वैदिक जगत के सूर्य सर्ववेदभाष्कार आचार्य सायण
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
(पत्रकार/लेखक)
|
शास्त्रों का कथन है कि यज्ञ के चार मुख्य ऋत्विक् होते हैं। होता, उद्गाता, अध्वर्यु ओर ब्रह्मा। होता का वेद ऋग्वेद, उद्गाता का सामवेद, अध्वर्यु का यजुर्वेद और ब्रह्मा का अथर्ववेद। याज्ञिक विधान वेद की आत्मा है। इसीलिये यज्ञ को वेद का प्रधान विषय माना जाता है। यही कारण है कि याज्ञिक विधान के सम्यक ज्ञान के बिना कोई वेद का भाष्य नहीं कर सकता। आचार्य सायण को याज्ञिक विधान का अच्छा ज्ञान था। उनका भाष्य इतना प्रामाणिक, युक्ति-युक्त तथा शास्त्र के अनुकूल है कि उसमें कहीं भी लेशमात्र संशोधन की कोई गुंजाइश नहीं है। इसीलिये उन्होनें वेद के प्रत्येक सूक्त की व्याख्या करने से पूर्व ही उस सूक्त के ऋषि, देवता, छन्द और विनियोग आदि का ऐसा प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिससे सूक्तगत मन्त्रों की प्रसंगों के अनुकूल व्याख्या करने का मार्ग प्रशस्त होता है। उनके भाष्यों की भाष्य भूमिका तो वैदिकदर्शन से परिचित होने के लिये ऐसा मार्ग है, जिस पर चलकर कई जिज्ञासुओं और देश-विदेश के विद्वानों को वेदविद्या का तथ्यपरक ज्ञान प्राप्त हुआ है।
प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर ने भी आचार्य सायण को वेदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रशस्त माना है। एच.एच.विल्सन द्वारा उनके भाष्य का अनुसरण करते हुये ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद करना भी यही स्पष्ट करता है कि यदि आचार्य सायण के विविधार्थ-संकलित भाष्यरत्न नहीं होते तो किसी भी भारतीय अथवा पाश्चात्य विद्वान का वेद के अगम्य ज्ञानदुर्ग में प्रवेश करना सम्भव नहीं होता।
आचार्य सायण का परिचय
वैदिक दर्शन के मर्मज्ञ, सर्ववेदभाष्यकार और भारतीय संस्कृति के महान उपासक आचार्य सायण की जन्म तिथि के विषय में निश्चित जानकारी नहीं है। कुछ प्रसिद्ध विद्वानों ने इस पर अनुसंधान किया, उसी के आधार पर कुछ कहा जा सकता है। आचार्य सायण का जन्म तुंगभद्रा नदी के तटवर्ती हप्पी नामक नगर में संवत 1324 विक्रमी में हुआ था। उनके पिता का नाम मायण और माता का नाम श्रीमती था। उनके 2 भाई थे- माधव और भोगनाथ। उनके बड़े भाई माधवाचार्य विजयनगर हिन्दू साम्राज्य के संस्थापकों में थे। यह हिन्दू साम्राज्य लगभग 300 वर्षों तक मुस्लिम राजाओं से युद्ध करता रहा।
आचार्य सायण अपनी 31 वर्ष की आयु में एक कुशल राज्य प्रबन्धक एवं मन्त्री थे। वि0सं. 1403 (सन 1346) में वे हरिहर के अनुज कम्पण राजा के मन्त्री बने और 9 वर्ष तक उन्होनें बड़ी कुशलता से राज्य संचालन का कार्य किया। कम्पण राजा की मृत्यु होने पर उनका एकमात्र पुत्र संगम (द्वितीय) अबोध बालक था। उसकी शिक्षा दीक्षा का सारा भार प्रधान मन्त्री पद पर रहते हुये आचार्य सायण ने जिस तत्परता, लगन तथा ईमानदारी से वहन किया, उसका ही यह परिणाम हुआ कि संगम नरेश राजनीति में अत्यन्त पटु होकर आदर्श राजा के रूप में प्रसिद्ध हुये। 48 वर्ष की आयु होने पर उन्होने लगभग 16 वर्षा सन 1364-1380 तक विजयनगर के प्रसिद्ध हिन्दू सम्राट बुक्क के यहां मंत्री के उत्तरदायी पद पर रहे। राजा बुक्क की मृत्यु होने पर उनके पुत्र महाराज हरिहर के वे सन 1381 से 1387 तक मंत्री रहे। आचार्य सायण के बड़े भाई माध्वाचार्य असाधारण प्रतिभासम्पन्न महापुरूष थे। इनकी प्रतिभा का आंकलन सर्वदर्शन-संग्रह, पराशरमाधव, पंच्चदशी, अनुभूतिप्रकाश तथा शंकरदिग्विजय आदि ग्रन्थों से पता चलता है। आचार्य सायण के छोटे भाई भी प्रसिद्ध विद्वान थे। इनकी एक सिंगले नामक बहन भी थी, जिसका विवाह रामरस नामक ब्राह्मण से हुआ था। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि उनका परिवार लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों तथा महापुरूषों का था।
आचार्य सायण के विद्या गुरू
ग्रन्थों के अवलोकन से पता चलता है कि आचार्य सायण भारद्वाज गोत्री कृष्णयजुर्वेदी ब्राह्मण थे। उनकी वैदिक शाखा तैत्तिरीय थी और सूत्र बौधायन था। आचार्य सायण के 3 गुरू थे। विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकृष्णाचार्य। ये तीनों अपने समय के बहुत ही प्रख्यात और आध्यात्मिक ज्ञानसम्पन्न महापुरूष थे। ये तीनों प्रख्यात विद्वान न केवल आचार्य सायण तथा उनके दोनों भाइयों के विद्यागुरू थे, वरन तत्कालीन विजयनगर के हिन्दू राजाओं के भी आध्यात्मिक गुरू थे। स्वामी विद्यातीर्थ परमात्मतीर्थ के शिष्य थे। वे आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीपीठ के प्रसिद्ध आचार्य थे। इसके पश्चात श्रृंगेरीपीठ के आचार्य पद पर माध्वाचार्य नियुक्त हुये।
आचार्य सायण का वैदिक ज्ञान और साहित्य
संस्कृत भाषा तथा वैदिक साहित्य के महान विद्वान थे आचार्य सायण। उनके द्वारा किये गये ऋग्वेद के प्रथम एवं द्वितीय अष्टक के भाष्य को देखने पर ज्ञात होता है कि उनका संस्कृत व्याकरण का ज्ञान असाधारण था। मीमांसा शास्त्र की विशेष शिक्षा ग्रहण करने के कारण वे अपने युग के मीमांसा-दर्शन के अद्वितीय विद्वान हुये। उनके भाष्य ग्रन्थों में उनका मीमांसा शास्त्र का उच्च कोटि का ज्ञान परिलक्षित होता है। उन्होने ऋग्वेद, कृष्ण एवं शुक्ल-यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की प्रमुख संहिताओं, ब्राह्मणों तथा आरण्यकों का गुरू-परम्परा से विधिपूर्वक अध्ययन एवं मनन किया था। इसीलिए वे इस समस्त वैदिक साहित्य के पूर्ण अधिकारी विद्वान बनकर इतने उच्च कोटि के भाष्य प्रणयन का कार्य कर सके। जिसके प्रकाश से आज 6 शताब्दियां व्यतीत होने पर भी समस्त वैदिक जगत प्रकाशित है और आगे भी प्रकाशमान रहेगा। वास्तव में उनका जन्म ईश्वरीय विभूति के रूप में वेदभाष्य प्रणयन के लिये हुआ था। इसी हेतु उनका पूरा बाल्यकाल इसी महान लक्ष्यप्राप्ति की तैयारी में ही व्यतीत हो गया था। संस्कृत साहित्य की प्रत्येक विद्या से परिचित होने के कारण एक महान वैदिक विद्वान के रूप में आचार्य सायण का आविर्भाव भारतीय इतिहास की अविस्मरणीय घटना है।
वेदों के गूढ ज्ञान से लेकर पुराणों के व्यापक पाण्डित्य तक, अलंकारों के विवेचन से पाणिनि-व्याकरण के उत्कृष्ट अनुशीलन तक, यज्ञमीमांसा के अन्तःपरिचय से लेकर आयुर्वेद जैसे लोक कल्याणकारी शास्त्र के व्यावहारिक ज्ञान तक सर्वत्र आचार्य सायण का असाणारण पाण्डित्य सामान्य जनता के लिये उपकारक तथा प्रतिभाशाली विद्वानों के लिये विस्मयपूर्ण आदर का पात्र बना हुआ है। डा0 ऑफ्रैक्ट के अनुसार उन्होने लगभग 30 वर्ष की आयु से लेकर अपने जीवन के अन्तिम समय तक लगातार अटूट परिश्रम एवं अदम्य उत्साह से साहित्य साधना करते हुये छोटे-बड़े 50 ग्रन्थों की रचना की। आचार्य सायण के 7 ग्रन्थ विशेष विख्यात है- सुभाषित-सुधानिधि, प्रायश्चित-सुधानिधि, अलंकार-सुधानिधि, आयुर्वेद-सुधानिधि, पुरूषार्थ-सुधानिधि, यज्ञतन्त्र-सुधानिधि और धातुवृत्ति। इन रचनाओं से ज्ञात होता है कि उन्होने वेदभाष्य के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों की रचना से अपने बहु-आयामी व्यक्तित्व का परिचय दिया है।
आचार्य सायण ने ऋग्वेद, शुक्लयजुर्वेद (काण्वशाखा), कृष्णयजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन पांचों संहिताओं तथा ऐतरेय, तैत्तिरीय, ताण्ड्य, षड्विंश सामविधान, आर्षेय, देवताध्याय, उपनिषद, संहितोपनिषद, वंश, शतपथ और गोपथ नामक उक्त पांचों संहिताओं के 12 ब्राह्मणों एवं तैत्तिरीय तथा ऐतरेय नामक कृष्णयजुर्वेद और ऋग्वेद के 2 आरण्यकों पर भाष्य लिखकर उन्होने वैदिक जगत का महान उपकार किया है। उन्होने शुक्लयजुर्वेद और सामवेद के समस्त ब्राह्मणों पर भाष्य रचना की। शुक्लयजुर्वेद के 100 अध्यायों वाले शतपथ ब्राह्मण का उनका भाष्य वैदिक कर्मकाण्ड का विश्वकोष है। सामवेद के 8 उपलब्ध होने वाले ब्राह्मणों पर उनके भाष्य वैदिक दर्शन के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ऋग्वेद की शाकल-संहिता पर उनका जो भाष्य मिलता है, वह भारतीय चिन्तन एवं मनन और ज्ञान का अथाह समुद्र है। उसके समक्ष पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती सभी भाष्य अपूर्ण तथा फीके प्रतीत होते हैं। उसी का आश्रय लेकर उत्तरवर्ती भाष्यकारों ने अपने-अपने भाष्यां के प्रणयन का प्रयास किया है। ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण ओर ऐतरेय आरण्यक पर उनके भाष्य इतने उत्कृष्ट एवं प्रामाणिक हैं कि विद्वान उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता, उसके ब्राह्मण तथा आरण्यक पर उनके भाष्य यज्ञ-सम्बन्धी महान ज्ञान के द्योतक हैं। अथर्ववेद की संहिता और उसके गोपथ ब्राह्मण पर लिखा उनका भाष्य उनकी अद्भुत प्रतिभा का परिचायक है।
आचार्य सायण के इन महान वेद-भाष्य कार्य को देखकर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उन्होने वैदिक साहित्य के बहुत बड़े भाग पर अपने विस्तृत तथा प्रामाणिक भाष्य लिखकर इस क्षेत्र में अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया है। आज तक किसी भारतीय अथवा पाश्चात्य विद्वान ने इतने अधिक वैदिक ग्रन्थों पर ऐसे सारगर्भित एवं प्रामाणिक भाष्य नहीं लिखे। इसीलिए पाश्चात्य विद्वान प्रो0 मैक्समूलर ने कहा था ‘‘आचार्य सायण के भाष्य-ग्रन्थ वैदिक विद्वानों के लिये अन्धे की लकड़ी के समान हैं।’’ भारत के महान मनीषी स्वामी श्रीकरपात्रीजी ने भी कहा था कि वैदिक विद्वानों को सायण की ओर लौटना चाहिए। उनका यह कथन आचार्य सायण का वेदभाष्य कार्य को अतुलनीय एवं अद्वितीय घोषित करता है। आचार्य सायण ही एकमात्र ऐसे वेदभाष्यकार हैं, जिन्हें विद्वान सर्ववेदभाष्यकार कहकर सम्बोधित करते हैं। उनके भाष्य ग्रन्थ सनातन संस्कृति, धर्म, आध्यात्म और शिक्षा के विश्वकोष हैं।
No comments:
Post a Comment