वो बेघर याद आ गये
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी ( सम्पादक- इडेविन टाइम्स) |
यादों की गठरी खुली, कच्चे घर याद आ गये,
ख्वाबों में डूबे तो, परियों के द्वार आ गये।
देखो आईने इस शहर के, बदले चेहरों पे चहरे
किस कदर देखों ये पत्थर याद आ गये।
खुले आकाश में बैठा क्या मैं पल दो पल,
पिन्जरे वो निर्दयी याद आ गये।
सब कुछ है घर में फिर चैन मिलता नहीं क्यों,
घरों से हुये वो बेघर याद आ गये।
फूलों पे चलकर क्यों छाले उभर आये,
खेतों की मेंड़ों के कंकर याद आ गये।
तन्हा हूं भीड़ में कोई अपना मिले,
फिर वो तन्हाई के मंजर याद आ गये।
रेत के जैसी फिसल रही डोर आहिस्ता-आहिस्ता,
बाहों में लिपटे वो मंजर याद आ गये।
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