Thursday, May 21, 2020


देश के अधिक मान्यता वाले देवी मां के कुछ मन्दिर

संकलन एवं शोध- आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)






असम का कामाख्या देवी मन्दिर
कामाख्या देवी मन्दिर असम के नीलांचल पर्वत पर स्थित है। यह मन्दिर सती के सबसे पुरातन शक्ति पीठों में से एक है। यह मन्दिर दस महाविद्या को समर्पित है। इसे 8वीं सदी में निर्मित माना जाता है। वर्णन है कि जब भगवान शिव सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर कर रहे थे तब देवी का योनि भाग यहां (कामाख्या) में गिरा था। इस मन्दिर के गर्भ गृह में योनि के आकार का कुंड भी मौजूद है। इसमें पानी का प्रवाह होता रहता है। इस कुंड को योनि कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर शक्ति कामाख्या देवी के रूप में पूजित हैं। मान्यता है कि असम में मानसून आने के अवसर पर यहां तीन दिन का मेला लगता है जिसे अंबुबाची मेला कहते हैं, इस दौरान कामाख्या महावारी की स्थिति में होती हैं। जिसके कारण योनि कुण्ड से पानी की स्थान पर खून का प्रवाह शुरू हो जाता है। इसलिए इस कुण्ड को इन दिनों लाल कपड़े से ढक दिया जाता है। जिसके कारण मन्दिर में भक्तों को प्रवेश नहीं दिया जाता। इस मेले के दौरान भक्त कोई शुभ कर्म नहीं करते। मेला समाप्त होने के चौथे दिन मन्दिर के पुजारी देवी को शुद्ध करने के लिसे विधि-विधान से योनि कुण्ड को स्नान करवाते हैं। इसके बाद मन्दिर के कपाट खोले जाते हैं। भक्तों को प्रसाद के तौर पर योनि कुण्ड को स्नान करवाया जल, दूध, शहद व अन्य सामग्री दी जाती है। कामाख्या देवी को मोक्षदायिनी और सन्तानोत्पत्ति की मनोकामना पूरी करने के लिये जाना जाता है। यहां पर कई और मन्दिर भी हैं जैसे - कमला, तारा, शोदषी, भैरवी, बगलामुखी, मातंगी, छिन्नमस्त, धुमवती, और काली मन्दिर। यहां पाशुओं की बलि देनी की परम्परा भी है। किन्तु मादा पशुओं को बलि नहीं चढ़ाया जाता। इस मन्दिर का प्रवेश द्वार नीलांचल पर्वत की तराई में स्थापित है। नई दिल्ली से गुवाहटी के लिये कई ट्रेने चलती हैं। गुवाहटी रेलवे स्टेशन से यह मन्दिर लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर है।

मध्यप्रदेश का मैहर देवी मन्दिर
भारत में कई एैसे मन्दिर हैं जिनकी महत्ता और मान्यता बहुत अधिक है। उनमें से कुछ मन्दिरों की जानकारी हम पाठकों के लिये लेकर आये हैं। मैहर देवी का मन्दिर मध्यप्रदेश के सतना जनपद में स्थित है। इसकी गणना 52 शक्ति पीठों में नहीं होती फिर भी इसका महत्व भारत, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में स्थित अन्य शक्ति पीठों जैसा ही है। वर्णन है कि जब भगवान शिव अपनी पत्नी सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर रहे थे, तब देवी का हार मैहर में गिर गया था। मैहर जिले के नामकरण के पीछे भी यहीं कथा बताई जाती है। पौराणिक कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि सती के पिता महाराज दक्ष भगवान शिव को किसी कारण पसन्द नहीं करते थे। सती ने पिता के खिलाफ जाकर शिव से विवाह किया था। शिव को अपमानित करने के लिये दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन किया। इस आयोजन में शिव और सती को न्यौता नहीं दिया। जबकि अन्य देवी देवताओं को बुलाया। सती ने यज्ञ में पहुंचकर इसका कारण दक्ष से पूछा तो वह शिव को अपशब्द कहने लगे। पिता के इस बर्ताव से सती ने वहां हवन कुण्ड में जल रही अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे दी। जब शिव को इस बात का पता चला तो उनका तीसरा नेत्र खुला। आयोजन स्थल पर पहुंच कर उन्होंने सती का पार्थिव शरीर उठाया और तांडव करने लगे। देवताओं के अनुरोध पर शिव को शान्त करने के लिये भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाया। इससे सती का शरीर 52 भागों मेेेेेेेेें बट गया। तांडव के दौरान यह जहां-जहां गिरा, उस-उस स्थान पर शक्ति पीठ बना।
विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर के बारे मान्यता है कि माँ शारदा की प्रथम पूजा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी। मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्म ग्रंथों में महेन्द्र मिलता है। इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है। जन श्रुतियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम माँ शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया। यहां मां शारदा का वास माना जाता है। इस मन्दिर में मूर्ति की स्थापना का काल 502 ईस्वी माना जाता है।  यहां नारियल, लाई, मिशरी, फूल माला, अगरबत्ती, छत्री चढाने की प्रथा है। कालभैरव के दर्शन को यहां जरूरी माना गया है। इस मन्दिर की खोज पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करने वाले आल्हा-उदल द्वारा की गयी थी, यहीं पर आल्हा-उदल ने 12 वर्ष तपस्या करके अमरत्व का वरदान पाया था। कहते हैं कि आज भी आल्हा-उदल सुबह सबसे पहले यहां आकर पूजा कर जाते हैं। इसी मन्दिर के नीचे आल्हा तालाब स्थित है। मन्दिर के लिये 1063 सीढ़ियों का पैदल मार्ग जाता है। दिल्ली से यह मन्दिर लगभग 770 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
झारखण्ड के देवघर में स्थित बैद्यनाथ धाम
यह मन्दिर शिव के नौवें ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात है। फिर भी इसकी गणना देवी सती के 52 शक्ति पीठों में की जाती है। इसे हृदयपीठ के नाम से भी जाना जाता है। ग्रन्थों के पन्नें पलटने से पता चलता है कि जब शिव अपनी पत्नी सती का पार्थिव शरीर लेकर तांडव कर रहे थे, तब देवी का हृदय वैद्यनाथ में गिर गया था। यहां पर सती जयदुर्गा के रूप में पूजित हैं। इनकी रक्षा कालभौरव के रूप में भगवान वैद्यनाथ करते हैं। मान्यता है कि सती का हृदय यहां गिरने के कारण शिव और सती दोनों यहां निवास करते हैं। पौराणिक ग्रन्थों के हिसाब से रावण ने इसी जगह शिव की तपस्या की थी। शिव को प्रसन्न करने के लिये लंकापति रावण ने अपने दस सिरों की बलि दी थी। अपने भक्त के कष्ट से द्रवित होकर भगवान शिव ने प्रकट होकर वैद्य के रूप में उसके सारे कष्ट हरे। इस धाम के नामकरण के बारे में यहीं कथा प्रचलित है। यहां पर पार्वती, काली और लक्ष्मीनारायण सहित 21 देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। नई दिल्ली से इसकी दूरी लगभग 1280 किलोमीटर है। सावन में लाखों कावडिये यहां जल जढ़ाने पहुंचते हैं।

बिहार के कैमूर जिले में स्थित मां मुडेश्वरी देवी मन्दिर
मां मुंडेश्वरी देवी का मन्दिर देश के प्राचीनतम शक्तिपीठों में दर्ज मुंडेश्वरी धाम शैव, शाक्त और वैष्णव उपासना का मिला जुला तीर्थस्थल है। यहां पर मुंडेश्वरी मां कई रूपों में पूजी जाती हैं। इस मन्दिर के मूल देवता नारायण अर्थात विष्णु हैं। इसकी पौराणिक और धार्मिक प्रधानता है। मध्य युग में यहां शक्ति की उपासना प्रारम्भ हुई थी। यह वही काल था जब मंदिर में मूल नायक के रूप में स्थापित चतुर्मुख शिवलिंग की उपासना भी प्रारम्भ हुई। यह शिवलिंग अपनी छटा कई बार बदलता है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार भगवती ने जब देखा की इस क्षेत्र में मानव जाति पर घोर अत्याचार हो रहा है और असुर मुंड सनातन संस्कृति को नष्ट कर रहा है। यह देख मां ने मुंड का वध कर अपने एैश्वर्य का प्रदर्शन किया। इसी से देवी का नाम मुडेश्वरी विख्यात हुआ। इस मन्दिर के इतिहास के बारे में पता लगता है कि यह मन्दिर प्रवरा पहाड़ी के शिखर पर लगभग 600 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। ब्रिटिश यात्री आरएन मार्टिन और फ्रासिंस बुकानन सन 1812 से लेकर 1904 के बीच इस मन्दिर का भ्रमण किया था। वहीं पुरातत्वविदों के अनुसार यहां से प्राप्त शिलालेख 389ई0 से 636ई0 के बीच का है, जो इसकी प्राचीनता को दर्शाता है। इस मन्दिर की नक्काशी और मूर्तियां उत्तर गुप्तकाल की बताई जाती हैं।
यहां की मूर्ति के विषय में मान्यता है कि इस प्रतिमा को देखते ही मां के वाल्सल्य का पता चल जाता है। प्रसाद के रूप में नारियल, सिन्दूर, रक्षा, रोली आदि यहां चढ़ाने की पुरानी परम्परा है। मन्दिर तक जाने के लिये 524 सीढ़ियां भी हैं। मन्दिर में पहुंचने के लिये एक किलोमीटर लम्बा सड़क मार्ग है। यहां से हल्की गाड़ियां ही प्रवेश कर सकती हैं। एैसी परम्परा है कि मुंडेश्वरी देवी के दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी के पास लगे लोहे में घंटा बांधकर लोग अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। यहां लोग मुंडन संस्कार के लिये भी आते है। मुख्यतः यहां लोग सन्तान और बेहतर स्वास्थ्य की कामना से आते हैं।

जम्मू का वैष्णो देवी मन्दिर
जम्मू के त्रिकूट पर्वत पर मां वैष्णो देवी तीन पिंडों में विराजमान हैं- काली, सरस्वती और लक्ष्मी। किवदन्ती है कि कटरा के हंसाली ग्राम निवासी श्रीधर मां शक्ति के परम भक्त हुये। आज से लगभग 700 वर्ष पहले मां ने कन्या के रूप में उन्हें दर्शन दिये थे। उस कन्या ने श्रीधर से भण्डारा करने को कहा। इस भण्डारे में कन्या की परीक्षा लेने गांव वालों के साथ भैरवनाथ भी पहुंचे। उसने कन्या से मांस-मदिरा की मांग की और कहा कि जब हर व्यक्ति को अपनी पसंद का भोजन मिल रहा है तो मुझे भी मिले। कन्या ने कहां कि आप ब्राह्मण की कुटिया में बैठ कर भोजन कर रहे है यह स्मरण रहे। कन्या नहीं मानी। यह देख भैरवनाथ ने क्रोध में आकर कन्या को पकड़ना का प्रयास किया तो वह त्रिकूट पर्वत की ओर दौड़ी। दर्शनी दरवाजा, बाण गंगा, चरण पादुका, आदिकुमारी होकर वह कन्या अर्धक्वारी गुफा में पहुंची। भैरवनाथ भी वहां पहुंच गया। यह देख उस कन्या (देवी) ने क्रोध में आकर उसका वध कर दिया। भेरवनाथ का सिर भवन से 8 किलोमीटर दूर जाकर गिरा। आज यहीं पर भैरवनाथ मंन्दिर है। कन्या के चले जाने पर श्रीधर बहुत दुखी हुये। एक रात मां ने श्रीधर के स्वप्न में आकर अपने दिव्य धाम के दर्शन कराये। अगले दिन प्रातः काल ही श्रीधर देवी के धाम को ढूढने निकल गये। अन्त में वे गुफा तक पहुंचे। त्रिकूट पर्वत की इसी गुफा में आज वैष्णों माता विराजमान हैं। नई दिल्ली से जम्मू तक सड़क मार्ग की दूरी 575 किलोमीटर है, हवाई मार्ग दूरी 503, रेल मार्ग दूरी 578 है। फिर जम्मू से कटरा तक की दूरी 50 मिलोमीटर है। कटरा से मन्दिर की दूरी 14 किलोमीटर है। यहां एैसी मान्यता है कि मां के दर्शन के बाद भैरवनाथ मन्दिर के दर्शन करने पर मनोकामना अवश्य पूरी होती हैं।

दिल्ली के करोलबाग स्थित मां दुर्गा का झंडेवालान मन्दिर
देश की राजधानी दिल्ली के करोलबाग स्थित मां दुर्गा का यह मन्दिर दुर्गा मां के विख्यात मंदिरों में शुमार है। इस मन्दिर का नाम इसके चोटी पर लगे ध्वज के नाम पर रखा गया है। यह ध्वज बहुत दूर से दिखता है। मंदिर अष्टकोणिय है तथा इसमें 6 द्वार हैं। बताते हैं कि 18वीं शताब्दी में यहां साधना हेतु एक कपड़ा व्यापारी आया, जिसका नाम बद्री दास था। एक दिन ध्यान के दौरान उसे एैसा अनुभव हुआ कि यहां गुफा में कोई मंदिर दबा है। बाद में इसकी खुदाई करवाई गयी जिसमें देवी की मूर्ति निकली। निकालते हुये इस प्रतिमा के दोनों हाथ टूट गये थे। इसके महत्व को देखते हुये प्रतिमा में चांदी के हांथ लगवाये गये। देवी की वह प्रतिमा उसी गुफा में रखी गयी। साथ ही एक शिवलिंग भी यहां मिला। शास्त्रों को मत है कि खंडित प्रतिमा की पूजा वर्जित है। इसलिये गुफा के ऊपर एक नई प्रतिमा की स्थापना की गयी। इस गुफा में लगभग 8 दशकों से 2 अखण्ड ज्योति जल रही हैं। एक ज्योति घी की है तथा दूसरी तेल की जो कि शनिदेव के लिये है। नवरात्रों के दौरान यहां दो बार माता की चौकी होती है। मंदिर जाने के लिये यहां मेट्रो की व्यवस्था है। श्रृद्धालु अपनी मनोकामना लेकर यहां आते हैं, मनोकामना पूर्ण होने पर वे देवी को चुनरी चढाकर तथा चौकी या फिर भण्डारा करवाता है। मंगलवार और रविवार को यहां भण्डारे का आयोजन किया जाता है।
उत्तराखंड के हरिद्वार में स्थित मंसा देवी मन्दिर
यह मन्दिर हरिद्वार के 5 तीर्थों में गिना जाता है। बिल्व पर्वत पर विराजमान मंसा देवी मनोकामना की देवी के रूप में जानी जाती हैं। पौराणिक ग्रन्थों को यदि खंगाला जाये तो मंसा देवी का वर्णन ऋषि कश्यप और नागमाता कदू्र की पुत्री के रूप में मिलता है। नागराज वासुकी मंसा के भाई माने गये हैं। वासुकी ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी जिसके फलस्वरूप वासुकी को शिव जी के गले में लिपटने का वरदान मिला था। वर्णन है कि एक दिन वासुकी को स्वप्न आया कि उनकी बहन का पुत्र नाग वंश की रक्षा करेगा। तब वासुकी ने मंसा का विवाह ऋषि जगतकारू से कर दिया। दोनों के पुत्र आस्तिक ने सर्पों को राजा जनमेजय के प्रकोप से बचाया था। कथा है कि एक सर्प के काटने से पिता परिक्षित की मृत्यु के बाद जनमेजय ने नागवंश के विनाश की प्रतिज्ञा ली थी। पौराणिक ग्रन्थों में मंसा नागकन्या होने के नाते उन्हें विषहरिणी के रूप में प्रतिष्ठा मिली। कहा जाता है कि समुद्र मन्थन से जब विष निकला तो उसे शिव ने पिया, तब मंसा ने ही उनकी विष से रक्षा की थी। इसके बाद मंसा की पूजा विष हरने वाली देवी के रूप में भी होने लगी। बताया जाता है कि जगतकारू ने मंसा से विवाह अपने पूर्वजों की मोक्ष प्राप्ति के लिये किया था। आस्तिक के जन्म के बाद उन्होने पत्नी को छोड़ दिया था। आहत मंसा ने शिव की कठोर तपस्या की। मंसा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने मंसा को मनोकामना पूर्ति की देवी के रूप में पूजे जाने का वरदान दिया।
इस मन्दिर में 8 भुजाओं और 3 मुखों 5 हांथों वाली देवी की दो प्रतिमांए हैं। चुनरी व छत्री चढाने का बहुत महत्व है। मन्दिर तक पहुंचने के लिये 2 किलोमीटर लम्बा पैदल रास्ता है। नई दिल्ली से यदि मन्दिर के लिये सड़क मार्ग से जाया जाये तो 209 किलोमीटर है मन्दिर और यदि रेल मार्ग से जाया जाये तो 271 किलोमीटर है। मंसा देवी के दर्शन के बाद इसके बाहर लगे कचनार के वृक्ष पर धागा बांधकर मनोकामना मांगने की परम्परा है। सर्प दोष से मुक्ति हेतु भी यहां लोग आते हैं।

हिमांचल का नैनादेवी मन्दिर
हिमाचल राज्य के बिलासपुर जिले में यह मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर 52 शक्तिपीठों में से एक है। मन्दिर 1177 मीटर ऊंची पहाड़ी पर है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जब शिव अपने कंधे पर उठाये सती के मृत शरीर को लिये फिर रहे थे तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उस देह को कई हिस्सों में बांट दिया। उस देह से सती की आंख यहा गिरी। जिसके कारण इस शक्तिपीठ का नाम नैना देवी पड़ा। यहीं पर मां ने महिषासुर का वध किया था। जिसके कारण इसका एक नाम महिशपीठ भी है। यहां पर मां पिण्ड रूप में पूजित होती हैं। दिन में 5 बार नैना देवी की पूजा की जाती है। दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा आवश्यक मानी गयी है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर एक विशाल पीपल का सदियों पुराना वृक्ष है। द्वार पर ही दो शेरों की प्रतिमा है जो कि देवी के वाहन मानें जाते हैं। मन्दिर के गर्भ गृह में माता काली, गणेश और बीच में नैनादेवी का पिण्ड विराजमान है। यहां परिसर में एक हवन कुण्ड है। माना जाता है कि इस हवन कुण्ड की भस्म को मस्तक पर लगाने से मन को बहुत शान्ति मिलती है। मन्दिर की चढाई में लगभग 2 घंटे लगते हैं। दिल्ली से यह मन्दिर 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में स्थित मां विन्ध्यवासिनी देवी मन्दिर
उत्तर प्रदेश राज्य के मिर्जापुर जपनद में उत्तरी छोर पर मां विन्ध्यावासिनी देवी का मन्दिर स्थित है। इसकी महत्ता सिद्धपीठ के रूप में विख्यात है। माना जाता है कि यहां मां का विग्रह अनादि काल रहा है। यह भी कहते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विन्ध्यक्षेत्र के त्रिकोण जैसा कोई स्थान नहीं है। इस मन्दिर में महालक्ष्मी के स्वरूप में मां विन्ध्यवासिनी, महाकाली के रूप में काली और महा सरस्वती के रूप में अष्टभुजा माता विराजमान हैं। इन तीनों देवियों का मन्दिर त्रिकोण पर स्थित है। एैसी भी मान्यता है कि जब गंगा धरती पर अवतरित हुई तो वह विन्ध्य क्षेत्र से होकर गुजर रही थीं किन्तु मां विन्ध्यवासिनी के चरण धुलने क लिये वह पूरी तरह दक्षिण की ओर मुड़ गईं। इस मन्दिर से आगे बढ़ने के बाद ही पुनः गंगा उत्तरमुखी होकर अपने मूल रास्ते पर आ गईं। कहा जाता है कि वनवास के समय भगवान राम और रावण ने भी मां विन्ध्यवासिनी की पूजा की थी। दिल्ली से यह मन्दिर 715 किलोमीटर पूरब एनएच 76 के किनारे है।

No comments:

Post a Comment