मानव शरीर और प्रकृति में बड़ा सामजस्य रहा है। मानव प्रकृति की गोद में जन्म लेता है और पलता है। उसी के फैले हुये प्रांगण में खेलता और चला जाता है। इस शरीर का निर्माण भी पृथ्वी (मिट्टी), जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच प्राकृतिक तत्वों से हुआ है। ये पांच तत्व मानव जीवन के लिये प्रत्येक क्षण कल्याण करने वाले हैं। प्रकृति का यह विचित्र विधान है कि जिन तत्वों से प्राणी के शरीर का निर्माण हुआ, उन्हीं तत्वों से उसकी प्राकृतिक चिकित्साएं भी होती हैं। चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र तथा तन्त्र-मन्त्र के ग्रन्थ प्रत्यक्ष शास्त्रों में आते हैं, क्योंकि चिकित्सा शास्त्रों में दी गयी औषधि का रोग के अनुसार सेवन करते ही रोग का नष्ट होना उसकी प्रत्यक्षता का प्रमाण है। हमारे धर्मशास्त्र विश्वास की धुरी पर टिके हैं और कहते हैं- ‘‘मन्त्रे तीर्थे द्विजे दैवज्ञे भेषजे गुरौ। यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।।’’ अर्थात मन्त्र में, तीर्थ में, ब्राह्मण में, देवता में, दैवज्ञ में, औषधि में तथा गुरू में जो जैसी भावना या निष्ठा रखता है, उसे फल भी उसी अनुसार मिलता है।
प्रकृति ने हमें आठ चिकित्सक दिये हैं, जिनके सहयोग तथा सही सेवन से हम यथासम्भव आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। वे 8 चिकित्सक इस प्रकार हैं- वायु, आहार, जल, उपवास, सूर्य, व्यायाम, विचार और निद्रा। आइए इन्हे समझें। सभी जानते हैं कि मानव जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्वपूर्ण है। वेद कहता है कि वायु अमृत है, वायु ही प्राण रूप में स्थित है। प्रातः काल वायु सेवन करने से देह की धातुएं और उपधातुएं शुद्ध एवं पुष्ट होती हैं। नेत्र और श्रवणेन्द्रिय की शक्ति बढ़ती है। सुबह की शीतल मन्द वायु पुष्पों के सौरभ को लेकर अपने पथ में हर जगह फैलाती है, इस समय में वायु सेवन करने से मन प्रफुल्लित और प्रसन्न रहता है। शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, शुद्ध प्रकाश एवं शुद्ध अन्न यह ‘‘पंच्चामृत’’ कहलाता है। प्रातःकाल का वायु सेवन ‘‘ब्रह्मवेला का अमृतपान’’ कहा गया है।
आहार- शरीर और आहार का बहुत गहरा सम्बन्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को सात्विक भोजन करना चाहिए। क्योंकि सात्विक आहार से शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुंचता है। स्वल्प आहार करना चाहिए। थोड़ा आहार करना स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होता है। आहार उतना ही करें जितना सुगमता से पच सके। शुद्ध एवं सात्विक आहार शरीर का पोषण करनेवाला, तृप्तिकारक, आयुष्य और तेजोवर्धक तथा मानसिक शक्ति और पाचन शक्ति बढ़ाने वाला है। आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक लिखते हैं कि ‘‘देहो हृहारसम्भवः’’ अर्थात शरीर आहार से ही बनता है। उपनिषद में भी आहार के विषय में कहा गया है कि ‘‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्व-शुद्धौ धु्रवा स्मृतिः समृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः’’ (छान्दोग्योपनिषद 7/26/2) अर्थात आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है, सत्वशुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बनती है। फिर पवित्र एवं निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुगमता से प्राप्त होती है। गरिष्ठ भोजन अधिक हानिप्रद होता है।
जल- स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जल का महत्वपूर्ण स्थान है। सोकर उठते ही स्वच्छ जल पीना स्वास्थ्य के लिये हितकर है। सूर्योदय के समय (सूर्योदय से पहले) आठ घूंट जल पीनेवाला मनुष्य रोग से मुक्त होकर सौ वर्ष जीवित रहता है। कुएं का ताजा जल अथवा ताम्र पात्र में रखा हुआ जल पीने के लिये अच्छा होता है। खाने से एक घंटा पूर्व अथवा खाने के दो घंटे बाद जल पीना चाहिये। एक व्यक्ति को एक दिन में कम से कम ढाई सेर जल पीना चाहिए, इससे रक्तसंचार सुचारू रूप से होता है।
उपवास- हमारे धर्मशास्त्रों में उपवास का बहुत महत्व प्रतिपादित किया गया है। उपवास से शरीर, मन और आत्मा सभी की उन्नति होती है। उपवास से शरीर के त्रिदोष नष्ट हो जाते हैं। आंतों को अवशिष्ट भोजन के पचाने में सुविधा मिलती है तथा शरीर स्वस्थ और हल्का सा प्रतीत होता है। कहते हैं कि यदि महीने में दोनों एकादशियों के निराहार व्रत का विधिवत पालन किया जाये तो प्रकृति पूर्ण सात्विक हो जाती है। उपवास करने वाले को चाहिए कि वे अपने मन को चारों ओर से खींचकर आत्मचिन्तन में लगायें, सन्त महात्माओं के पास बैठकर उपदेश ग्रहण करें। इस प्रकार के उपवास से शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्त होता है।
सूर्य- जीवन की रक्षा करनेवाली सभी शक्तियों का मूल स्रोत सूर्य है। जीवन में सूर्य रश्मियों का का महत्व बहुत अधिक है। सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ने से हमारे शरीर के अनेक रोग-कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इस विषय में अथर्ववेद कहता है- ‘‘मा ते प्राण उप द्सन्मो अपानोअपि धायि ते। सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरूदायच्छतु’’ (5/30/15) अर्थात हे जीव! तेरा प्राण विनाश को न प्राप्त हो और तेरा अपान भी कभी न रूके अर्थात तेरे शरीर के श्वास-प्रश्वास की क्रिया कभी बन्द न हो। सबका स्वामी सूर्य, सबका प्रेरक परमात्मा तुझे अपनी व्यापक बलकारिणी किरणों से ऊंचा उठाये रखे। तेरे शरीर को और जीवनी शक्ति को गिरने न दें। चिकित्सकों का मत है कि सूय रश्मि के सेवन से प्रत्येक प्रकार के रोग शान्त किये जा सकते हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि चराचर प्राणी और समस्त पदार्थों की आत्मा तथा प्रकाश होने से परमेश्वर का नाम सूर्य है। अतः इन्हें वेद में जीवनदाता कहा गया है।
व्यायाम- आयुर्वेद का मत है कि व्यायाम करने से शरीर का विकास होता है, शरीर के अंगों की थकावट नष्ट हो जाती है, निद्रा खूब आती है और मन की चंचलता दूर होती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा आलस्य मिट जाता है। शारीरिक सौदर्य की वृद्धि होती है और मुख की कान्ति में निखार आता है। आयुर्वेद के ममर्ज्ञ आचार्य वाग्भट लिखते हैं कि - ‘‘लाघवं कर्मसामर्थ्यं दीप्तोअग्निर्मेदसः क्षयः। विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते।।’’ (अष्टांगहृदय सूत्र-2/10) तात्पर्य यह है कि व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि प्रज्वलित होती है, मोटापा नहीं रहता तथा शरीर के सब अंग पुष्ट होते हैं। साथ ही सही व्यायाम से प्रकृति के विरूद्ध गरिष्ठ भोजन भी शीघ्र पच जाता है तथा शरीर में शिथिलता जल्दी नहीं आ पाती। जीवन में प्रसन्नता, स्वास्थ्य एवं सोन्दर्य के लिये व्यायाम बहुत ही जरूरी है। सदाचार और व्यायाम के बलपर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव हो सकता है।
विचार- विचार शक्ति में एक महान उद्वेश्य छिपा रहता है। इसलिए हमें अपने विचारों को हमेशा शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिए। विचारों को प्रभाव सीधे स्वास्थ्य पर पड़ता है। संकल्पिक दृढ़ता तथा सात्विक चिन्तन मनन रोगों की निर्मूलता के लिये बहुत आवश्यक है। दूषित विचारों से न केवल मन विकृत होता होकर रूग्ण होता है, अपितु शरीर भी रोगी हो जाता है। सम्यक सत् चिन्तन एवं सम्यक सद्विचार एक जीवनी शक्ति हैं।
निद्रा- स्वास्थ्य रक्षा के लिये जिस प्रकार शुद्ध वायु जल, सूर्य और भोजन आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार सही निद्रा भी बहुत आवश्यक है। रात्रि में ठीक समय सोने से धातुएं साम्य अवस्था में रहती हैं और आलस्य दूर होता है। पुष्टि, कान्ति, उत्साह और बल बढ़ता है। स्वास्थ्य के लिये प्रगाढ निद्रा आवश्यक है। रात्रि में सत् विचारों का स्मरण करते हुये सोना चाहिए। दिन में सोने से कई प्रकार की व्याधियां घेर लेती हैं। सही समय सोने से आयुर्बल बढ़ता है, स्वप्नदोष, धातुदौर्बल्य, सिर के रोग, आलस्य, अल्ममूत्र और रक्तविकार आदि से रक्षा होती है। सोने से पूर्वमन को समस्त शोक, चिन्ता और भय से रहित करके सोना चाहिए। एैसा करने पर आप प्रातःकाल अपने आप में बहुत बड़ा परिवर्तन पायेंगे। यही प्रकृति के आठ चिकित्सक हैं।
प्रकृति ने हमें आठ चिकित्सक दिये हैं, जिनके सहयोग तथा सही सेवन से हम यथासम्भव आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। वे 8 चिकित्सक इस प्रकार हैं- वायु, आहार, जल, उपवास, सूर्य, व्यायाम, विचार और निद्रा। आइए इन्हे समझें। सभी जानते हैं कि मानव जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्वपूर्ण है। वेद कहता है कि वायु अमृत है, वायु ही प्राण रूप में स्थित है। प्रातः काल वायु सेवन करने से देह की धातुएं और उपधातुएं शुद्ध एवं पुष्ट होती हैं। नेत्र और श्रवणेन्द्रिय की शक्ति बढ़ती है। सुबह की शीतल मन्द वायु पुष्पों के सौरभ को लेकर अपने पथ में हर जगह फैलाती है, इस समय में वायु सेवन करने से मन प्रफुल्लित और प्रसन्न रहता है। शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, शुद्ध प्रकाश एवं शुद्ध अन्न यह ‘‘पंच्चामृत’’ कहलाता है। प्रातःकाल का वायु सेवन ‘‘ब्रह्मवेला का अमृतपान’’ कहा गया है।
आहार- शरीर और आहार का बहुत गहरा सम्बन्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को सात्विक भोजन करना चाहिए। क्योंकि सात्विक आहार से शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुंचता है। स्वल्प आहार करना चाहिए। थोड़ा आहार करना स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होता है। आहार उतना ही करें जितना सुगमता से पच सके। शुद्ध एवं सात्विक आहार शरीर का पोषण करनेवाला, तृप्तिकारक, आयुष्य और तेजोवर्धक तथा मानसिक शक्ति और पाचन शक्ति बढ़ाने वाला है। आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक लिखते हैं कि ‘‘देहो हृहारसम्भवः’’ अर्थात शरीर आहार से ही बनता है। उपनिषद में भी आहार के विषय में कहा गया है कि ‘‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्व-शुद्धौ धु्रवा स्मृतिः समृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः’’ (छान्दोग्योपनिषद 7/26/2) अर्थात आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है, सत्वशुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बनती है। फिर पवित्र एवं निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुगमता से प्राप्त होती है। गरिष्ठ भोजन अधिक हानिप्रद होता है।
जल- स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जल का महत्वपूर्ण स्थान है। सोकर उठते ही स्वच्छ जल पीना स्वास्थ्य के लिये हितकर है। सूर्योदय के समय (सूर्योदय से पहले) आठ घूंट जल पीनेवाला मनुष्य रोग से मुक्त होकर सौ वर्ष जीवित रहता है। कुएं का ताजा जल अथवा ताम्र पात्र में रखा हुआ जल पीने के लिये अच्छा होता है। खाने से एक घंटा पूर्व अथवा खाने के दो घंटे बाद जल पीना चाहिये। एक व्यक्ति को एक दिन में कम से कम ढाई सेर जल पीना चाहिए, इससे रक्तसंचार सुचारू रूप से होता है।
उपवास- हमारे धर्मशास्त्रों में उपवास का बहुत महत्व प्रतिपादित किया गया है। उपवास से शरीर, मन और आत्मा सभी की उन्नति होती है। उपवास से शरीर के त्रिदोष नष्ट हो जाते हैं। आंतों को अवशिष्ट भोजन के पचाने में सुविधा मिलती है तथा शरीर स्वस्थ और हल्का सा प्रतीत होता है। कहते हैं कि यदि महीने में दोनों एकादशियों के निराहार व्रत का विधिवत पालन किया जाये तो प्रकृति पूर्ण सात्विक हो जाती है। उपवास करने वाले को चाहिए कि वे अपने मन को चारों ओर से खींचकर आत्मचिन्तन में लगायें, सन्त महात्माओं के पास बैठकर उपदेश ग्रहण करें। इस प्रकार के उपवास से शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्त होता है।
सूर्य- जीवन की रक्षा करनेवाली सभी शक्तियों का मूल स्रोत सूर्य है। जीवन में सूर्य रश्मियों का का महत्व बहुत अधिक है। सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ने से हमारे शरीर के अनेक रोग-कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इस विषय में अथर्ववेद कहता है- ‘‘मा ते प्राण उप द्सन्मो अपानोअपि धायि ते। सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरूदायच्छतु’’ (5/30/15) अर्थात हे जीव! तेरा प्राण विनाश को न प्राप्त हो और तेरा अपान भी कभी न रूके अर्थात तेरे शरीर के श्वास-प्रश्वास की क्रिया कभी बन्द न हो। सबका स्वामी सूर्य, सबका प्रेरक परमात्मा तुझे अपनी व्यापक बलकारिणी किरणों से ऊंचा उठाये रखे। तेरे शरीर को और जीवनी शक्ति को गिरने न दें। चिकित्सकों का मत है कि सूय रश्मि के सेवन से प्रत्येक प्रकार के रोग शान्त किये जा सकते हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि चराचर प्राणी और समस्त पदार्थों की आत्मा तथा प्रकाश होने से परमेश्वर का नाम सूर्य है। अतः इन्हें वेद में जीवनदाता कहा गया है।
व्यायाम- आयुर्वेद का मत है कि व्यायाम करने से शरीर का विकास होता है, शरीर के अंगों की थकावट नष्ट हो जाती है, निद्रा खूब आती है और मन की चंचलता दूर होती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा आलस्य मिट जाता है। शारीरिक सौदर्य की वृद्धि होती है और मुख की कान्ति में निखार आता है। आयुर्वेद के ममर्ज्ञ आचार्य वाग्भट लिखते हैं कि - ‘‘लाघवं कर्मसामर्थ्यं दीप्तोअग्निर्मेदसः क्षयः। विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते।।’’ (अष्टांगहृदय सूत्र-2/10) तात्पर्य यह है कि व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि प्रज्वलित होती है, मोटापा नहीं रहता तथा शरीर के सब अंग पुष्ट होते हैं। साथ ही सही व्यायाम से प्रकृति के विरूद्ध गरिष्ठ भोजन भी शीघ्र पच जाता है तथा शरीर में शिथिलता जल्दी नहीं आ पाती। जीवन में प्रसन्नता, स्वास्थ्य एवं सोन्दर्य के लिये व्यायाम बहुत ही जरूरी है। सदाचार और व्यायाम के बलपर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव हो सकता है।
विचार- विचार शक्ति में एक महान उद्वेश्य छिपा रहता है। इसलिए हमें अपने विचारों को हमेशा शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिए। विचारों को प्रभाव सीधे स्वास्थ्य पर पड़ता है। संकल्पिक दृढ़ता तथा सात्विक चिन्तन मनन रोगों की निर्मूलता के लिये बहुत आवश्यक है। दूषित विचारों से न केवल मन विकृत होता होकर रूग्ण होता है, अपितु शरीर भी रोगी हो जाता है। सम्यक सत् चिन्तन एवं सम्यक सद्विचार एक जीवनी शक्ति हैं।
निद्रा- स्वास्थ्य रक्षा के लिये जिस प्रकार शुद्ध वायु जल, सूर्य और भोजन आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार सही निद्रा भी बहुत आवश्यक है। रात्रि में ठीक समय सोने से धातुएं साम्य अवस्था में रहती हैं और आलस्य दूर होता है। पुष्टि, कान्ति, उत्साह और बल बढ़ता है। स्वास्थ्य के लिये प्रगाढ निद्रा आवश्यक है। रात्रि में सत् विचारों का स्मरण करते हुये सोना चाहिए। दिन में सोने से कई प्रकार की व्याधियां घेर लेती हैं। सही समय सोने से आयुर्बल बढ़ता है, स्वप्नदोष, धातुदौर्बल्य, सिर के रोग, आलस्य, अल्ममूत्र और रक्तविकार आदि से रक्षा होती है। सोने से पूर्वमन को समस्त शोक, चिन्ता और भय से रहित करके सोना चाहिए। एैसा करने पर आप प्रातःकाल अपने आप में बहुत बड़ा परिवर्तन पायेंगे। यही प्रकृति के आठ चिकित्सक हैं।
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