछ भाष्यकारों ने ‘चान्द्रमसाः’’ का अर्थ चन्द्रमा के ग्रह भी किया है और उसमें नक्षत्रों (कृत्तिका) आदि की गणना की है, किन्तु यह तर्क संगत प्रतीत नहीं होता। इस मन्त्र में आये हुये मृत्यु एवं धूम को महर्षि पराशर ने अप्रकाश ग्रह की संज्ञा दी है। ये पाप ग्रह हैं और अशुभ फल देने वाले हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार गुलिक को ही मृत्यु कहते हैं। ऊपर के मन्त्रों में इनकी प्रार्थना से यह बात तो स्पष्ट है कि इनका प्रभाव भी मानव पर पड़ता है। ज्योतिष के अतिरिक्त शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन, पुराण आदि सभी धर्मग्रन्थों के मूल आधार वेद ही हैं। वास्तव में जीव, जगत, प्रकृति और परमात्मा के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान ही वेद का स्वरूप है।

No comments:

Post a Comment