मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करती
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक-इंडेविन टाइम्स)
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ज्ञानाग्नि में जिनके शुभाशुभ कर्म दग्ध हो जाते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। वे फिर जन्म मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ते। जिनके उग्र सकाम शुभ कर्म है, वे स्वर्ग आदि लोकों में अपने शुभ कर्मों का फल उपभोग करते हैं। जिनके उग्र पापकर्म हैं, वे नरक में गिरते हैं। परन्तु जब भोगते-भोगते शुभ और अशुभ कर्म ऐसे स्तर के अवशिष्ट रह जाते हैं, जो मृत्युलोक में ही भोगे जा सकते हैं, तब स्वर्गीय प्राणी शुचि-श्रीमानों के या योगियों के कुल में उत्पन्न होकर पुण्य-फल प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार नारकीय प्राणी सूकर, कूकर, निर्धन के रूप में जन्म लेकर अपने शेष पापकर्मों का उपभोग करते हैं।
जीव जन्म लेता है, मृत्यु साथ में आती है। मृत्यु तो हर क्षण प्राणी के सिर पर सवार है, उसके केश पकडे़ बैठी है। पता नहीं कब क्या कर दे। कबीर जी का एक कथन स्मरण हो आया। पाठक इसे समझें और विचार करें-
कबीरा गर्व न कीजिए,
ना जाने कब मारिहैं, क्या घर क्या परदेश।
मृत्यु किसी की प्रतीक्षा नहीं करती। रूप, रंग, कुल, पद गणना नहीं करती। इस दृष्टि में राजा- रंक, बाल-व द्ध, स्त्री, पुरूष, रूप-कुरूप सभी एक समान है। जीव माता की गोद में, धरती पर बाद में आता है, पहले से ही वह मृत्यु की गोद में बैठा है। बहुत से घरों में मैने देखा है कि बालक का जन्म हो रहा है, परन्तु जननी-जन्मभूमि की गोद में आने से पूर्व ही वह काल का ग्रास बन गया- मृत्यु के मुंह में समा गया। सारा प्रसन्नता का वातावरण शोकमग्न हो गया। प्रभाती के समय विहाग अलापा जाने लगा। ऐसा अपरिहार्य चक्र है मृत्यु का। तभी तो भगवान गीता में कहते हैं- ‘‘जातस्व ही धु्र्रवों मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।’’ (गीता-2/27)
मृत्यु को हम कैसे स्वीकार करते हैं, यह हमारे ज्ञान और जीवन-साधन की परीक्षा है। आत्मा तो अमर है। किन्तु शरीर गलता, सड़ता, रोगी हाता है और वस्त्र की भांति जर्जर होकर घिसकर विनष्ट हो जाता है। इसमें आश्चर्य एवं दुख की क्या बात है? यह एक प्राकृतिक नियम है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- ‘‘जैसे कुमार, युवा और जरा अवसस्थारूप स्थूलशरीर का विकार अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्मशरीर का विकार भी अज्ञान से आत्मा में भासता है। इसलिए तत्व को समझने वाले धीर पुरूष को इस विषय में मोह नहीं होता।’’ (गीता-2/13)
जीव मृत्युरूपी नदी में पुराने शरीर रूपी वस्त्र बहाकर नये (शरीररूपी) वस्त्र धारण करता ह। कबीर जी इसे दूसरी प्रकार से समझाकर कहते हैं-
जल में कुम्भ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा, कुंभ जल जलहिं समाना यह तत कथ्यौ ज्ञानी।।
चरों ओर ब्रह्मरूपी जल से विश्व ओत-प्रोत है। देहरूपी घड़े में ब्रह्मरूपी जल की एक बूंद आत्मा के रूप में विद्यमान है। देहरूपी घट फूट गया और उसमें से आत्मारूपी जलबिन्दु निकलकर परमात्मा रूपी जलसागर में निमग्न हो गया।’
आत्मा नित्य और अवध्य है, शरीर का नष्ट होना अपरिहार्य है। मृत्यु होने पर केवल शरीर ही नहीं छूट जाता है। संसार के सभी प्रियजन, कुटुम्बी, सम्बन्धी और सभी पदार्थ, धन, सम्पत्ति आदि भी छूट जाते हैं। मृत्यु विवेकदायिनी है, गुरू है। संसार के नाते मिथ्या हैं। मनुष्य अकेला ही संसार में आता है और अकेला ही यहां से विदा हो जाता है। धन, सम्पत्ति और पद-जिनके संचय और सुरक्षा के लिये मनुष्य पाप भी करता है, यहीं छूट जाते हैं। कोई व्यक्ति धन के लिये हुये न उत्पन्न होता है और न मरता है। अतः यह मानना चाहिए कि मैं धन-सम्पत्ति से पृथक हूं। इन पर अपना अधिकार मानना मूर्खता है। इनके साथ ममत्व करना भयंकर भूल है।
जिस वस्तु का आदि है उसका अन्त अवश्य होता है। जहां प्रारम्भ है, वहां समाप्ति है। पृथ्वी पर शरीर यात्रा का प्रारम्भ जन्म से होता है और समाप्ति मरण से होती है। जन्म और मरण देह का होता है। आत्मा तो अनादि और अनन्त है। जन्म होने पर जब माता बच्चे की आयु के विषय में ज्योतिषी से प्रश्न करती है, तब वह वस्तुतः मृत्यु की तिथि पूछना चाहती है। जन्म के पश्चात मरण ध्रुव सत्य है। मृत्यु एक प्राकृतिक घटना है, जो प्रत्येक शरीरधारी के साथ घटित होती है। किन्तु फिर भी मनुष्य मृत्यु से ऐसे डरते हैं, जैसे बालक अंधकार में प्रवेश करने से डरते हैं। जिसने मृत्यु के भय को जीत लिया, उसने समस्त भयों पर विजय पा ली। जिसने मृत्यु को मित्र समझ लिया, उसने जीवन को मित्र बना लिया।
मृत्यु का सम्यक स्मरण विवेकशील मनुष्य को पुण्य की ओर प्रवृत्त करता है, भयत्रस्त नहीं करता है। मृत्यु का भय समाप्त होने पर मृत्यु एक महोत्सव बन जाती है। यदि स्वस्थ, सुखी जीवन यापन करना एक कला है तो मृत्यु का सुखद आलिंगन भी एक कला है। श्रेष्ठ सिद्धान्तों, आदर्शों पर चलते हुये जीवन को सुखमय बनाने वाला व्यक्ति ही आदर्शों के लिये मरना जानता है, ताकि मृत्यु एक सुखपूर्ण जीवनावसान बन जाये। आदर्शों के लिये जीने वाले और आदर्शों के लिये मरनेवाले मनुष्य धन्य होते हैं और उनके लिये मृत्यु एक महोत्सव होता है। विवेकशील व्यक्ति के लिये मृत्यु कोई समस्या नहीं है। यह देहान्तर प्राप्ति का एक साधन है। आत्मा का वाहन शरीर क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर-पंच्चतत्वों से विनिर्मित है और विनाशशील है। यही विवेक है, ज्ञान है।
मित्र और कुटुम्बी तो श्मशान तक साथ देते हैं और मृतक व्यक्ति की देह को भस्मीभूत करके अपने-अपने कार्य में संलग्न हो जाते हैं। इस जीवन काल में किये हुये सत्कर्म अथवा दुष्कर्म संस्कार बनकर जीवात्मा के आगामी जीवन में प्रारब्ध बनकर साथ रहते हैं। वायु जिस प्रकार गन्धस्थान से सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध को ग्रहण करके ले जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी त्याग दिये गये हुये पहले शरीर से मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर दूसरे शरीर में ले जाता है। गीता 14/8 भी यही कहती है।
मनुष्य की सच्ची कमाई वह है जो उसके साथ जाये और आगामी जीवन यात्रा में सहायक हो। वैंकों के लाकरों और सेफ में रखा हुआ धन, जिसे हमने प्रायः पाप से कमाया और परिश्रम से सुरक्षित रखा, यहीं रह जायेगा। दिया हुआ दान, किया हुआ परोपकार और तप साथ जायेगा। केवल आत्मतत्व ही सच्चा है, अन्य सब पदार्थ मिथ्या हैं। हम असत वस्तुओं की सुरक्षा करने की चिन्ता में अपनी शान्ति भंग कर लेते हैं। सामान सौ बरस के, पल की खबर नहीं।
बहुत से लोग विषम परिस्थितियों में भयभीत होकर उनसे बचने के लिये मृत्यु की इच्छा करते हैं। कई दुर्बुद्धि तो विषपान आदि के द्वारा आत्महत्या कर लेते हैं, जो संसार का घोरतम पाप है। जीवन प्रभु की देन है और इसका अधिकतम सदुपयोग करना हमारा परम धर्म है। कोटि-कोटि पुण्यों से यह मानव देह प्राप्त होती है। इसका उचित मूल्यांकन करें। कुछ अल्पबुद्धि लोग दुखों के मूल कारण मोह को तो दूर नहीं करते और थोड़े समय के लिये दुखों को भूलने के लिये मदिरापान आदि के द्वारा पवित्र प्रभु मन्दिर स्वरूप शरीर को दूषित एवं नष्ट-भ्रष्ट करते हैं। यदि वे कृष्ण नाम रूपी सुमधुर सोमरस पान करें और कृष्णभक्ति रूपी संजीवनी बूटी का प्रयोग करें तो भवरोग ही मिट जाये।
पंच्चभूतों से निर्मित शरीर का स्वभाव गलना-सड़ना है। इसे स्वस्थ और सुथरा रखकर इसका सदुपयोग करें। इसकी क्षणभंगुर सुन्दरता का अभिमान करना मूर्खता का परिचायक है। सुन्दर एवं स्वस्थ विचारों तथा मन, वचन और कर्म की पवित्रता से ही शरीर अलंकृत होता है। आन्तरिक सात्विक सौन्दर्य ही मुखर प्रतिबिम्बित होता है। आज उसके अभाव की पूर्ति प्रसाधनों के अतिशय प्रयोग के द्वारा की जा रही है। शरीर का मोह मृत्यु आने पर सुखपूर्वक प्राण निर्गमन में बाधक सिद्ध होता है तथा इसके कारण मृत्यु भयानक प्रतीत होने लगती है।
अनेक सन्त शरीर के अति जर्जर होने पर तथा चिकित्सा की विफलता देखकर चिकित्सा का त्याग कर देते हैं तथा केवल गंगाजल का पान ही करते-करते प्राण विसर्जन कर देते हैं। मरणावस्था होने पर जैन साधु ‘‘सल्लेखना’’ ग्रहण करके मृत्यु एक महोत्सव है, जिसकी तैयारी करने में उन्हें एक विशेष आह्लाद का अनुभव होता है। इसीलिए प्राणोत्सर्ग के समय संसार के सभी विषयों से तथा मित्रगण एवं कुटुम्बीजन से मोह-नाता छोड़ प्रभु का स्मरण, नामजप एवं ध्यान करना चाहिए। वीतराग होकर प्राणत्याग करे।
जीवन भर परोपकर रत रहकर, दयाद्रवित होकर निःस्वार्थ जन सेवा आदि करने वाले व्यक्ति का मन मृत्युबेला में अवश्य शान्त हो पायेगा। यदि किसी ने जीवन में आततायी बनकर अत्याचार किये हैं, तो उसे महाप्रयाण के समय अत्यधिक मानसिक कष्ट होगा। धीर पुरूष देहावसान काल में परमशान्ति का अनुभव करता है। सत्य तो यह है कि संसार में मिलना और बिछुड़ना सभी कर्मवश होते हैं। एक व्यक्ति की मृत्यु पर एक स्थान पर रोना मच रहा है तो दूसरी ओर कहीं जन्म लेने पर किसी माता की गोद में पुत्र रत्न आ जाता है और शहनाई बजती है। मृत्यु होने पर पुराने नाते टूट जाते हैं। जिससे उनका मिथ्यापन सिद्ध हो जाता है। मृत्यु महोत्सव के आने पर उल्लास का अनुभव करें। कृष्ण को हृदय में आसीन करके, कृष्ण के ध्यान स्मरण में निमग्न होकर कृष्ण में विलीन होना ही जीवन यात्रा की परम सफलता है।
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