क्या कहता है वायु पुराण ?
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
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हम लाये हैं पाठकों के लिये हजारों पृष्ठों में फैले महान हिन्दू-धर्म-ग्रन्थ 18 पुराणों की सहज और सरल जानकारी संक्षिप्त रूप में। इसमें आख्यान हैं, जो पुराणों की विशालता में इंर्ट की तरह मजबूती से जड़े हैं। भारतीय जीवन शैली को समझने और उसे आज के संदर्भ में अपनाने की प्रेरणा से ओत-प्रोत हैं। पुराण ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं, जो वैदिक सभ्यता और सनातन धर्म का पूर्ण परियच देते ही हैं, साथ ही मनुष्य की जीवन शैली को सही रास्ता दिखाते हैं। आज के बेहद जटिल और व्यस्त दौर में व्यक्ति को इतनी फुर्सत ही नहीं कि वह इस विशाल ज्ञान-गंगा में गोते लगाकर ज्ञान प्राप्त कर सके, जबकि हम सब इस समृद्ध वांग्मय को जानने व समझने के लिय काफी विचलित रहते हैं। पुराणों की विस्तृत व विशाल शब्द संपदा का संक्षिप्तीकरण मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के लिये दुस्साहस ही है। परन्तु पाठकों के मन में यदि यह प्रयास अपनी संस्कृति, जीवन शैली व धर्म के प्रति बीज रूप में अपनी जड़ स्थापित कर गया, तो मुझे विश्वास है कि आप स्वयं पुराणों के वट वृक्ष की छाया का आनन्द लेंगे। इसी श्रृंखला में वायुपुराण को जानिए-
वायु पुराण काफी प्राचीन पुराण है। इसका साक्ष्य इसी पुराण के अध्याय 61 के श्लोक 119-120 में प्राप्त होता है। इस समय परिक्षित के पुत्र जनमेजय के पुत्र शतानीक के पुत्र अश्वमेघदत्त के पुत्र अधिसामकृष्ण का राज्य चल रहा है। उन्हीं के राज्यकाल में यह पुराण कुरूक्षेत्र में संकलित हुआ। यह भी इसकी एक विशिष्टता है, क्योंकि शेष सभी पुराणों की रचना नैमिषारण्य में हुई। ( यहां यह बात भी जानने योग्य है कि परम योगीराज व महामहिम पंडित गोपीनाथ कविराज जी ने अपनी पुस्तक ज्ञानगंज में यह रहस्य बताया है कि कुरूक्षेत्र में वायु तत्व प्रधान है और यह वायु तत्व का भुवन है)। वाणभट्ट ने अपनी कादंबरी में भी इस पुराण का उल्लेख किया है। यह पुराण अन्य पुराणों की तुलना में अपेक्षाकृत छोटा है। इसमें केवल 112 अध्याय हैं तथा मात्र 11 हजार श्लोक हैं, जो 4 खंडों में विभाजित हैं। जिन्हें पाद कहा गया है- प्रक्रिया पाद, अनुषंग पाद, उपोद्धात पाद और उपसंहार पाद।
यह पुराण 2 भागों पूर्व व उत्तर में विभाजित है। इसके आरम्भ में सृष्टि प्रकरण बड़े ही विस्तार के साथ कई अध्यायों में फैला हुआ है। इस पुराण में कल्पों का निरूपण अन्य पुराणों से भिन्न है। सृष्टि की एक-एक संस्था को कल्प का नाम दिया गया है। इसमें बताया गया है कि सर्पप्रथम आनंद स्वरूप शिव होते हैं। फिर वह इच्छा और तप से सृष्टि में प्रवृत्त होते हैं। अतः प्रथम तीन कल्प हैं- भव, भुव और तप। इसी प्रकार सूर्य, मेघ, अग्नि आदि की उत्पत्ति को भी एक कल्प कहा गया है। मेघां के प्रादुर्भाव से दामिनी चमकती है। मेघों को विष्णु रूप व विद्युत को रूद्र रूप महेश्वर बताया गया। इस कल्प निरूपण की एक विशिष्टता बीच-बीच में गान के स्वरों की उत्पत्ति बतलाई गयी है और बीच-बची में यज्ञ संस्थाओं की। स्वरपूर्वक सामगान में यज्ञ व इससे सृष्टि के उत्पन्न होने की बात कही गई है।
वायुपुराण भौगोलिक वर्णन के लिये विशेष पढ़ने योग्य है। जंबूद्वीप का वर्णन तो विशेषरूप से बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया है, जो अध्याय 34 से 39 तक वर्णित है। खगोल का वर्णन भी अन्य पुराणों की भांति इस ग्रंथ में अध्याय 50 से 53 तक विस्तार से उपलब्ध होता है। युग, यज्ञ, ऋषियों व तीर्थों का भी बहुत विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। वेदों की शाखाओं का वर्णन भी साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। प्राचीन ब्राह्मण वंशों के इतिहास को जानने के लिये अध्याय 61-65 में प्रजापति वंश वर्णन, कश्यपीय प्रजासर्ग (66-69) व ऋषिवंश (70) में बहुत उपयोगी सामग्री उपलब्ध होती है। 86 व 87वां अध्याय संगीत से संबंधित बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। यह पुराण भगवान शिव के चरित्र का इतने विस्तार से वर्णन करता है कि कुछ विद्वान तो इसे शिवपुराण का एक भाग होने की भूल कर बैठते हैं। पशुपति की पूजा से संबद्ध पाशुपत योग इस पुराण की एक विशिष्टता है। अन्य किसी भी पुराण में इतने विस्तार से पाशुपत योग का विवरण प्राप्त नहीं होता।
इस पुराण के उत्तर भाग में नर्मदा के तीर्थों का वर्णन है। नर्मदा जल को ही ब्रह्मा, विष्णु व शिव स्वरूप माना गया है तथा इसे पृथ्वी पर शिव की दिव्य द्रव्य शक्ति माना गया है, जो नर्मदा के उत्तर तट पर निवास करते हैं। वह भगवान के रूद्र के अनुचर होते हैं और जिनका दक्षिण तट पर निवास है। वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होते हैं। ऊंकारेश्वर से लेकर परिचय समुद्र तट नर्मदा जी में दूसरी नदियों के 35 पापनाशक संगमों की स्थिति बताई गयी है। जिनमें से 11 उत्तर तट पर और 23 दक्षिण तट पर स्थित बताये गये हैं। 35वां संगम तो स्वयं नर्मदा व समुद्र का संगम है। नर्मदा जी के महात्म्य के अतिरिक्त शार्वस्तव व 10 प्रजापति द्वारा भगवान शिव की स्तुति भी इस ग्रन्थ के महत्वपूर्ण अंशों में एक है। मुख्यतः शैव तत्व प्रधान होने पर भी इसमें भगवान विष्णु गदाधर का भी आख्यान (अध्याय 105-112) तक प्राप्त होता है। जिसमें मधु कैटभ की कथा तथा मोहिनी जन्म की कथा का प्रसंग मिलता है। इसके अतिरिक्त मुत्यु पूर्व के लक्षण, स्वर, ऊंकार, लिंगोद्भव, गंधर्व, मूर्छना लक्षण, गीत और अलंकार तथा गया तीर्थ आदि का भी वर्णन प्राप्त होता है।
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