Monday, May 18, 2020

शुद्ध आहार से होती है अन्तःकरण की शुद्धि

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)




भारतीय संस्कृति में अध्यात्म मार्ग का अवलम्बन करने वाले योगी-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिये सात्विक अर्थात शुद्ध आहार की योजना है। भोजन हमारे मन, बुद्धि, अन्तःकरण के निर्माण में सहायक है। हम जैसा कुछ खाते हैं, वैसा ही मन बनता है। खाये हुये से ही रक्त की उत्पत्ति होती है। इसमें वे ही गुण आते हैं, जो हमारे भोजन के थे। सरलता, शान्ति, सहानुभूति, क्रोध, कपट, घृणा, मृदुता आदि सब स्वभाव के गुणदोष भोजन पर ही निर्भर है। जो व्यक्ति उत्तेजक भोजन करते हैं, वे संयम से नहीं रह पाते। वे शुद्ध बुद्धि का विकास कैसे कर पायेंगे। राजसी आहार करने वाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि उत्तेजक भोजन करने पर भजन-पूजन, स्वाध्याय या संयम सम्भव नहीं। भोजन हमारे संस्कार बनाता है। इसी के द्वारा हमारे विचार बनते हैं। भोजन यदि सात्विक है तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार सात्विक और पवित्र होंगे। इसके विपरीत उत्तेजक या राजसी भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध और विलासी होंगे। जिन लोगों में मांस, अंडे, लहसुन, प्याज, मदिरा, तम्बाकू आदि प्रयोग किया जाता है, वे अक्सर विलासी विकारमय और गन्दे विचारों से भरे होते हैं। उनकी कर्मेन्द्रियां उत्तेजक रहती हैं, मन कुकल्पनाओं से परिपूर्ण रहता है। थोड़े से लालच में अन्तर्द्वन्द्व से परिपूर्ण हो जाता है। 

पशुओं में बैल, भैंस, गधे, घोड़े, हाथी, बकरी आदि शारीरिक श्रम करने वाले पशुओं का मुख्य भोजन घासपात, हरी सब्जियां या अनाज होता है। परिणामस्वरूप वे सहनशील, शान्त, मृदु होते हैं। इसके विपरीत शेर, चीते, भेड़िये, बिल्ली आदि मांसभक्षी चंचल, उग्र, क्रोधी, उत्तेजक स्वभाव के हो जाते हैं। घासपात और मांस के भोजनक का यह प्रभाव है। इसी प्रकार उत्तेजक भोजन करने वाले व्यक्ति कामी, क्रोधी, झगड़ालू, अशिष्ट होते हैं। विलासी भोजन करने वाले आलस्य में डूबे रहते हैं, दिन-रात में 10-12 घंटे वे सोकर ही नष्ट करते रहते हैं। सात्विक भोजन करने वाले हलके, चुस्त, अच्छे कार्यों के प्रति अपनी रूचि दिखाते हैं। कम सोते हैं। मधुर स्वभाव के होते हैं। उनमें कामवासना अधिक नहीं सताती। उनके आन्तरिक अवयवों में विष-विकार एकत्रित नहीं होते।
भोजन से शरीर का छीजन, जो हर समय होता रहता है, दूर होता है। यदि यह छीजन दूर न होगा तो कोष दुर्बल हो जायेंगे और चूंकि शरीर कोषों का एक समूह है, कोष के दुर्बल होने से सम्पूर्ण शरीर दुर्बल हो जायेगा। कोषों को वे ही पदार्थ मिलने चाहिए, जिनकी उन्हें आवश्यकता हो, जैसे गरमी तथा स्फूर्ति देनेवाले, उनको पुष्ट करने और अच्छी हालत में रखने वाले पदार्थ। कोषों के अंशों के टूटने-फूटने से शरीर में बहुत से विषैले अम्ल पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इनको दूर करने के लिये क्षार बनाने वाले पदार्थ (पक्के मीठे फल, खट्टे फल, नीबू, आम, अनानास या प्राकृतिक ढंग से पकायी गयी साग-सब्जी, दही, छाछ, साग, घी खाने चाहिए)।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न करने वाले भोजनों की ओर संकेत किया है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा, उसका आचरण भी वैसा ही होता जाता है। भोजन से हमारी इन्द्रियां और मन संयुक्त हैं। इसी बात को छान्दोग्योपनिषद भी इस प्रकार कहता है ‘‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः, सत्वशुद्वौ धु्रवा स्मृतिः, स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।’’ अर्थात आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है। सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है, फिर पवित्र और निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुलभता से प्राप्त होती है।
अध्यात्म जगत में उपवास का बहुत ही महत्व है। अधिक खाये हुये अन्न पदार्थ को पचाने और उदर को विश्राम देने के लिये हमारे ऋषियों ने उपवास की योजना की है। चित्तवृत्तियां भोजन में लगी रहने से किसी उच्च विषय पर ध्यान एकाग्र नहीं होता। सात्विक अल्पाहार करने वाले व्यक्ति आध्यात्म मार्ग में दृढ़ता से अग्रसर होते हैं। जो अन्न बुद्धिवर्धक हो, वीर्यरक्षक हो, उत्तेजक न हो, कब्ज न करे, रक्त दूषित न करे, सुपाच्य हो इस प्रकार का भोजन सत्वगुण युक्त कहा जाता है। अध्यात्म जगत में उन्नति करने वालों के लिये पवित्र विचार और अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले तथा ईश्वरीय तेज उत्पन्न करने वाले अभ्यासियों को सात्विक आहार लेना चाहिए।
जितना ही अधिक अन्न पकाया जाता है, उतना ही उसके शाक्ति-तत्व विलीन हो जाते हैं। स्वाद चाहे बढ़ जाये, किन्तु उसके विटामिन पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। अलग-अलग रीतियों से उबालने, भूनने या तेल में पूड़ी-कचौड़ी की तरह तलने से आहार निर्जीव होकर राजसी-तामसी बन जाता है। विलायती दूध, सूखा दूध, रासायनिक दवाइयां, बाजारू मिठाइयां निर्जीव होकर अपना शक्ति-तत्व नष्ट कर देते हैं। भोजन में सुधार करना शारीरिक कायाकल्प करने का प्रथम मार्ग है। जो व्यक्ति जितनी जल्दी से गलत भोजनों से बचकर सही भोजन करने वाले हो जायेंगे, उनके शरीर दीर्घकाल तक सुदृढ़, पुष्ट और स्फूर्तिमान बने रहेंगे। क्षणिक जीभ के सुख को न देखकर, भोजन से शरीर, मन और आत्मा का जो संयोग है, उसे सामने रखना चाहिए। जब तक अन्न शुद्ध नहीं होगा, अन्य धार्मिक, नैतिक या सामाजिक कृत्य सफल नहीं होंगे। अन्न शुद्धि में सबसे बढ़कर आवश्यक है कि शुद्ध कमाई की सम्पत्ति का अन्न। जिसमें झूठ, कपट, छल, घूस, अन्याय, वस्तुओं में मिलावट आदि न हो। इस प्रकार की आजीविका से कमाये गये धन से जो अन्न प्राप्त होता है वही शुद्ध अन्न है। इसलिए व्यापार, नौकरी या अन्य पेशे में से यह पाप निकलना जरूरी है।

हम जो भोजन खाते हैं, केवल उसी के द्वारा हमारे शरीर का पोषण और नया निर्माण नहीं होता, अपितु भोजन करते समय हमारी जो मनःस्थिति होती है, हमारा मन जैसे सूक्ष्म प्रभाव फेंकता है और जिन संस्कारों या वातावरण में हम भोजन ग्रहण करते हैं, वे मनोभाव, विचार एवं भावनाएं अलक्षितरूप मे भोजन और जल के साथ हम ग्रहण करते हैं। वे हमारे शरीर में बसते और मासं, रक्त, मज्जा आदि का निर्माण करते हैं। इतः भोजन करते समय हमारे कैसे विचार और भावनाएं हैं, इस तत्व पर हमारे ग्रन्थों में बहुत महत्व दिया गया है। भोजन करते समय की आन्तरिक मनःस्थिति की स्वच्छता आवश्यक मानी गयी है। जैसे अच्छी-बुरी हमारी मनःस्थिति होगी, उसका वैसा ही प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ेगा।

यदि भोजन करते समय मन की स्थिति दूषित है तो अच्छे से अच्छा भोजन भी विकार और विषमय हो जाता है। क्रोध, उद्वेग, चिन्ता, चिड़चिडे़पन, आवेश आदि की उद्विग्न मनःस्थिति में किया हुआ भोजन विषैला हो जाता है। यह पुष्ट करने के स्थान पर उल्टा शरीर को हानि पहुंचाता और पाचन क्रिया को विकारमय कर देता है। क्रोध की स्थिति का भोजन न ठीक से चबाया जाता है और न ही सही से पचता है। इसी प्रकार चिन्तित मनःस्थिति को भोजन नसों में घाव उत्पन्न कर देता है। हमारी कोमल पाचन नलिकाएं शिथिल हो जाती हैं। इसके विपरीत शान्त और प्रसन्न चित्त मुद्रा में खाया गया अन्न शरीर और मन के स्वास्थ्य पर जादू जैसा गुणकारी प्रभाव डालता है। अन्तःकरण की शान्त सुखद वृत्ति में किये हुये भोजन के साथ-साथ हम प्रसन्नता, सुख-शान्ति और उत्साह की स्वस्थ भावनाएं भी खाते हैं, जिसका स्वास्थप्रद प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। आनन्द एवं प्रफुल्लता ईश्वरीय गुण हैं और क्लेश, चिन्ता, उद्वेग आसुरी प्रवृत्तियां हैं। इन दोनों प्रकार की चित्तवृत्तियों के अनुसार ही हमारा दैनिक भोजन दैवी या आसुरी गुणों से युक्त बनता है। हमारे देश में भोजन की आन्तरिक स्वच्छता को अधिक महत्व दिया जाता है। हिन्दू अपने से नीच विचारों के लोगों के हाथ का बना हुआ या उनके साथ बैठकर खाना इसलिए पसन्द नहीं करते कि उनके गुप्त और हीन विचारों प्रभावित होने से भोजन की पवित्रता नष्ट होती है। विदेशों में लोग बाहरी सफाई को ही पर्याप्त समझते हैं।

आप कभी ध्यान से देखिए कि हंसते-हंसते दूध पीने वाला शान्त, निर्दोष शिशु किस सरलता से साधारण सा दूध और मामूल अन्न खाकर और उसे पचाकर कैसा मोटा-ताजा, सुडौल, सात्विक और निर्विकार बनता जाता है। उसके मुख पर आपको सरलता दिखाई देगी। हमारे जीवन के विकास के साथ-साथ हमारे गुप्त मन का भी विकास होता रहता है और गुप्त मन हमारे शरीर में अज्ञातरूप से अनेक महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं किया करता है। इन प्रतिक्रियाओं का प्रभाव निरन्तर चलता रहता है। पोषण, मलविसर्जन, निवनिर्माण, नई शक्ति का उत्पादन, रक्त का बनना आदि सभी कार्य अन्तर्मन से होते रहते हैं।

भोजन बनाने वाले व्यक्ति का भोजन पर सर्वप्रथम प्रभाव पड़ता है। अतृप्त, भूखा, लालची, क्रोधी, हिंसावृत्तियुक्त, गंदा रसोइया अपने सम्पर्क से ही भोजन को दूषित कर देता है। एक तो वह शरीर या वस्त्रों से स्वच्छ नहीं होता और उसके शरीर या वस्त्रों की अस्वच्छता ही भोजन को दूषित कर देती है। दूसरे उसकी लालची मनोवृत्ति, स्वयं भोजन ग्रहण करने की इच्छा निरन्तर भोजन पर विषैला प्रभाव डाला करती है। बाजारू भोजन, दूकानों पर बिकनेवाली मिठाइयां, दूध आदि पर असंख्य अतृप्त भूखें व्यक्तियों की दृष्टियां पड़कर उन्हें दूषित बना देती है। अतः वे न तो पचती हैं और न शरीर को कोई लाभ ही देती हैं।

इसलिए सावधान रहिए। भोजन सात्विक वृत्ति के व्यक्ति का बनाया हुआ हो। वह तृप्त तथा स्वच्छ हो। रोगी न हो। भोजन स्वच्छ स्थान पर शान्तिपूर्वक प्रसन्न मुद्रा से गहण करें। जो कुछ मिल जाये उसे भ्रवान का प्रसाद मानकर ग्रहण कर लीजिए। इस प्रकार मन में शुभ भाव लाकर ब्रह्मार्पण करके जो भोजन किया जाता है, वह मन में शुद्ध, सात्विक संस्कार उत्पन्न करता है। भोजन में ईश्वरीय तत्वों का समावेश करने से रूखा-सूखा भोजन भी शक्ति उत्पन्न करता है। 

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