Saturday, May 16, 2020

 वैदिक साहित्य में नारी का महत्व


आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी

‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)


नर की शक्ति है नारी। नारी के द्वारा ही नार शक्तिमान होता है। नारी अक्षय शक्ति का स्रोत है। शक्ति के बिना शक्तिमान नहीं, नारी के बिना नर का अस्तित्व नहीं। नारी के जीवन-विकास पर नर के जीवन का उत्कर्ष अवलम्बित है। नर नारी जीवन का आधार है, दोनों एक ही अस्तित्व के ऐसे परस्पर सम्बद्ध पहलू हैं। जिनमें एक की उपेक्षा करने से दूसरे की हानि अवश्यम्भावी है। दोनों के समुचित और सन्तुलित विकास पर ही समाज की स्वस्थता निर्भर करती है। अतएव नर के प्रश्न के समान ही नारी का प्रश्न समाज का एक प्रमुख प्रश्न है। नारी को सम्प्रदाय के रूप में नर की प्रतिद्वन्द्विता में खड़ा करने का आन्दोलन पागलपन के सिवा और कुछ नहीं है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि नारी को दासत्व में रखा जाये और ताड़ना का अधिकारी बनाया जाये। नारी पूज्या है, वह जननी है।
जिस प्रकार महामाया अपने चिद्विलास में विश्वब्रह्माण्ड को व्यक्त करती है, उसी प्रकार नारी अपने शिशु के चित् में व्यक्त जगत की छाया डालती है। जीवन के अरूणोदय में नारी ही जननी के रूप में सात्विक, राजसिक और तामसिक संस्कारों का जो बीज बालक के जीवन क्षेत्र में वपन करती है, बड़ा होने पर वही बीज पुष्पित और पल्लवित होकर जगत जीवन का कारण बनता है। नारी स्रष्टि करती है, उसका पालन करती है और अन्ततः प्रलय के कारणों का संकलन भी उसी के द्वारा होता है। अतः समाज में सुव्यवस्था-दुर्वव्यवस्था, शान्ति-अशान्ति, धर्माधर्म आदि द्वन्द्वों के निर्माण में मूलतः नारी की सहज लीला ही काम करती है। नर-नारी की सृष्टि के साथ माया की क्रीड़ा प्रारम्भ होती है। नर और नारी का कार्य-कारणभाव बीज और वृक्ष के समान अनादि है। आइये अब अपने मूल विषय पर चलें................
कर्म, उपासना और ज्ञान- ये वेदों के मुख्य विषय हैं। जो समस्त मानव जाति के धर्म हैं। इनमें केवल स्त्री अथवा केवल पुरूष को लक्ष्य करके अधिक बातें नहीं कही गयीं हैं। जो कुछ है, सबके लिये है। वेद ज्ञान के भण्डार है। उस भण्डार में खोज करने पर नारी के महत्व को प्रकाशित करने वाले विषय भी अवश्य दृष्टिगोचर होते हैं। वेद चार हैं ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद)। इनमें से ऋग्वेद में ही कुछ ऐसी बातें पायी जाती हैं, जो प्राचीन काल से चली आनेवाली कार्यनारी की सभ्यता और संस्कृति पर प्रकाश डालती हैं। कुछ विदूषी नारियां अपने सद्गुणों के कारण तथा मन्त्रों का साक्षात्कार करने वाली ऋषिकाओं के रूप में प्रतिष्ठित हुई हैं। यजुर्वेद में नारी के विषय में बहुत कम चर्चा है। सामवेद में तो है ही नहीं। अथर्ववेद में चर्चा अवश्य है, पर ऋग्वेद से अधिक नहीं। कुछ महिमामयी नारियां मन्त्र-द्रष्ट्रि ऋषिकाओं अथवा देवियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। जैसे धन की देवी लक्ष्मी, शक्ति की दुर्गा और विद्या की सरस्वती हैं, वैसे ही अदिति, उषा, इन्द्राणी, इला, भारती, होला, निनीवाली, श्रद्धा, पृश्नि आदि वैदिक देवियां कई तत्वों की अधिष्ठात्री हैं। इन्हें कहीं देवमाता और कही देवकन्या कहा गया है। इन सबमें अदिति देवी का उल्लेख सबकी अपेक्षा ज्यादा है।
ऋग्वेद में कई जगहों पर सीता की स्तुति देवी कहकर की गयी है- ‘‘सौभाग्यवती सीता! हम तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम हमें धन और सुन्दर फल दो। पूषा सीता को नियमित करें’’ (4/57/6-7)। उषा का अर्थ प्रभात है। किन्तु ऋग्वेद में लगभग 300 बार उषा का ‘‘देवी’’ रूप में स्तवन किया गया है। सूक्त के सूक्त उषादेवी की स्तुति से भरे पड़े हैं। वहां इनके लिये सत्यमनीषिणी और दीप्तिमती आदि गुणबोधक विशेषण दिये गये हैं। सूर्य की पुत्री का नाम सूर्या है। इन्हें ऋग्वेद में देवी और ऋषिका भी कहा गया है। सूर्या ने दशम मण्डल के 85 वें सूक्त का साक्षात्कार किया था। सूर्या के विवाह का जो वर्णन उपलब्ध होता है, उससे कई प्रचलित प्रथाओं का परिचय मिलता है। जो आज भी कुछ न कुछ पाई जाती हैं। इन्द्राणी इन्द्रदेव की पत्नी हैं। इनका एक नाम शची भी है। ऋग्वेद के दशम मण्डल, सूक्त 145 की ऋषिका भी ये ही हैं। 159वें सूक्त की ऋषिका प्रलोमपुत्री शची कही गयी हैं। वाक भी एक देवी का नाम है। इन्हें अन्न-जल की दात्री एवं हर्षप्रदायिनी माना गया है। ये अम्भृण ऋषि की पुत्री हैं। दशम मण्डल के 125वें सूक्त का प्रथम दर्शन इन्होंने ही किया है। वैदिक देवी सूक्त की ऋषिका ये ही हैं।
सरस्वती ज्ञान की देवी मानी गयी हैं (1/3/10-12)। इनके द्वारा कई मन्त्रों का आविष्कार भी हुआ है। इसी प्रकार भारती, होला, सरण्यू, सिनीवाली, राका, गुंगु, असु तथा श्रद्धा आदि देवियों की महिमा का भी जगह-जगह वर्णन है। आर्य लोग नारियों का बहूत आदर करते थे। उनके विवाह का प्रयोजन था नारी के साथ रहकर धर्मानुष्ठान और यज्ञ-सम्पादन। घरों में गोरक्षा का मुख्य कार्य इन्हीं के हाथ में था। इन बातों का समर्थक कई मन्त्र उपलब्ध होते हैं। (2/3/6 तथा 2/38/4 आदि)। वृद्धावस्था तक नारी अपने घर में प्रभुता रखती थी (10/85/30)। पशु-रक्षिणी और वीरप्रसविनी नारी का उस समय विशेष आदर था। ऐसी नारी की प्राप्ति के लिये देवताओं से प्रार्थना की जाती थी (10/85/44)। इस प्रकार आर्य जाति में प्राचीन काल से ही नारी का सदा समादर होता आया है। अन्य जातियों के प्राचीन इतिहास में यह बात नहीं पायी जाती। कई जातियां तो ऐसी हैं, जो स्त्रियों को पैर की जूती समझती थीं। उनके यहां स्त्रियों के खरीदने-बेचने की भी जघन्य प्रथा थी। एथेंस और स्पार्टा में स्त्रियों की जैसी नारकीय दशा थी, वह इतिहास के विद्यार्थियों से छिपी नहीं है।
ऋग्वेद के अनुशीलन से पता चलता है कि आर्यों में स्त्री-शिक्षा का अच्छा प्रचार था। स्त्रियां वेदाध्ययन करतीं और कवितायें भी बनाती थीं। वे अपनी त्याग-तपस्या से ऋषिभाव को भी प्राप्त होतीं और मन्त्रों का साक्षात्कार करती थीं। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों का आविष्कार स्त्रियों द्वारा ही हुआ है। ब्रह्मवादिनी घोषा द्वारा साक्षात्कृत (दशम मण्डल) के 39वें और 40वें सूक्तों में कुछ ऐसे मन्त्र हैं, जिनसे ज्ञात होता है आर्यलोग विवाह के के समय वर और कन्या को कई वस्त्राभूषणों से विभूषित करके बहुत सम्मान करते थे। लोग स्त्री की प्राण-रक्षा और मर्यादा-रक्षा के लिये भारी से कष्ट सहन करने से भी पीछे नहीं हटते थे। स्त्रियां यज्ञ कर्म में नियुक्त होती थीं। सूर्या के द्वारा आविष्कृत मन्त्रों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि स्त्री अपने पति के अधीन रहती थी, परन्तु घर के अन्य सब पदार्थों पर उसी का प्रभुत्व रहता था।
कुछ मन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय स्त्रियां संगीत आदि में भी निपुण होती थीं। पति के साथ स्त्रियां भी युद्ध में जाती थीं। विश्यला अपने पति के साथ युद्ध में गयी थी और वहां उसकी टांग टूट गयी थी। जिसे अश्विनी कुमारों ने ठीक किया था। नमुचि के पास भी स्त्रियों की सेना थी। वृत्रासुर के साथ उसकी माता दनु भी युद्ध में गयी थी, जो इन्द्र के द्वारा मारी गयी। वैदिक साहित्य से यह भी ज्ञात होता है कि पहले की स्त्रियां वेद पढ़तीं और यज्ञोपवीत भी धारण करती थीं। सुलभा, मैत्रेयी और गार्गी आदि की विद्वता प्रसिद्ध है। वाल्मीकिरामायण (5/15/48) के अनुसार सीताजी वैदिक प्रार्थना करती थीं। कौसल्या के विषय में भी ऐसा वर्णन है कि वे मन्त्रपाठपूर्वक अग्निहोत्र करती थीं।
वीरमित्रोदय ग्रन्थ के संस्कार प्रकाश में स्त्रियों के दो भेद किये गये हैं। एक ब्रह्मवादिनी और दूसरी सद्योद्वाहा। इनमें - ‘ब्रह्मवादिनीनामग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भैक्षचर्या’- ब्रह्मवादिनी स्त्रियों को यह अधिकार है कि वे अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा अपने घर में भिक्षा ग्रहण करें।’ यमस्मृति ग्रन्थ में कहा गया है- ‘पूर्वकाल में कुमारियों का उपनयन, वेदारम्भ तथा गायत्री-उपदेश होता था। परन्तु उनके गुरू या अध्यापक केवल पिता, चाचा अथवा बड़े भाई ही होते थे। दूसरे किसी को यह अधिकार नहीं था।
कई वेदमन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि स्त्रियां सुन्दर वस्त्र पहनती थीं, सूती वस्त्र पहनती और बुनती भी थीं। ऊनी वस्त्र भी पहनावे में था। हाथों में कड़ा पहनने की प्रथा थी। आभूषण, आयुध, माला, हार, वलय आदि सुवर्ण के बनते थे। लोह और सोने के घर बनने का भी वर्णन मिलता है (7/3/7) और (7/15/4)। हजार दरवाजे वाले विशाल भवन बनाये जाते थे (7/28/5)। द्वार पर द्वारपाल रखा जाता था (2/15/9)। एक हजार खम्भोवाले दुमंजिले मकान बनाये जाते थे (5/62/6)। कुछ मन्त्रों से स्वयंवर प्रथा का भी पता चलता है। एक मन्त्र में कहा गया है- ‘पति स्त्री के वस्त्र को ओढ़े, अन्यथा श्री नष्ट हो जाती है।’ (10/85/30)। हिन्दू धर्म में पति-पत्नी एक दूसरे के सखा और सहधर्मी है। दोनों का समान स्थान है। कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं है। सप्तपदी के विधान द्वारा नव-दम्पति के इसी सख्यभाव को सुदृढ किया जाता है। 10/85/42 में कहा गया है- ‘तुम दोनों दम्पति कभी एक दूसरे से अलग न होना।’ 43वें मन्त्र में पति का कथन है- ‘प्रजापति हमें सन्तति दें, अर्यमा बुढ़ापे तक हमें साथ रखें। वधू! तुम मंगलमयी होकर पति-गृह में रहो। घर के मनुष्यों और पशुओं के लिये कल्याणकारिणी बनो।’ फिर परमात्मा से प्रार्थना की जाती है-
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कुरू।
दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि।।
‘परमात्मन! इस वधू को सुयोग्य पुत्रवाली तथा सौभाग्यवती बनाओ। इसके गर्भ में दस पुत्रों को स्िापित करो। इसके दस पुत्र और ग्यारहवें पति-सब मौजूद रहें।’ तत्पश्चात वधू को आशीर्वाद मिलता है-
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्रश्वां भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु।।
‘वधू! तुम घर में सास, ससुर, ननद और देवर- सबके हृदय की महारानी बनो। सबको अपने प्रेम, सेवा और सद्व्यवहार से जीत लो।’
इन आदर्शों का पालन वधू करती थी। वर्तमान युग में भी विवाह के समय ये शिक्षाएं दी जाती हैं। पर कहीं-कहीं लोग इन आदर्शों से अलग होते जा रहे हैं। अथर्ववेद में बताया गया है कि कन्या ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर तरूण पति को प्राप्त करती है- ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’ (11/5/18)। माता-पिता के निरीक्षण में कन्या पति का चुनाव करती थी (6/61/1)। कन्या की विदाई के समय उसके पिता पलंग, गद्दा और कोच आदि देते थे (14/2/31, 41)। कन्या को खजाने की संदूक आदि भी दी जाती थी (14/2/30, 4/20/3), गाय और कम्बल आदि भी कन्या को दहेज में प्राप्त होते थे। स्त्री का अपने पति पर इस लोक और परलोक में भी अधिकार माना जाता था- ‘त्वं सम्राज्ञ्येधि पत्युरस्तं परेत्य च।’ (14/1/43)
आपस्तम्ब धर्मसूत्र ग्रन्थ में लिखा है- ‘जायापत्योर्न विभागो दृश्यते। पाणिग्रहणाद्धि सहत्वं कर्मसु तथा पुण्यफलेषु द्रव्यपरिग्रहेषु च।। ‘स्त्री और पति में कोई विभाग या बटवारा नहीं देखा जाता। दोनों एक हैं, दोनों के सब कुछ एक हैं। पति जब पाणिग्रहण कर लेता है, तब से प्रत्येक कर्म में दोनों का सहयोग अपेक्षित रहता है। इसी प्रकार पुण्यफल में तथा द्रव्य संग्रह में भी दोनों का सहयोग तथा समानाधिकार है।’ इसी प्रकार वैदिक साहित्य में नारी के प्रति बड़े ही सम्मानपूर्वक भाव मिलते हैं।

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