Sunday, June 21, 2020

परलोक विद्या का रहस्य

 आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)

कर्मवश जीव स्वर्ग आदि परलोक में जाता है और वहां सुख-दुख का अनुभव करके तब मनुष्यलोक में पुनर्जन्म लेता है। उसमें कारण यह है कि स्वर्ग आदि स्थान भोगस्थान हैं। उनमें इस लोक में किये हुये कर्मों के भोगार्थ जीव जाता है। वहां वह कर्म करने में समर्थ नहीं होता। इसलिये स्वर्ग में गये हुये जीव देवयोनि  बने हुये भोगयोनि ही माने जाते हैं। तब कर्मफल की समाप्ति के थोड़े शेष कर्मों को लिये जीव पुनः कर्म करने के लिये इस लोक में आता है और मनुष्य बनता है। मनुष्य कर्मयोनि माना जाता है। कर्मफल भोगकर स्वर्ग से गिरकर इस लोक में आना भगवद्गीता में भी कहा है- ‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।’ (9/21) गीता के ही अध्याय 9 के श्लोक संख्या 21 का आशय भी है कि जीव यज्ञ आदि कर्मों से स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं। वहां देवता बनकर दिव्य भोगों को भोगते हैं। फिर पुण्य के समाप्त हो जाने पर स्वर्ग से गिरकर इस मनुष्यलोक को प्राप्त होते हैं।’ यही बात उपनिषद्ों भी कही है- ‘तद् यथा इस कर्मजितो लोकः क्षीयते, एवमेव अमुत्र (परलोक) पुण्यजितो लोकः (स्वर्ग) क्षीयते। (छान्दोग्य0 8/1/6)। यहां स्वर्ग की क्षीणता का तात्पर्य स्वर्ग से गिरकर फिर मनुष्यलोक में पुनर्जन्म लेने में है। मुण्डकोपनिषद में भी कर्मयोनि मनुष्यों के फलभोग के लिये स्वर्गगमन कहा है। तब वे भोगयोनि देव होकर, कर्म समाप्तप्राय हो जाने पर स्वर्गलोक से गिरकर फिर इस मनुष्यलोक में आ जाते हैं और कर्मयोनि होकर कर्म में प्रवृत्त हो जाते है। महाभारत के वनपर्व (261/42) में भी स्वर्ग और सुख दोनों को भिन्न-भिन्न बताया गया है। अतः स्वर्गलोक इस लोक से भिन्न ही सिद्ध हुआ। अथर्ववेद संहिता में द्युलोक, जिसके पृष्ठपर स्वर्गलोक है, पृथ्वीलोक से भिन्न माना गया है। उसी में देवता रहते हैं। इससे सिद्ध होता है मनुष्य कर्मयोनि है और देवता केवल भोगयोनि। यदि देवता भी कर्मयोनि होते तो उन्हें कर्म करने के लिये फिर इस लोक में आना न पड़ता। 

हिन्दुओं द्वारा मृतकों को श्राद्ध-तर्पण देखकर वैदेशिक वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हुआ है। उन्होने उसका परीक्षण प्रारम्भ कर दिया। उससे उन्हें प्रतीत हुआ कि मरा हुआ व्यक्ति अभाव को प्राप्त नहीं हो जाता, किन्तु मरने के बाद उसकी स्थिति परलोक में हो जाती है। उत्तम माध्यम द्वारा हम उससे सम्बन्ध करके उससे लाभ ने सकते हैं। सबकी शैलियां भिन्न-भिन्न होती हैं। वैदेशिकों ने मृतकों के आकर्षणार्थ अपने ढंग के उपाय जारी किये। हमारे पूर्वजों ने कुश, मधु, तिल, गंगाजल, तुलसीपत्र, चावलों के पिण्ड आदि का मृतकों के जीव के आकर्षणार्थ उपयोग कर रखा है। इनका भी यन्त्र बनाकर निरीक्षण-परीक्षण करना चाहिये। हमारे पूर्वजों की प्रायः सभी बातें परीक्षण-निरीक्षण करने पर सत्य सिद्ध हुई हैं। हम स्थूल शरीर होने से सीमित शक्ति वाले हैं, पर मृतक पुरूष स्थूल-शरीर छूट जाने से पारलौकिक दिव्य सूक्ष्म शरीर मिलने से अलौकिक शक्तिशाली होते हैं। उनसे सम्बन्ध स्थापित करके हम उस लोकोत्तर शक्ति का लाभ उठा सकते हैं। घड़े में ढके दीपक की प्रकाशन-शक्ति सीमित होती है। घेड़े से बाहर ठहरे दीपक की प्रकाशन-शक्ति अधिक रहा करती है। हम भी स्थूल शरीराछन्न होने से उस घड़े में रखे दीपक की तरह हैं और परलोक प्राप्त पुरूष उसके अपवाद हैं। आत्मा के न्यायादि शास्त्रसम्मत विभुत्व का वही उपयोग ले सकते हैं। 

उदाहरण के लिये एक व्यक्ति अधिक बीमार है। हम उसका उपचार करके भी उसे स्वस्थ नहीं कर सके। उस समय यदि हम परलोकस्थ आत्मा से सम्बन्ध करके उससे उसकी दवाइयां पूछें, तो अधिक ज्ञानशाली होने से उनसे बतायी गयी दवाइयां सम्भवतः उस बीमार के लिये हितकारक सिद्ध होंगी। इस प्रकार की परलोकस्थ आत्माओं से बतायी गयी दवाइयां प्रायः सफल सिद्ध भी हो चुकी हैं। जब परलोक प्राप्त के हस्ताक्षर मिल जाते हुये देखे गये हैं, उनकी बतायी गुप्तधन गड़ने की बातें मिल गयी हैं, उनके छाया-चित्र गृहीत हो जाते हैं, तो इस विद्या में उन्नति करके हम कई लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय में श्रद्धा करने से ‘श्रद्धया सत्यमाप्यते’। (यजुर्वेद 19/30) ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् (गीता 4/39) हमें सत्य और ज्ञान की प्राप्ति होगी। हमारे प्राचीन लोग भी मृतक व्यक्ति का परलोक में निवास और उसका आह्वाहन भी मानते थे। लंका विजय के बाद अग्नि-शुद्धि के समय परलोक से आये हुये राजा दशरथ ने भी सीता की शुद्धि में साक्षी दी थी। इस विषय की जानकारी से एक लाभ अवश्य मिलेंगा कि मृत्युभय छूट जायेगा। दूसरा लाभ यह होगा कि हमारा मृतक सम्बन्धी, जिसे हम सदा के लिये बिछुड़ गया समझते है, फिर हम उसे अपने निकट पायेंगे। फिर मृतक का श्राद्ध-तर्पण भी प्रत्यक्षानुगृहीत हो जायेगा। इस परलोकविद्या की उन्नति हो जाने पर हम स्वर्गीय देवताओं से भी वार्तालाप कर सकेंगे। 

धर्मशास्त्रों की कई बातें आज के समय में प्रचलित न होने से अपुपयोगी मालूम पड़ती हैं। पर हमारे ऋषि-मुनि बहुत विद्वान थे। उनकी बातें अब विज्ञान-सिद्ध हो रही हैं। हमारी अपेक्षा पितरों में अधिक शक्ति रहती हैं। उनकी अपेक्षा देवताओं में अधिक शक्ति है। देवता-विषय बहुत जटिल है। आरम्भ में पितृ-विषय भी बहुत जटिल था। पितरों का आह्वाहन तथा आकर्षण एवं उनका यहां आगमन और संवाद तथा उनसे हमारा संरक्षण होता है। यह बात बहुत लोग नहीं मानते थे। इतिहास पुराण में मृतक दशरथ आदि का इस लोक में आने का वर्णन आता है। योगदर्शन के व्यासभाष्य में भी ‘पितृन् अतीतान् अकस्मात् पश्यति।’ (3/22) में भी यह संकेत आया है। अनुसन्धानकर्ताओं ने अपनी खोजों से यह विषय समूल सिद्ध पाया है। बहुत कुछ सफलता भी इस विषय में प्राप्त हो चुकी है। तब आगे अनुसंधाताओं का देवतावाद की तरफ भी ध्यान जायेगा। 

शास्त्रों के अनुसार पितृगण चन्द्रलोक के पृष्ठपर रहते हैं। चन्द्रग्रह की कक्षा सब ग्रहों से नीचे और भूमण्डल के निकट है। तभी भूमण्डल के निवासी उसके साथ के ठहरे चन्द्रलोक के पृष्ठ पर रहने वाले पितरों का यथाशक्ति आह्वाहन या आकर्षण करने में शीघ्र सफल हो गये हैं। वेद में भी ‘आ यन्तु नः पितरः।’ (यजुर्वेद 19/58) इत्यादि मन्त्रों से पितरों का आह्वाहन तथा ‘अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तः।’ से तृप्ति ‘अधि बु्रवन्तु’ से पितरों का हमें उपदेश वा संवाद, ‘ते अवन्तु अस्मान्’ से हमारी पितरों द्वारा ‘पान्ति रक्षन्ति इति पितरः’ इस व्युत्पत्ति से हमारे किसी अस्वस्थ आदि के स्वास्थ्य की, (उत्तम औषधि बताकर) रक्षा करना विदित है। पितरों के आकर्षण पर आर्यसमाजी विद्वान श्रीरघुनन्दन शर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वैदिक-सम्पत्ति’ (प्र0सं0 के 371 पृष्ठ पर प्रकाश डाला है। उन्होने लिखा है- प्रश्न यह है कि चन्द्रलोक से जीवों को किस प्रकार खींचा जाये। जीवों के खींचने का वही तरीका है, जो सूर्यकान्तमणि के द्वारा सूर्यताप खींचने में और चन्द्रमान्तमणि के द्वारा चन्द्रजल के खींचने में प्रयोग लाया जाता है। जिस प्रकार से चन्द्रकान्त के प्रयोग से चान्द्रजल की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार चान्द्र-पदार्थों को एकत्रित करने से चान्द्रवीर्य भी आकर्षित होता है। चान्द्रवीर्य में ही जीव रहते हैं, इसलिये उन पदार्थो। में खिंच आते हैं। जो चान्द्राकर्षण के लिये विधि से एकत्रित किये जाते हैं। वे पदार्थ- दूध, घृत, चावल, मधु, तिल, रजतपात्र, कुश (तुलसीदल) और जल हैं। यह प्रक्रिया शरत्पूर्णिमा के दिन लोग करते हैं। परन्तु विधिपूर्वक क्रिया तो पितृश्राद्ध के समय ही होती है। पितृश्राद्ध अपराह्न के समय होता है। उसमें दूध, घृत, मधु, कुश आदि सभी पदार्थ रखे जाते हैं। पितरों का प्रतिनिधि पुत्र अथवा पौत्र भी उन पदार्थों को छूता हुआ वहीं पर बैठता है। इसलिये यह सब हवि आदि सामग्री उसी प्रकार का यन्त्र बन जाती है, जिस प्रकार चन्द्रमणि। इसी में पितर खींचकर आते है- ‘परा यात पितरः सोम्यासः।’ (अथर्ववेद 18/4/63)

भूमण्डल (पृथ्वी) के निकट होने से ही वैज्ञानिक भी राकेट आदि से चन्द्रलोक की यात्रा करने का प्रयास करते रहते हैं। पर देवता द्युलोक के अन्य विभागों मे रहा करते हैं। वे पितरों की अपेक्षा हमसे बहुत दूर हैं। हमारा एक मास पितरों का दिन-रात होता है। हमारा एक वर्ष देवताओं का दिन-रात होता है। परन्तु यदि हमारा विज्ञान बढ़ता गया तो हम पितरों की भांति देवताओं के भी निकट हो जायेंगे। कुन्ती को दुर्वासा मुनि से दिये हुये मन्त्रों से सूर्य, यम, वायु, इन्द्र, आश्विनीकुमार जैसे देवता आये थे, यह सर्वविदित है। पौराणिक इतिहास में भी जो देवताओं का भूलोक में आना बताया गया है, वह इसी बात को सिद्ध करता है कि हमारे पूर्वजों को देवताओं को बुलाने की विद्या भी ज्ञात थी। हमारे राजा दशरथ आदि रथों द्वारा देवलोक में भी जाया करते थे। अब यदि प्रयत्न से पितृवाद कुछ सुलझ गया है, तब समय आने पर देवतावाद भी सुलझ पायेगा। 
यजुर्वेद का एक मन्त्र है- 
आयन्तु नः पितरः सोम्यासोअग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोअधिब्रुवन्तु। तेअवन्तु अस्मान्।
(यजुर्वेद-सं0 19/58)
इस मन्त्र से ज्ञात होता है कि पितरों को स्वधा से तृप्त करने का विचार करने से ही हमारे आह्वाहन पर हमारे यहां आते हैं और वे हमसे संवाद करते हैं और हमें उत्तम उपाय बताकर पितृ नाम को (पाति रक्षति इति) सार्थक करते हुये हमारी रक्षा भी करते हैं। इसके लिये माध्यम भी उत्तम होना चाहिये। श्राद्ध भी पूर्व समय में उन्हीं माध्यमों के प्रयोगकर्ता वैज्ञानिक ब्राह्मणों को खिलाया जाता था। श्राद्धविधि के अनुसार सुचरित्र, वेद आदि शास्त्रों का विद्वान, बहुभाषाप्रवीण, पितृकर्मनिष्णात ब्राह्मण माध्यम रखा जाये। इस कर्म में मृतक के पुत्र, पौत्र वा प्रपौत्र का सम्पर्क अवश्य होना चाहिये। उन्हें श्रद्धालु भी होना चाहिये। 

आह्वाहन का समय
पितरांं के आह्वाहन के समय अमावस्या आदि तिथि का नियम, अपराह्नकाल, यज्ञोपवीत के दक्षिण स्कन्ध में करने का नियम, तिल, घृत, मधु, तुलसीदल, गंगाजल युक्त ओदन का तथा रजतपात्र का उपयोग भी शास्त्रानुकूल अनुसृत किया जाना चाहिये। हां, आश्विन के दिनों में मृतक की मृत-तिथि के अनुसार भी पितरों का आह्वाहन हो सकता है, अथवा क्षयाहवाले दिन भी मृतक का आह्वाहन हो सकता है। उसका कारण यह है कि पितृलोक चन्द्रलोक पर है। आश्विन के दिनों में चन्द्रमा अन्य मासों की अपेक्षा पृथ्वी के अधिक निकट होता है, इसलिये उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी तथा उसमें स्थित देहधारियों पर विशेष रूप से पड़ता है। तब चन्द्रलोक स्थित पितरों का भी हमसे सम्बन्ध होकर परस्पर आदान-प्रदान होता है। क्षयाह की तिथि में वे पितर सीधे उसी मार्ग में होते हैं, क्योंकि तिथि चन्द्रगति के अनुसार हुआ करती है और उस स्थिति में पितर उसी मार्ग में हुआ करते हैं, जिस तिथि में वे मृत्यु प्राप्त करके उस स्थान में जाते हैं। 

कृष्णपक्ष में पितरों के आह्वाहन का कारण यह होता है कि उस समय सूर्य उनके निकट होने से वह उनका दिन होता है। अमावस्या उनका मध्यान्ह होती है। जब पितरों का निद्रा समय हो, (शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की सप्तमी तक) उस समय पितरों का आह्वाहन नहीं करना चाहिये। क्योंकि उस समय वे बिना आश्विन मास के अन्य मास में संवाद नहीं करना चाहते। उस समय कई अन्य भूत-प्रेत आदि ही संवाद कर रहे हों, यह सम्भव होता है। तीन पीढ़ी से अधिक के पितरों को भी संवाद के लिये नहीं बुलाना चाहिये, क्योंकि वे उस समय चन्द्रलोक से ऊपर के लोक में चले जाते हैं। पितृकोटि में न रहकर देवकोटि में चले जाते हैं। उन्हें बुलाने के लिये शास्त्रीय अन्य उपाय करने पड़ेगे। कई मृतक तो आरम्भ में ही पितृकोटि में न जाकर परलोक के निम्नस्तर नरक आदि लोकों में अथवा भूत-प्रेत आदि योनि में चले जाते हैं, जहां वे बहुत अशान्त रहेते हैं। हमारे पूर्वज जिस बात को आध्यात्मिक तरीके से तथा मन्त्रशक्ति से करते थे, पाश्चात्य वैज्ञानिक उसी बात को आधिभौतिक प्रकार से तथा यन्त्रशक्ति से करते हैं। पहले प्रकार का अवलम्बन करने पर शास्त्रों पर दृढ़ निष्ठा बनी रहती है, श्रद्धा विश्वास बना रहता है, आस्तिकता बनी रहती है। 

निष्कर्षतः परलोकविद्या है, पुनर्जन्म भी अवश्य है। यह सब सुकर्म-दुष्कर्म के फल हैं। जो इन वादों पर हृदय से आस्था रखते हैं। वे असत्य, कपट,चोरी, ठगी, बेईमानी आदि दुष्कृत्य नहीं करते। पर परलोक से डरने वाले लोग, पुनर्जन्म और परलोक एवं कर्मफल में विश्वास रखने वाले , धर्मपरायण, निर्लोभ, प्रायः निःस्वार्थ, परोपकार-परायण, पुण्यनिरत रहा करते हैं। आजकल कई लोग आडम्बर से तो पुनर्जन्म मानते हैं, पर वेद-शास्त्रआदि में छल, अर्थ का अनर्थ आदि करके, स्वविरूद्ध शास्त्रीय सिद्धान्तों में प्रक्षेप बताकर ऋषि-मुनियों के अनभीष्ट अर्थ करके परमेश्वर या परलोक से डर नहीं रखते, उन्हीं के संज्ञान में लाने हेतु यह लेख लिखा गया है।



No comments:

Post a Comment