भौतिक विज्ञानवेत्ता महर्षि भरद्वाज
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी ‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’ (वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स) |
भरद्वाज ऋषि ने बड़े गहन अनुभव किये थे। उनकी शिक्षा के आयाम अतिव्यापक थे। भरद्वाज ने इन्द्र से व्याकरण शास्त्र का अध्ययन किया था और उसे व्याख्यासहित अनेक ऋषियों को पढ़ाया था। ‘‘ऋक्तन्त्र’’ और ‘‘ऐतरेय ब्राह्मण’’ दोनों में इसका वर्णन है। भरद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद भी पढ़ा था, ऐसा चरक ऋषि ने लिखा है। अपने इस आयुर्वेद के गहन अध्ययन के आधार पर भरद्वाज ने आयुर्वेदसंहिता की रचना भी की थी। भरद्वाज ने महर्षि भृगु से धर्मशास्त्र का उपदेश लिया था और ‘‘भरद्वाज-स्मृति’’ ग्रन्थ की रचना की। महाभारत, शान्तिपर्व (182/5) तथा हेमाद्रि नामक ग्रन्थ में इसका उल्लेख मिलता है। पाच्चरात्र भक्ति सम्प्रदाय में प्रचलित है कि सम्प्रदाय की एक संहिता ‘‘भरद्वाज संहिता’’ के रचनाकार भी ऋषि भरद्वाज ही थे।
महाभारत, शान्तिपर्व (210/21) के अनुसार ऋषि भरद्वाज ने धनुर्वेद पर प्रवचन किया था। वहां (58/3) में यह भी कहा गया है कि ऋषि भरद्वाज ने राजशास्त्र का प्रणयन किया था। कौटिल्य ने अपने पूर्व में हुये अर्थशास्त्र के रचनाकारों में ऋषि भरद्वाज को स्वीकारा है। ऋषि भरद्वाज ने ‘‘यन्त्रसर्वस्व’’ नामक एक बड़े ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने ‘‘विमान शास्त्र’’ के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिये कई प्रकार की धातुओं के निर्माण का वर्णन है।
इस प्रकार एक साथ व्याकरणशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, राजशास्त्र, अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, आयुर्वेद और भौतिक विज्ञानवेत्ता ऋषि भरद्वाज थे। इस बात को अनेक ग्रन्थ और अन्य ग्रन्थों में दिये उनके ग्रन्थों के उद्धरण ही प्रमाणित करते हैं। उनकी शिक्षा के विषय में एक मनोरंजक घटना तैत्तिरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में प्राप्त होती है। घटना कुछ इस प्रकार है-
भरद्वाज ने सम्पूर्ण वेदों के अध्ययन का यत्न किया। अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और कठोर तपस्या से इन्द्र को प्रसन्न किया। भरद्वाज ने प्रसन्न हुये इन्द्र से अध्ययन हेतु 100 वर्ष की आयु मांगी। भरद्वाज अध्ययन करते रहे। सौ वर्ष पूरे हो गये। अध्ययन की लगन से प्रसन्न होकर पुनः 100 वर्ष अध्ययन के लिये और मांगे। इन्द्र ने 100 वर्ष प्रदान किये। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भरद्वाज ने 300 वषों तक अध्ययन किया। इसके बाद पुनः इन्द्र ने उपस्थित होकर कहा- ‘‘हे भरद्वाज! यदि मैं तुम्हें 100 वर्ष और दे दूं तो तुम उनसे क्या करोगे? भरद्वाज ने सरलता से उत्तर दिया- ‘‘मैं वेदों का अध्ययन करूंगा।’’ इन्द्र ने तत्काल बालू के 3 पहाड़ खडे़ कर दिये, फिर उनमें से एक मुट्ठी हाथों में लेकर कहा- ‘‘भरद्वाज, समझो ये तीन वेद हैं और तुम्हारा 300 वषों का अध्ययन यह मुट्ठी भर रेत है। वेद अनन्त हैं। तुमने आयु के 300 वषों में जितना जाना है, उससे न जाना हुआ अत्यधिक है।’’ अतः मेरी बात पर ध्यान दो- ‘‘अग्नि सब विद्याओं का स्वरूप है। अतः अग्नि ही जानो। उसे जान लेने पर सब विद्याओं का ज्ञान स्वतः ही हो जायेगा, इसके बाद इन्द्र ने भरद्वाज को सावित्र्य अग्नि विद्या का विधिवत ज्ञान कराया। भरद्वाज ने उस अग्नि को जानकर उससे अमृत तत्व प्राप्त किया और स्वर्गलोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया। (तै0ब्रा0 3/10/11)। महर्षि ने इन्द्र द्वारा अग्नि तत्व का साक्षात्कार किया, ज्ञान से तादात्म्य किया और तन्मय होकर रचनाएं की। आयुर्वेद प्रयोगों में वे बहुत निपुण थे। इसीलिये उन्होने ऋषियों में सबसे अधिक आयु प्राप्त की। वे ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘‘दीर्घजीवितम’’ पद से सबसे अधिक लम्बी आयु वाले ऋषि गिने गये हैं। (ऐतरेय आरण्यक 1/2/2)। चरक ऋषि ने भरद्वाज को ‘‘अपरिमित’’ आयुवाला कहा (सूत्र स्थान 1/26)।
भरद्वाज ऋषि काशिराज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्ही मन्त्रदृष्टा ऋषि ने यज्ञ सम्पन्न कराया था (जै0ब्रा0 3/2/8)। वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गये थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। उक्त प्रमाणों से भरद्वाज ऋषि को ‘‘अनूचानतम’’ और दीर्धजीवितम’’ या ‘‘अपरिमित’’ आयु कहे जाने में को अतिश्योक्ति नहीं है।
ऋषि भरद्वाज ने ‘‘सामगान’’ को देवताओं से प्राप्त किया था। ऋग्वेद दसवें मण्डल में कहा गया है- ‘‘यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफा में गुप्त था, उसे जाना, परन्तु भरद्वाज ऋषि ने द्युस्थान (स्वर्गलोक) के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया’’ (ऋक्0 10/181/2)। यह बात भरद्वाज ऋषि की श्रेष्ठता और विशेषता दोनों दर्शाती है। साम का अर्थ है (सा और अमःः) यानि ऋचाओं के आधार पर आलाप। अर्थात ऋचाओं के आधार पर किया गया गान साम है। भरद्वाज ने ‘‘बृहत्साम’’ को आत्मसात किया था। ब्राह्मण ग्रन्थों की परिभाषाओं के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि ऋचाओं के आधार पर स्वरप्रधान ऐसा गायन जो स्वर्गलोक, आदित्य, मन, श्रेष्ठत्व और तेजस को स्वर आलाप में व्यंज्जित करता हो, ‘‘बृहत्साम’’ कहा जाता है।
ऋषि भरद्वाज ऐसे ही बृहत्साम गायक थे। वे चार प्रमुख साम गायकों, गोतम, वामदेव, भरद्वाज और कश्यप की श्रेणी में गिने जाते हैं। संहिताओं में ऋषि भरद्वाज के इस ‘‘बृहत्साम’’ की बहुत महिमा वर्णित है। काठकसंहिता में तथा ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि ‘‘इस बृहत्साम के गायन से शासक सम्पन्न होता है तथा ओज, तेज और वीर्य बढ़ता है। राजसूय यज्ञ समृद्ध होता है। राष्ट्र और दृढ़ होता है (ऐत0 ब्रा0 36/3)। राष्ट्र को समृद्ध और दृढ़ बनाने के लिये भरद्वाज ने राजा प्रतर्दन से यज्ञ में इसका अनुष्ठान कराया था, जिससे प्रतर्दन का खोया राष्ट्र उन्हें पुनः मिला था’’ (काठक 21/10)। प्रतर्दन की कथा महाभारत के अनुशासन पर्व (अध्याय 30) में वर्णित है।
भरद्वाज जी का कहना था कि मानवी अग्नि जागेगी। विश्वकृष्टि को जब प्रज्वलित करेंगे तो उसे धारण करने के लिये साहस और बल की आवश्यकता होगी। इसके लिये आवश्यक है कि आप सच्चाई पर दृढ़ रहें। जीभ से ऐसी वाणी बोलनी चाहिए कि सुनने वाले बुद्धिमान बनें। हमारी विद्या ऐसी हो, जो कपटी दुष्टों का सफाया करे और हमारी बुद्धिओं को निन्दित मार्ग से रोके। वे कहते हैं कि हमारी सरस्वती, हमारी विद्या इतनी समर्थ हो कि वह सभी प्रकार के मानवों का पोषण करे। इस प्रकार के और भी कई प्रेरक विचार ग्रन्थों में भरे पड़े है उनके। महर्षि भरद्वाज एक ज्ञानी, विज्ञानी, शासक, कुशल योद्धा थे।
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