Wednesday, June 10, 2020

कौन थे ओम जय जगदीश हरे आरती के रचयिता?


आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है।

पं. श्रद्धाराम शर्मा (या श्रद्धाराम फिल्लौरी) लोकप्रिय आरती ओम जय जगदीश हरे के रचयिता हैं। इस आरती की रचना उन्होंने 1870 में की थी। वे सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी व पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वाक्पटुता के बल पर उन्होने पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया। जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित उर्वर भूमि मिली।

जीवन परिचय
पं. श्रद्धाराम शर्मा का जन्म सन ................ पंजाब के जालंधर जनपद में स्थित फिल्लौर शहर में हुआ था। उनके पिता जयदयालु स्वयं एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने पुत्र का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। उन्होंने 7 वर्ष की आयु तक गुरुमुखी में पढाई की। दस वर्ष की आयु में संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा ज्योतिष की पढाई प्रारम्भ की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों में पारंगत हो गये। उनका विवाह सिख महिला महताब कौर के साथ हुआ था। 24 जून 1881 को लाहौर में उनका देहावसान हुआ।

उनका कार्यक्षेत्र
पं. श्रद्धाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में ‘सिक्खां दे राज दी विथियाँ’ और ‘पंजाबी बातचीत’ जैसी पुस्तकें लिखीं। अपनी पहली ही किताब ‘सिखों दे राज दी विथिया’ से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के विषय में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया। पुस्तक में 3 अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।

उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उद्धरण देते हुये अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई। वे महाभारत का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। 1865 में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही। पं० श्रद्धाराम स्वयं ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं० श्रद्धाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं० श्रद्धाराम ने पादरी के कहने पर बाइबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं० श्रद्धाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिये भी बहुत काम किया।

विरासत
1870 में उन्होंने ‘ओम जय जगदीश’ की आरती की रचना की। पं० श्रद्धाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गये थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिये आमंत्रित किया जाने लगा। हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है। 1877 में भाग्यवती नामक एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है), इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। पं० श्रद्धाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष डॉ० हरमिंदर सिंह ने काफी शोध कर 3 तीन संस्करणों में श्रद्धाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं० श्रद्धाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं० श्रद्धाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रद्धाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है।

रचनाएं
लगभग दो दर्जन रचनाओं का पत चलता है
  • संस्कृत - (1) नित्यप्रार्थना (शिखरिणी छंद के 11 पदों में ईश्वर की दो स्तुतियाँ)। (2) भृगुसंहिता (सौ कुंडलियों में फलादेश वर्णन), यह अधूरी रचना है। (3) हरितालिका व्रत (शिवपुराण की एक कथा)। (4) कृष्णस्तुति विषयक कुछ श्लोक, जो अब अप्राप्य हैं।
  • हिंदी - (1) तत्वदीपक (प्रश्नोत्तर में श्रुति, स्मृति के अनुसार धर्म कर्म का वर्णन)। (2) सत्य धर्म मुक्तावली (फुल्लौरी जी के शिष्य श्री तुलसीदेव संगृहीत भजनसंग्रह) प्रथम भाग में ठुमरियाँ, बिसन पदे, दूती पद हैंय द्वितीय में रागानुसार भजन, अंत में एक पंजाबी बारामाह। (3) भाग्यवती (स्त्रियों की हीनावस्था के सुधार हेतु प्रणीत उपन्यास)। (4) सत्योपदेश (सौ दोहों में अनेकविध शिक्षाएँ) (5) बीजमंत्र (सत्यामृतप्रवाह नामक रचना की भूमिका)। (6) सत्यामृतप्रवाह (फुल्लौरी जी के सिद्धांतों और आचार विचार का दर्पण ग्रंथ)। (7) पाकसाधनी (रसोई शिक्षा विषयक)। (8) कौतुक संग्रह (मंत्रतंत्र, जादूटोने संबंधी)। (9) दृष्टांतावली (सुने हुए दृष्टांतों का संग्रह, जिन्हें श्रद्धाराम अपने भाषणों और शास्त्रार्थों में प्रयुक्त करते थे)। (10) रामलकामधेनु (नित्य प्रार्थना में प्रकाशित विज्ञापन से पता चलता है कि यह ज्योतिष ग्रंथ संस्कृत से हिंदी में अनूदित हुआ था)। (11) आत्मचिकित्सा (पहले संस्कृत में लिखा गया था। बाद में इसका हिंदी अनुवाद कर दिया गया। अंततः इसे फुल्लौरी जी की अंतिम रचना ‘सत्यामृत प्रवाह’ के प्रारंभ में जोड़ दिया गया था)। (12) महाराजा कपूरथला के लिए विरचित एक नीतिग्रंथ (अप्राप्य है)।

  • उर्दू - (1) दुर्जन-मुख-चपेटिका, (2) धर्मकसौटी (दो भाग), (3) धर्मसंवाद (4) उपदेश संग्रह (फुल्लौरी जी के भाषणों आदि के विषय में प्रकाशित समाचारपत्रों की रिपोर्टें), (5) असूल ए मजाहिब (पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के इच्छानुसार फारसी पुस्तक ‘दबिस्तानि मजाहिब’ का अनुवाद)। पहली तीनों रचनाओं में भागवत (सनातन) धर्म का प्रतिपादन एवं भारतीय तथा अभारतीय प्राचीन अर्वाचीन मतों का जोरदार खंडन किया गया।
  • पंजाबी - (1) बारहमासा (संसार से विरक्ति का उपदेश)। (2) सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ (यह ग्रंथ अंग्रेजों के पंजाबी भाषा की एक परीक्षा के पाठ्यक्रम के लिए लिखा गया था। इसमें कुछेक अनैतिहासिक और जन्मसाखियों के विपरीत बातें भी उल्लिखित थीं)। (3) पंजाबी बातचीत, पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों की उपभाषाओं के नमूनों, खेलों और रीति रिवाजों का परिचयात्मक ग्रंथ)। (4) बैंत और विसनपदों में विरचित समग्र ‘रामलीला’ तथा कृष्णलीला (अप्राप्य)।


फुल्लौरी जी की अधिकांश रचनाएँ गद्य में हैं। वे 18वीं शताब्दी उत्तरार्ध के हिंदी और पंजाबी के प्रतिनिधि गद्यकार हैं। उनके हिंदी गद्य में खड़ी बोली का प्राधान्य है। यत्रतत्र उर्दू और पंजाबी का पुठ भी है। पंजाबी गद्य दो शैलियों में उपलब्ध है। ‘सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ’ में सरल, गंभीर तथा अलंकारविहीन भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें दुआबी और मालवी का मिश्रित रूप उपलब्ध होता है। ‘पंजाबी बातचीत’ में मुहावरेदार और व्यंग्यपूर्ण भाषा व्यवहृत हुई है। उसमें पंजाबी की प्रमुख क्षेत्रीय उपभाषाओं का समुच्चय है। उनकी पद्यरचना अधिक नहीं है। प्रारंभ में उन्होंने हिंदी काव्यरचना हेतु ब्रज को अपनाया था, किंतु खड़ी बोली को जनोपयोगी भाषा समझकर वे उस ओर प्रवृत्त हुए। उनके भजनों में खड़ी बोली ही व्यवहृत हुई है। उत्तर भारत के वैष्णव में पूजा के समय उनकी प्रसिद्ध आरती (जय जगदीश हरे। स्वामी जय जगदीश हरे। भगत जनों के संकट छिन में दूर करें....) आज भी गाई जाती है।

ईसाई मत की ओर उन्मुख हो रहे कपूरथला नरेश रणधीर सिंह के संशय निवारण से इनका प्रभाव खूब बढ़ा। समय-समय पर इन्हें पटियाला, कपूरथला, जम्मू तथाश् काँगड़ा प्रदेश के राजाओं से सम्मान और वृत्तियाँ भी प्राप्त हुई। ‘असूल एक मजाहिब’ तथा ‘भाग्यवती’ नामक उनकी रचनायें पुरस्कृत भी हुईं।

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