Saturday, June 20, 2020

क्या है श्रीमद्भागवत-सप्ताह की विधि ?

आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)
श्रीमद्भागवत पुराण हिन्दू समाज का सर्वाधिक आदरणीय व पूज्य ग्रन्थ है। सकाम भक्ति हो या निष्काम योग, नवधा भक्ति हो या ज्ञान साधना, द्वैत भाव हो या अद्वैत के दर्शन सभी मार्गों के रहस्यों को समन्वित करने वाला यह अलौकिक दिव्य ग्रन्थ लौकिक इच्छाओं व पारलौकिक सिद्धियों को प्रदान करने वाला कल्पतरू है। वैष्णव सम्प्रदाय का यह प्रमुख ग्रन्थ है और वेदों, उपनिषदों तथा दर्शन के गूढ़ व गम्भीर रहस्यभूत विषयों का निरूपण इसमें इतनी सरलता से किया गया है कि इसे भारतीय धर्म व संस्कृति का वस्तुतः विश्वकोष ही कहा जाना चाहिये। वेणु गीतों के माधुर्य के आनन्द का रसास्वाद करना हो या भावपूर्ण गजेन्द्रस्तवन से अश्रु विलगित आंखों व अवरूद्ध कंठ की भावावस्था की अनुभूति करना हो अथवा नारायणकवच के अमोघ पाठ से कलिकाल व दुर्भाग्य से मुक्ति की इच्छा हो, सभी कुछ इस ग्रन्थ में सुलभ है। इसीलिये कहा जाता है कि विद्वानों के ज्ञान की परीक्षा इसी ग्रन्थ से होती है। ‘‘विद्यावतां भागवत् परीक्षा’’। पुटके-पुटके मधु और स्वादु-स्वादु पगे-पगे की भावना इसी ग्रन्थ में अनुभूत होती है। त्रितापों को शान्त करने वाले इस ग्रन्थ में कुल 12 स्कन्ध हैं, जिनमें भगवान विष्णु के 24 अवतारों की कथा का वर्णन है। वर्तमान युग में इसकी प्रासंगिकता बहुत बढ़ जाती है। 

पुराणों में श्रीमद्भागवत के सप्ताहपरायण तथा श्रवण की बहुत भारी महिमा वर्णित है। आइये इसी विषय को आगे बढ़ाया जाये-
मुहूर्तविचार- श्रीमद्भागवत प्रारम्भ करने से पहले किसी योग्य ज्योतिर्विद को बुलाकर उनके द्वारा कथा प्रारम्भ के लिये शुभ मुहूर्त का विचार करना चाहिये। नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, आश्विनी, मृगशिरा, श्रवण, धनिष्ठा तथा पूर्वाभाद्रपदा उत्तम हैं। तिथियों में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी तथा द्वादशी को इस कार्य के लिये श्रेष्ठ बतलाया गया है। सोम, बुध, गुरू एवं शुक्र- ये वार सर्वोत्तम हैं। तिथि, वार और नक्षत्र का विचार करने के साथ ही यह भी देख लेना चाहिये कि शुक्र या गुरू अस्त, बाल अथवा वृद्ध न हो। कथा के आरम्भ का मुहूर्त भद्रा आदि दोषों से रहित होना चाहिये। उस दिन पृथ्वी जागती हो, वक्ता और श्रोता का चन्द्रबल ठीक हो। लग्न में शुभ ग्रहों का योग अथवा उनकी दृष्टि हो। शुभ ग्रहों की स्थिति केन्द्र या त्रिकोण में हो तो शुभ है। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन) ये मास कथा के लिये श्रेष्ठ बताये गये है। कुछ विद्वानों के मत से चैत्र और पौष को छोड़कर सभी मास ग्राह्य हैं। 

कथा के लिये स्थान- भागवत सप्ताह कथा के लिये उत्तम एवं पवित्र स्थान की व्यवस्था की जानी चाहिये। जहां अधिक लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें, ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिये। नदी का तट, उपवन (बगीचा), देवमन्दिर या अपना निवास स्थान ये सभी कथा के लिये उपयोगी स्थल माने गये हैं। स्थान लिपा-पुता स्वच्छ हो। नीचे की भुमि गोबर और पीली मिट्टी से लीपी गयी हो। अथवा पक्का आंगन हो तो उसे धो दिया गया हो। उसपर पवित्र एवं सुन्दर आसन बिछाया गया हो। ऊपर से चंदोवा तना हो। चंदोवा आदि किसी भी कार्य में नीले रंग के वस्त्र का उपयोग न किया जाये। यजमान के हाथ से 16 हाथ लम्बा और उतना ही चौड़ा कथा-मण्डप बनाया जाये। उसे केले के खम्भों से सजाया जाये। हरे बांस के खम्भे लगाये जायें। नये पल्लवों की बंदनवारों, पुष्पमालाओं और ध्वजा-पताकाओं से मण्डप को भलीभांति सुसज्जित किया जाये। उस पर ऊपर से चंदोवा तान दिया जाये। उस मण्डप के दक्षिण-पश्चिम भाग में कथावाचक और मुख्य श्रोता के बैठने के लिये स्थान हो। शेष भाग में देवताओं और कलश आदि का स्थापन किया जाये। कथावाचक के बैठने के लिये ऊंची चौकी रखी जाये। उस पर शुद्ध आसन (नया गद्दा) बिछाया जाये। पीछे तथा पार्श्वभाग में मसनद एवं तकिये रखे जायें। श्रीमद्भागवत को स्थापित करने के लिये एक स्वर्णमण्डित छोटी से चौकी या आधार पीठ बनवाकर (इस चौकी पर तीन तोला सोना मढ़ा होना चाहिये। इतनी शक्ति न हो तो अपनी शक्ति के अनुसार ही यह स्वर्णसिंहासन बनवाये, परन्तु शक्ति होते हुये लोभवश संकोच न करें) उस पर पवित्र वस्त्र बिछा दें। उस पर आगे बताई जाने वाली विधि के अनुसार अष्टदल कमल बनाकर पूजन करके श्रीमद्भागवत की पुस्तक स्थापित की जाये। कथावाचक विद्वान, सर्वशास्त्रकुशल, दृष्टान्त देकर श्रोताओं को समझाने में समर्थ, सदाचारी एवं सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण हों। उनमें सुशीलता, कुलीनता, गम्भीरता तथा श्रीकृष्ण-भक्ति का होना भी परमावश्यक है। वक्ता को असूया तथा परनिन्दा आदि दोष से सर्वथा रहित होना चाहिए। श्रीमद्भागवत की पुस्तक रेशमी वस्त्र से आच्छादित करके छत्र-चंवर के साथ डोली में अथवा अपने मस्तक पर रखकर कथामण्डप में लाना और स्थापित करना चाहिये। उस समय गीत वाद्य आदि के द्वारा उत्सव मनाना चाहिये। कथामण्डप से अनुपयोगी वस्तुएं हटा देनी चाहिए। इधर-उधर दीवालों में भगवान और उनकी लीलाओं के स्मारक चित्र लगा देने चाहिए। वक्त का मुख यदि उत्तर की ओर हो तो मुख्य श्राता का मुख पूर्व की ओर होना चाहिए। यदि वक्ता पूर्वाभिमुख हो तो श्रोता को उत्तराभिमुख होना चाहिये। 

स्मरण रहे सप्ताह कथा एक महान यज्ञ है। इसे सम्पन्न करने के लिये मित्र व अन्य सम्बन्धियों को भी सहायक बनाना चाहिए। अर्थ की व्यवस्था पहले से कर लेना उचित है। दूर से आये हुये अतिथियों के लिये ठहरने की व्यवस्था होनी चाहिए। वक्ता को व्रत ग्रहण करने के लिये एक दिन पहले ही क्षौर करा लेना चाहिये। सप्ताह-प्रारम्भ होने के एक दिन पूर्व ही देवस्थापन, पूजन आदि कर लेना सही है। वक्ता प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व ही स्नान आदि करके संक्षेप से सन्ध्या-वन्दन आदि का नियम पूरा कर ले और कथा में कोई विघ्न न आये, इसके लिये नित्यप्रति गणेशजी का पूजन कर लिया करें। 

सप्ताह के प्रथम दिन यजमान स्नान आदि से शुद्ध होकर नित्यकर्म करके आभ्युदयिक श्राद्ध करे। आभ्युदयिक श्राद्ध पहले भी किया जा सकता है। यज्ञ में 21 दिन पहले भी आभ्युदयिक श्राद्ध करने का विधान है। उसके बाद गणेश, ब्रह्मा आदि देवताओं सहित नवग्रह, षोडश मातृका, सप्त चिरजीवी (अश्वत्थामा , बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुरामजी) एवं कलश की स्थापना तथा पूजा करें। एक चौकी पर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाकर उसके मध्यभाग में ताम्रकलश स्थापित करें। कलश के उपर भगवान लक्ष्मी-नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित करें। कलश के बगल में ही भगवान शालग्राम का सिंहासन विराजमान कर देना चाहिये। सर्वतोभद्र-मण्डल में स्थित समस्त देवताओं का पूजन करने के बाद भगवान नर-नरायण, गुरू, वायु, सरस्वती, शेष, सनकादि कुमार, सांख्यायन, पराशर, बृहस्पति, मैत्रेय तथा उद्धव का भी आवाहन, स्थापन एवं पूजन करना चाहिए। फिर त्रय्यारूण आदि 6 पौराणिकों को भी स्थापन-पूजन करके एक अलग पीठ पर उसे सुन्दर वस्त्र से आवृत्त करके, नारदजी की स्थापना एवं अर्चना करनी चाहिए। इसके बाद आधारपीठ, पुस्तक एवं व्यास (वक्ता आचार्य) का भी यथाप्राप्त उपयारों से पूजन करना चाहिए। कथा निर्विघ्न पूर्ण हो इसके लिये गणेश-मन्त्र, द्वादशाक्षर-मन्त्र तथा गायत्री-मन्त्र का जप और विष्णुसहस्त्रनाम एवं गीता का पाठ करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार 7, 5 या 3 ब्राह्मणों का वरण करें। श्रीमद्भागवत का भी एक पाठ अलग ब्राह्मण द्वारा करायें। देवताओं की स्थापना और पूजा के पहले स्वस्तिकवाचन पूर्वक हाथ में पवित्री, अक्षत, फूल, जल और द्रव्य लेकर एक महासंकल्प कर लेना चाहिये। संकल्प के बाद पूर्वोक्त देवताओं के चित्रपट में अथवा अक्षत-पुज्ज पर उनका आवाहन-स्थापन करके वैदिक-पूजा पद्वति के अनुसार उन सबकी पूजा करनी चाहिये। कथा मण्डप में चारों दिशाओं या कोणों में एक-एक कलश और मध्यभाग में एक कलश- इस प्रकार 5 कलश स्थापित करने चाहिए। चारों ओर के 4 कलशों में से पूर्व के कलश पर ऋग्वेद की, दक्षिण कलश पर यजुर्वेद की, पश्चिम कलश पर सामवेद की और उत्तर कलश पर अथर्ववेद की स्थापना एवं पूजा करनी चाहिए।

इसके बाद आगे दशावतारों की तथा शुकदेव जी की भी यथास्थान स्थापना करके पूजा करनी चाहिये। कथा-मण्डप में वायुरूपधारी आतिवाहिक शरीरवाले जीव विशेष के लिये एक 7 गांठ के बांस को भी स्थापित कर देना चाहिए। तत्पश्चात वक्ता भगवान का स्मरण करके उस दिन श्रीमद्भागवत महात्म्य की कथा सब श्रोताओं को सुनायें और दूसरे दिन से प्रतिदिन देवपूजा, पुस्तक तथा व्यास की पूजा एवं आरती हो जाने के बाद वक्ता कथा प्रारम्भ करें। सन्ध्या को कथा की समाप्ति होने पर भी नित्यप्रति पुस्तक तथा वक्ता की पूजा तथा आरती, प्रसाद एवं तुलसीदल का वितरण, भगवन्नामकीर्तन एवं शंखध्वनि करनी चाहिए। वक्ता को चाहिए कि प्रतिदिन पाठ प्रारम्भ करने से पूर्व 108 बार ‘ऊॅं नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर-मन्त्र का जप करे। इस प्रकार ध्यान और मन्त्र जप के पश्चात कथा प्रारम्भ करनी चाहिए। सूर्योदय से आरम्भ करके प्रतिदिन साढ़े 3 प्रहर तक कथा कहनी चाहिए। मध्यान्ह में दो घड़ी कथा बंद रखनी चाहिए। प्रातःकाल से मध्यान्ह तक मूल का पाठ होना चाहिए और मध्याह्न से सन्ध्या तक उसका संक्षिप्त भावार्थ अपनी भाषा में कहना चाहिये। मध्यान्ह में विश्राम के समय तथा रात्रि के समय भगवन्नाम-कीर्तन की व्यवस्था होनी चाहिये। 

श्रोताओं के स्थान- वक्ता के सामने श्रोताओं के बैठने के लिये आगे-पीछे 7 पंक्तियां बना लेनी चाहिए। पहली पंक्ति का नाम सत्यलोक है, इसमें साधु-संन्यासी, विरक्त, वैष्णव आदि को बैठाना चाहिए। दूसरी पंक्ति तपलोक कहलाती है, इसमें वानप्रस्थ श्रोताओं को बैठाना चाहिए। तीसरी पंक्ति को जनलोक कहा जाता है, इसमें ब्रह्मचारी श्रोता बैठाये जायें। चौथी पंक्ति महर्लोक कही गयी है, यह ब्राह्मण श्रोताओं का स्थान है। पांचवीं पंक्ति को स्वर्लोक कहते हैं। इसमें क्षत्रिय श्रोताओं को बैठाना चाहिए। छठी पंक्ति का नाम भुवर्लोक है, जो वैश्य श्रोताओं का स्थान है। सातवीं पंक्ति भूर्लोक मानी गयी है, उसमें शूद्रजातीय श्रोताओं को बैठाना चाहिए। स्त्रियां वक्ता के वामभाग की भूमि पर कथा सुनें। ये स्थान उन लोगों के लिये नियत किये गये हैं, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक कथा सुनते हैं। जो श्रोता कथा प्रारम्भ होने पर कुछ समय के लिये अनियमितरूप से आते हैं, उनके लिये वक्ता के दक्षिण भाग में स्थान रहना चाहिए। 

श्रोताओं के नियम- श्रोता प्रतिदिन एक बार हविष्यान्न भोजन करें। पतित, दुर्जन आदि का संग तो दूर रहा, उनसे वार्तालाप भी न करें। ब्रह्मचर्यपालन, भूमिशयन (नीचे आसन बिछाकर या तख्तपर सोना) सबके लिये अनिवार्य है। एकाग्रचित्त होकर कथा सुननी चाहिए। जितने दिन कथा सुनें-धन, स्त्री, पुत्र, घर एवं लौकिक लाभ की समस्त चिन्ताएं त्याग दें। मलमूत्र पर काबू रखने के लिये हलका आहार सुखद होता है। यदि शक्ति हो तो 7 दिन तक उपवास करके कथा सुनें। अन्यथा दूध पीकर कथा श्रवण करें। इससे भी काम न चले तो फलाहार या एक समय अन्न-भोजन करें। प्रतिदिन कथा समाप्त होने पर ही भोजन करना सही है। दाल, शहद, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित अन्न तथा बासी अन्न का परित्याग करें। काम, क्रोध, मद, मान, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेष से दूर रहें। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरू, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरूषों की कभी भूलकर भी निन्दा न करें। रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदबहिष्कृत मनुष्यों से वार्तालाप न करें। मन में सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा उदारता को स्थान दें। श्रोताओं को वक्ता से ऊंचे आसन पर कभी नहीं बैठना चाहिए। 

कुछ विशेष बातें- भागवत में 12 स्कन्ध हैं। प्रत्येक स्कन्ध की समाप्ति पर चन्दन, पुष्प, नैवेद्य आदि से पुस्तक की पूजा करके आरती उतारनी चाहिए। शुकदेवजी के आगमन तथा श्रीकृष्ण के प्राकट्य का प्रसंग आने पर भी आरती करनी चाहिए। बारहवें स्कन्ध की समाप्ति होने पर पुस्तक और वक्ता का भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए। वक्ता गृहस्थ हों तो, उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार उदारतापूर्वक वस्त्राभूषण तथा नकद भेंट देने चाहिए। मृदंग आदि बजाकर जोर-जोर से कीर्तन करना चाहिए। जय-जयकार, नमस्कार और शंखनाद करने चाहिए। ब्राह्मणों और याचकों को अन्न एवं धन देना चाहिए। वक्ता के हाथों श्रोताओं को प्रसाद एवं तुलसीदल मिलने चाहिए। प्रतिदिन कथा प्रारम्भ और अन्त में आरती होनी आवश्यक है। कथा का विश्राम प्रतिदिन नियत स्थल पर ही करना चाहिए। प्रथम दिन मनु-कर्दम-संवाद तक। दूसर दिन भरत-चरित्र तक। तीसरे दिन सातवें स्कन्ध की समाप्ति। चौथे दिन श्रीकृष्ण के प्राकट्य तक। पांचवें दिन रूक्मिणी-विवाह तक और छठे दिन हंसोपाख्यान तक की कथा बांचकर, सातवें दिन अवशिष्ट भाग को पूर्ण कर देना चाहिए। स्कन्ध आदि और अन्तिम श्लोक को कई बार उच्च स्वर से पढ़ना चाहिए। कथा समाप्ति के दूसरे दिन वहां स्थापित हुये सम्पूर्ण देवताओं का पूजन करके हवन की वेदी पर पच्चभूसंस्कार, अग्निस्थापन एवं कुशकण्डिका करे। फिर विधिपूर्वक वृत ब्राह्मणों द्वारा हवन, तर्पण एव मार्जन कराकर श्रीमद्भागवत की शोभायात्रा निकाले और ब्राह्मण भोजन कराये। मधु मिश्रित खीर और तिल आदि से भागवत के श्लोकों का दशांश (अर्थात 1800) आहुति देनी चाहिए। खीर के अभाव में तिल, चावल, जौ, मेवा, शुद्ध घी और चीनी को मिलाकर हवनीय पदार्थ तैयार कर लेना चाहिए। इसमें सुगन्धित पदार्थ (कपूर-काचरी), नागरमोथ, छड़छड़ीला, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) भी मिलाने चाहिए। पूर्वोक्त 1800 आहुति गायत्री-मन्त्र अथवा दशमस्कन्ध के प्रति श्लोक से देनी चाहिए। हवन के अन्त में दक्पाल आदि के लिये बलि, क्षेत्रपाल-पूजन, छायापात्र-दान, हवन का दशांश तर्पण एवं तर्पण का दशांश मार्जन करना चाहिए। फिर आरती के बाद किसी नदी, सरोवर या तालाब आदि पर जाकर अवभृथ स्नान (यज्ञान्त-स्नान) भी करना चाहिए। अन्त में कम से कम 12 ब्राह्मणों को मधुयुक्त खीर का भोजन कराना चाहिए। व्रत की पूर्ति के लिये स्वर्ण दान और गोदान करना चाहिए। सुवर्ण-सिंहासन पर विराजित सुन्दर अक्षरों में लिखित श्रीमद्भागवत की पूजा करके उसे दक्षिणासहित कथावाचक आचार्य को दान कर देना चाहिए। अन्त में सब प्रकार की त्रुटियों की पूर्ति के लिये विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ कथावाचक आचार्य के द्वारा सुनना चाहिए। विरक्त श्रोताओं को गीता सुननी चाहिए। 

प्रारम्भ में संग्रहणीय सामग्री सूची (पूजन सामग्री)- गंगाजल, रोली (कुमकुम), मोली (रक्षासूत्र), चन्दन, शुद्ध केसर, कपूर, पुष्प, पुष्पमाला, तुलसीदल, बिल्वपत्र, दूर्वादल, धूप, शुद्ध अगरबत्ती, पच्चामृत(दूध, दही, मधु, चीनी, घी), दीप (यथासम्भव शुद्ध, गोघृत और रूई), पान का पत्ता 50, सुपारी 25, यज्ञोपवीत 25, लइायची, लौंग, पेड़ा, मेवा, गुड़, चावल, गेहूं, कुण्डे मिट्टी के 2 गेहूं बोने के लिये, पीली सरसों, अबीर, गुलाल, ऋतुफल, कपड़ा सफेद 5 गज, कपड़ा लाल 5 गज, कपड़ा पीला 5 गज, कपड़ा शुद्ध रेशमी एक गज, सर्वतोभद्र की रचना के लिये हरा, लाल, काला, पीला और गुलाबी रंग, गोबर, नारियल 2 या 7, शुद्ध इत्र, कुशा, सिन्दूर, रूप्ये-रेजगी-पैसे, आरती का पात्र, धण्टा, घड़ियाल, शंख-झांझ आदि, कोसा 50, दियासलाई, चौकी एक सर्वतोभद्र के लिये, चौकी एक नारदजी के लिये, चौकी एक नवग्रह, षोडशमातृका और गणेश के लिये, चौकी एक व्यास, शुकदेव, सप्तचिरजीवी तथा पौराणिकों के लिये, पाटा एक शेष-सनत्कुमार आदि के लिये। 

कलश स्थापना की सामग्री- तांबे का एक कलश, कांसी या तांबे का पात्र एक, कलश मिट्टी के 5, सप्तधान (जौ, गेहूं, धान, तिल, कंगनी, सांवा, चीना), पच्चपल्लव (आम, पीपल, पाकर, गूलर और बड़ के पत्ते), दूर्वा, कुशा, सुपारी, सुवर्ण की टिकड़ी 4, पच्चरत्न ( हीरा, नीलम, लाल, मोती और सोना, अभाव में यथासाध्य सुवर्ण), चन्दन, अक्षत, फूल, तीर्थोदक, समुद्रजल, सप्तमृत्तिका (घुड़साल की, हाथीशाला की, दीमक की, नदी-संगम की, राजद्वार की, गोशाला की, तालाब की), सर्वौषधि ( कूट, जटामाशी, हल्दी गांठ 2, राभट, मुरा, शैलेभ, चन्दन, बचा, चम्पक और नागरमोथा- अभाव में केवल हल्दी), नदी संगम का जल, श्रीलक्ष्मी नारायण की स्वर्णमयी प्रतिमा (चार तोले सोने की अथवा अपनी शक्ति के अनुसार)।

कथा मण्डप के लिये सामग्री- चंदोवे का कपड़ा, चौकोर मण्डप, केले के खम्भे 4, बांस के खम्भे, मण्डप को चारों ओर से माला, फूल और पत्तों से सजाना, चारों दिशाओं में झंडी लगाना, वस्त्र और गोटे आदिसे सजाना, चौकी व्यास के लिये, गद्दी, मसनद, तकिये, कम्बल, चद्दर, पांच झंडियां, पुस्तक का वेष्टन, पुस्तक के लिये चौकी, आम के पत्तों के बंदनवार। गणेशजी, देवता, श्रीमद्भागवत और आचार्य की पूजा के लिये प्रतिदिन चन्दन, पुष्प, पुष्पमाला, धूप, दीप आदि सामग्री। 
वरण की सामग्री- वक्ता के लिये चादर, धोती, गमछा, आसन, दक्षिणा, रूद्राक्षमाला, तुलसीमाला, जलपात्र आदि, जप करने वालों के लिये भी यथासम्भव वस्त्र-द्रव्य अदि।
पाठ के लिये पुस्तक- भागवत, रामायण, गीता, सहस्त्रनाम आदि।

हवन के लिये सामग्री- वेदी के लिये स्वच्छ बालू एक बोरा, सूखी आम की लकड़ी दो मन, कुशकण्डिका के लिये कुशा, दुर्वा, अग्नि लाने के लिये दो कांस्यपात्र, एक पूर्णपात्र पीतल का बड़ा सा, यज्ञपात्र-प्रणीता, प्रोक्षणी, स्त्रुवा, स्त्रुवा, स्त्रुक्, पूर्णाहुतिपात्र, चरूस्थाली, आज्यस्थाली (कांसा का बड़ा सा कटोरा), हवन के लिये पदार्थ- मधुमिश्रित खरी, छायापात्र-दान के लिये कांसे की छोटी एक कटोरी तथा उसके लिये घी। तिल 10 सेर, चावल 5 सेर, जौ 2 सेर, शुद्ध घी 4 सेर, शुद्ध चीनी 2 सेर, पच्चमेवा 2 सेर (पिश्ता, बादाम, किशमिश, अखरोट और काजू)- इन सबको मिलाकर हवनसामग्री बनायी जाती है। फिर इसमें सुगन्धित द्रव्य (कपूरकाचरी, छड़छड़ीला, नागरमोथा, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) आवश्यकतानुसार मिला लें। बलि के लिये पापड़, उड़द, दही, चावल, रूई की बत्ती, दक्षिणा, क्षेत्रपाल-बलि के लिये हंड़िया, काजल, सिंदूर, दीपक, दक्षिणा आदि। पूर्णाहुति के लिये नारियल का गोला आदि, वितरण के लिये प्रसाद। ब्राह्मण-भोजन के लिये मधुमिश्रित खीर तथा अन्यान्य मधुर पकवान, पूरी-साग आदि। हवनकर्ता ब्राह्मणों के लिये वरण और दक्षिणा आदि। कथा समाप्त होने पर कथावाचक को भेंट देने के लिये वस्त्र, आभूषण, दक्षिणा आदि।


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