कैसा होता है मृत्यु के बाद का जीवन
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(पत्रकार एवं आध्यात्मिक लेखक)
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मानव का शरीर एक घर की भांति है। इसमें जीवात्मा 70-80 वर्ष तक रहती है। यदि इसे अपना वास्तविक घर समझने लगें तो उस मानव का उस शरीर के प्रति मोह हो जाता है तथा आसानी से वह उसे छोड़ना नहीं चाहती। फिर परिवार, सम्पत्ति आदि का मोह भी बाधा बन जाता है। एैसी स्थिति में मनुष्य मरते समय बहुत घबराता है तथा उसके प्राण किसी मोह में फंसे होने के कारण शरीर को आसानी से छोड़ते नहीं। जिसका मोह जितना अधिक होता है उतनी ही उसे शरीर छोड़ने में वेदना होती है। शरीर व्यर्थ हो चुका है एवं जीवात्मा उसे छोड़ना नहीं चाहती, ऐसी स्थिति में काफी समय तक उसे जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करना पड़ता है।
उस समय उसके परिजन इस मोह को छुड़ाने के लिये उसके सभी परिजनों को बुला लेते हैं जिससे उसकी उनसे मिलने की इच्छा शान्त हो जाये। मोह भंग करने के लिये उसे गीता भी सुनाई जाती है। उसके सामने गऊदान, एकादशी व्रत करना, गायों को घास डालना, दान-पुण्य करना आदि का संकल्प भी किया जाता है। जीवात्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है जो शरीर की मृत्यु के बाद भी उससे अलग होकर जीवित रहता है तथा अपने स्थूल शरीर के समीप खड़ा होकर अपने मृत देह को इस प्रकार देखता रहता है जैसे वह किसी अन्य के शरीर को देख रहा हो। वह उस शरीर में पुनः प्रवेश नहीं कर सकता किन्तु मोहवश उसे छोड़कर जाता भी नहीं। काफी समय तक तो उसे विश्वास भी नहीं होता कि वह मर गया है। उसे अपनी मृत्यु का विश्वास दिलाने के लिये शव को दाह संस्कार के लिये जब-जब उठाते हैं तो उसके परिजन रोना-धोना करते हैं। यह जीवात्मा कभी शरीर के प्रति मोहवश श्मशान तक जाता है तथा अपने ही शरीर को जलते हुये देखता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि वह मर गया है तथा इसके बाद ही वह अपनी अगली यात्रा पर निकल जाता है।हिन्दुओं में मृत शरीर को जलाने (दाह संस्कार) की पृथा है। इसमें भी सभी परिजनों का सम्मिलित होना एक धार्मिक कृत्य मानकर आवश्यक माना जाता है। सभी के सामने परिजन शव को चिता में रखते हैं तथा उसका ज्येष्ठ पुत्र उसमें अग्नि देता है। वही ज्येष्ठ पुत्र अन्त में कपाल क्रिया करता है जिसका अर्थ है कि अन्य अंगों के जल जाने पर भी मस्तिष्क में उसकी चेतना रह जाती है जिससे मुक्ति दिलाना है। दाह संस्कार के पीछे दुसरा कारण यह भी है कि स्थूल शरीर के मृत होने पर भी उसके भीतर का छाया शरीर उसके आस-पास मंडराता रहता है तथा 36 घंटे के भीतर वह जीवात्मा उसको भी मृतवत छोड़कर उसमें से निकल जाती है। यदि शव को गाड दिया जाये तो वह उस कब्र के ऊपर मंडराता हुआ धीरे-धीरे नष्ट होता है क्योंकि स्थूल शरीर के प्रति जो उसका आकर्षण था वह समाप्त हो जाता है। इसलिए शव को गाड़ने की अपेक्षा उसका दाह संस्कार करना अधिक अच्छा है। दाह संस्कार के पीछे हिन्दुओं की यही धारणा है।
दूसरी बात यह भी है कि हिन्दू आत्मा को ही महत्व देते हैं। शरीर का महत्व तभी तक है जब तक कि उसमें आत्मा है। आत्मा निकल जाने पर शरीर मिट्टी भर है किन्तु आत्मा का उससे मोह रह जाने के कारण ही उसका विधिवत दाह संस्कार किया जाता है। उसे मिट्टी मानकर फेंका नहीं जाता। इसमें जल्दी भी की जाती है जिससे कि आत्मा को अधिक समय तक उस शरीर के आस-पास भटकना न पडे़ एवं शीघ्र ही अपनी अगली यात्रा आरम्भ कर दे। यहां तक कि दूसरे या तीसरे दिन उसकी अस्थियां भी गंगा या अन्य पवित्र नदी में प्रवाहित कर दी जाती हैं।
जीवात्मा का स्थूल एवं छाया शरीर के नष्ट हो जाने पर उसका उसके घर एवं परिवार जनों से मोह बना रहता है जिसे छोड़ने में उसे थोड़ा समय लगता है। सामान्य आत्माएं मृत्यु के बाद शीघ्र ही नया गर्भ खोज लेती हैं किन्तु कुछ को 3 वर्ष तक प्रतीक्षा करना पड़ती है। कुछ को इससे भी अधिक। हिन्दुओं की मान्यता है कि यह जीवात्मा 13 दिन तक घर में ही रहती है। इसके बाद वह प्रेतयोनि में रहती है। इस प्रेतयोनि से उसकी मुक्ति के लिये 13 दिन के बाद भी कई प्रकार के क्रिया कर्म किये जाते हैं जिससे वह प्रेतयोनि से मुक्ति पाकर आगे की यात्रा में निकल जाती है। तेरह दिन तक उस तीवात्मा का घर में निवास मानकर उसके लिये 12 दिन तक शोक मनाते हैं, करूड पुराण सुनाकर उसे उस अशरीरी दुनियां की सुचना दी जाती है जिससे वह अपरिचित है। जीवात्मा के प्रतीक के रूप में उसके कमरे में जल से भरा हुआ कलश भी रखते हैं जिसे ‘‘श्रावणी कलश’’ कहा जाता है तथा उस घर में घी का दीपक जलाते हैं क्योंकि उस सूक्ष्म शरीरधारी जीवात्मा को तेज प्रकाश असह्य होता है। दसवें, ग्यारहवें एव बारहवें दिन उसका क्रिया कर्म एवं पिण्डदान भी किया जाता है जिससे वह जीवात्मा तृप्त होती है।
तेरहवें दिन उस जीवात्मा को विदाई दी जाती है। उस समय श्रावणी के कलश को किसी पीपल के पेड़ के नीचे जाकर रख आते है तथा आते समय पीछे मुडकर भी नहीं देखते वरना वह जीवात्मा फिर उसके साथ घर पर आ जाती है। पीपल में देवताओं का निवास माना गया है इसलिए उस जीवात्मा को उनके पास ले जाकर छोड़ आते हैं जिससे वह प्रेतयोनि में न पड़े। उस दिन गरूडपुराण की भी समाप्ति कर दी जाती है तथा वहां से लौटकर घर मे ढोल बज जाती है जो शुभ का प्रतीक है। इसी दिन उत्तराधिकारी की रस्म अदा की जाती है। बाहर दिन तक जीवात्मा का घर में निवास मानकर अन्य उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया जाता।
जैसे ही जीवात्मा अपना स्थूल शरीर छोड़ती है उसका नये लोक में प्रवेश हो जाता है। यह लोक इस स्थूल लोक से सूक्ष्म है तथा जीवात्मा भी अपने सूक्ष्म शरीर से ही इसमें प्रवेश करती है। इस लोक का उसे पूर्व अनुभव नहीं है न इसकी प्रकृति से परिचित ही है। इस लोक का विस्तार इस स्थूल लोक से भी अधिक है। वहां जीवात्मा का केवल भौतिक शरीर ही नहीं होता, न कोई भौतिक साधन सुविधाएं ही होती हैं बाकी सब कुछ होता है। यहां उसके सगे-सम्बन्धी, मित्र आदि भी मिल जाते हैं यदि उनका पुनर्जन्म न हुआ हो अथवा आगे के लोकों में उनकी गति नहीं हुई हो। इस लोक में प्रवेश करने के बाद इस संसार की स्मृति उसे थोड़े समय रहती है, फिर वह भूल जाता है, जिस प्रकार स्वप्न टूटने पर थोड़े समय ही उसकी स्मृति रहती है। मृत्यु स्वप्न टूटने के समान ही है तथा इसके बाद यह संसार स्वप्नवत ही ज्ञात होने लगता है। नये लोक में प्रवेश के बाद वह इस संसार की सभी सुखद एवं दुखद अनुभूतियों से मुक्त हो जाता है।
जिस प्रकार घर छोड़कर विदेश जाने वाले को घर की याद सताती रहती है तथा नये वातावरण में जमने में उसे थोड़ा समय लगता है। इसी प्रकार मृत्यु के नये वातावरण में जमने में उसे थोड़ी कठिनाई होती है। यदि पहले ही घर का मोह उसे छुड़ा दिया जाये तो वह अपने नये स्थान पर शीघ्र ही सामंजस्य बिठा लेता है। इस पुराने घर से मोह दुड़ाने के लिये भारत ने कई प्रयोग किये हैं। तिब्बत में भी इसके कई प्रयोग हुये हैं। मृत्यु के समय यह जीवात्मा स्थूल शरीर सहित समस्त स्थूल लोक एवं स्थूल पदार्थों का त्याग कर देता है। केवल इस जन्म में किये गये सभी शुभ-अशुभ कर्मों के संस्कार स्मृतियां, अनुभव, कर्म आदि की गठरी बांध कर अपने साथ ले जाता है। इन्हीं से जीवात्मा का सूक्ष्म शरीर बनता है जो उसका स्वशरीर है। इस जीवात्मा के एक नहीं बल्कि सात शरीर हैं जिसका निर्माण उसकी घनता के आधार पर हुआ है। सबसे स्थूल यह स्थूल शरीर था जो छूटा है। अन्य 6 शरीर अभी विद्यमान हैं। जीवात्मा द्वारा की गई प्रगति के अनुसार ये 6 शरीर भी क्रम से छूटते जाते हैं तथा ज्यों-ज्यों जीवात्मा घनत्व वाले शरीर छूटते जाते हैं त्यों-त्यों जीवात्मा हल्की होकर आगे के लोकों में गमन करती जाती है। सातों शरीर नष्ट होने पर ही वह मुक्त होकर परमात्मा में लय होने का अनुभव करती है। इसलिए प्रत्येक शरीर का छूटना उसकी प्र्रगति का सूचक है। कुछ व्यक्ति इसी जन्म में साधना द्वारा सातों शरीरों को नष्ट कर देते हैं जिससे वे मृत्यु के बाद सीधे ही मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं।
उनका अन्य किसी लोक में गमन नहीं होता ऐसे व्यक्ति ‘‘जीवनमुक्त’’ कहलाते हैं। जीवात्मा का यह सूक्ष्म शरीर मुक्ति पर्यन्त बना रहता है तथा इसी के द्वारा वह विभिन्न लोकों में गमन करता है। सूक्ष्म शरीर के छूट जाने पर नया शरीर ग्रहण नहीं हो सकता। यह सूक्ष्म शरीर ही पुनर्जन्म ग्रहण करता है।
मृत्यु के बाद जीवात्मा सूक्ष्म शरीर को त्यागकर सर्वप्रथम जिस सूक्ष्म लोक में प्रवेश करती है उसे ‘‘कामलोक’’ या ‘‘प्रेत लोक’’ कहते हैं। यह स्थूल लोक से कम घना किन्तु अन्य लोकों से अधिक घना होता है। जिन जीवात्माओं पर अशुभ कर्म संस्कारों का भार अधिक होता है उनका घनत्व अधिक होने से ये इसी लोक में रूक जाती हैं। उत्तम जीवात्माएं हल्की होने से वे शीघ्र ही इसे छोड़कर आगे के इससे भी सूक्ष्म लोकों में चली जाती हैं। जीवात्मा के सात शरीरों की गति उन्हीं के अनुकूल लोक में होती है। इस प्रेत लोक में जीवात्मा को अपने कर्मों एवं वासना के अनुसार सुख-दुखों की अनुभूति होती है। इस लोक में कष्ट झेलकर जीवात्मा शुद्ध होती है तथा शुद्ध होकर वह इससे मुक्त होकर आगे के लोक में प्रवेश करती है जो इससे अधिक सूक्ष्म हैं। प्रेतात्मा का लिंग शरीर भी सात परतों वाला होता है जिसमें यह प्र्रेत बन्द रहता है। उनके नष्ट हुये बिना उसकी इस लोक से मुक्ति नहीं हो सकती।
प्रत्येक परत में वह थोड़े समय रहता है फिर वह उसे छोड़कर मुक्ति की ओर बढ़ता है। साधारण जीव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार 5 से 50 वर्ष तक रहता है। जिनकी आत्मोन्नति अधिक हो गयी है उनकी ये परतें शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं जिससे वह अगले लोक में शीघ्र ही चला जाता है। जो उपयुक्त आहार-विहार से अपना जीवन शुद्ध रखता है तथा जिसकी वासना मन्द रहती है वह शीघ्र ही स्वर्ग लोक पहुंच जाता है। बीच के लोकों का उसे ज्ञान भी नहीं रहता। जिसकी पाश्विक वृत्तियां रही हैं वे इस प्रेत लोक के अनुकूल खण्ड में ही जायेंगे।
अकाल मृत्यु, हत्या, आत्महत्या, दुर्घटना, यृद्ध में मरने वालों के लिये अलग नियम हैं। यदि वे जीव शुद्ध हैं, यदि लोकहित में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है तो उनकी विशेष रक्षा होती है। उनकी जितनी आयु बाकी रह गई है उतने समय वे आनन्द दायक निद्रा में रहते हैं किन्तु अन्य लोगों को होश बना रहता है। बहुतों को मरते समय की बातों का विस्मरण नहीं होता। वे कामलोक की गहरी परत में ही रहते हैं। आयु समाप्त होने पर वे कामलोक में जाते हैं। वे उस मृत्यु की पीड़ा का बार-बार अनुभव करते हैं। ऐसी मृत्यु किसी बुरे प्रारब्धवश ही होती है। जीव की सभी आशा, तृष्णा, राग, द्वेष उसमें रहते है इसी से वह दूसरों को देखता भी है तथा उनके कार्यों में हस्तक्षेप करता है। अन्य सहायक उन्हें आगे जाने में सहायता करते हैं किन्तु इन प्रेतों के यह समझ में नहीं आता। ये प्रेत दूसरे मनुष्यों के शरीर अपने वश में करके नये कर्म करते रहते हैं जिनका फल उन्हें भविष्य में अवश्य भोगना पड़ता है। अकाल मृत्यु बुरी समझी जाती है। जब यह जीव पुनः जन्म लेता है तो ये ही वृत्तियां बीज रूप में विद्यमान रहती हैं। इस प्रकृति के कोश के नाश होने पर ही उसकी आगे के लोक में गति होती है।
हिन्दुओं में जीवात्मा की इस प्रेतयोनि से मुक्ति के लिये अनेक कर्म किये जाते हैं जिनमें वार्षिक श्राद्ध, गया श्राद्ध आदि हैं तथा अन्तिम श्राद्ध बद्रीनाथ में किया जाता है। इसके बाद यह माना जाता है कि वह जीवात्मा प्रेत योनि से मुक्त होकर अगले लोक में चली गई है। अथवा उसका पुनर्जन्म हो चुका है। प्रेतयोनि थोड़ी बहुत सभी को भोगनी पड़ती है। केवल जीवनमुक्त ही इससे वंचित रहते हैं।
जीवात्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। शरीर की मृत्यु पर भी जीवात्मा जीवित रहती है। जो लोग मृत्यु के मुख से वापस लौटे हैं उन्होने जो वर्णन किया है डाक्टरों ने उसका निष्कर्ष निम्न प्रकार निकाला है- ‘‘मृत्यु के बाद मृतक स्वयं अपने को अपने भौतिक शरीर से अलग हवा में उठा हुआ पाता है। वह अपने सगे-सम्बन्धियों को उसका शोक मनाते, रोते-चिल्लाते स्पष्ट देखता है। वह उनकी आवाजें भी सुनता है किन्तु उसकी आवाज कोई नहीं सुन सकता। वह अपने पार्थिव शरीर की अन्त्येष्टि होते भी देखता है। अन्ततः उसे एक अन्धेरी गुफा में होकर जाने की अनुभूति होती है। फिर वह स्वयं को एक प्रकाश लोक में पाता है। यहां उसके मित्र परिवार के सभी दिवंगत आत्माएं उससे मिलती हैं और उसकी सहायता करती हैं। इस दिव्यलोक में उसे असीम आनन्द प्रेम व सुख की प्राप्ति होती है। वह पुनः इस भौतिक शरीर में आना नहीं चाहता किन्तु किसी अज्ञात प्रेरणा से उसे पुनः आना पड़ता है।
एैसे सैकड़ों उदाहरण है जिससे यह सिद्ध होता है कि मृत्यु के उपरान्त भी हमारी सूक्ष्म सत्ता विद्यमान रहती है तथा पुनर्जन्म के समय यही अपने उपयुक्त भौतिक शरीर में प्रवेश करती है। पुनर्जन्म की भी कई घटनाएं हैं जिसमें आत्माएं अपने पूर्व जन्म का हाल बताती हैं। वे अपने नाते-रिश्तेदारों को भी पहचान लेती हैं। इन सबका यही अर्थ है कि मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है। जीवात्मा बार-बार शरीर परिवर्तन करती रहती है। सम्मोहन क्रिया के द्वारा भी व्यक्ति को अपने पूर्व जन्मों में प्रवेश कराकर इस चेतना का हाल जानने की कोशिश की जाती है। मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती किन्तु इसे सुखद बनाया जा सकता है, जिससे भावी जीवन अधिक उन्नत एवं समृद्ध बन सके, यह मानव के हाथ में है। दैवी शक्तियां इसे अधिक उन्नत बनाने में सदा सहयोग करती रहती हैं किन्तु अज्ञानवश मुनष्य स्वयं अपना पतन कर लेता है। जिसके लिये यह प्रकृति जिम्मेदार नहीं है।
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