अकेलापन जीवन का चरम सत्य है
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
‘‘मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
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जीवन एक मोटी पुस्तक की तरह है। जिसका एक पृष्ठ आपके सामने खुला है। उसे देखकर आप आज की बात जान सकते हैं पर अन्य पृष्ठों पर क्या-क्या छपा है यह बात तुरन्त नहीं बताई जा सकती। ईश्वर बड़ी सावधानी से एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति और एक-एक पृष्ठ हमारे सामने खोलता रहता है। यदि इस पूरी पुस्तक विचारधारा, जीवन का पूरा लेखा, हमें पहले ही पता चल जाये तो शायद अनिष्ट की बाट देखते-देखते ही हम मृत्यु के ग्रास बन जायें। जीवन तो प्रगतिशील है, चलता जाता है। मरने वाले मरते हैं। डूबने वाले डूबते-उतरते हैं। गिरते हुये को देखकर हमें विचलित नहीं होना है। बस चले चलो। सफर में आगे क्या होगा, देखा जायेगा।
हमें दो प्रकार की शिक्षाएं मिलती हैं। पहली वह जो अपने गुरूजनों या संसार से प्राप्त करते हैं, दूसरी वह जो स्वयं अकेला चलकर अपने अनुभवों से संचित करते हैं। संसार की सर्वोत्तम शिक्षा वह है जो मनुष्य स्वयं सतत संसार एवं समाज में संघर्ष द्वारा प्राप्त करता है। आत्मनिर्भर ही सर्वत्र पूजा जाता है। जिन व्यक्तियों पर आपने आशा के विशाल महल बना रखे हैं, वे कल्पना के आकाश में विहार करने के समान अस्थिर, सारहीन, खोखले हैं। अपनी आशा को दूसरे में संलिष्ट कर देना स्वयं अपनी मौलिकता का हृस कर अपने साहस को पंगु बना देता है। जो व्यक्ति दूसरों के बल पर जीवन यात्रा करता है, वह शीघ्र ही अकेला रह जाता है।
जो अपना सुख और प्रसन्नता दूसरों में ढूंढता रहता है, उनके सुख में सुखी, उनकी नाराजगी में अस्तव्यस्त हो जाता है, वह जीवन भर दूसरों की गुलामी में फंसा रहता है। दूसरों के आदेश में हर्ष, प्रसन्नता, घृणा, क्रोध, उद्वेग का अनुभव करने वाला व्यक्ति उस बच्चे की तरह है जो दूसरे की गोदी से उतरना ही नहीं चाहता। मनुष्य के सुख, साहस, उत्साह, प्रफुल्लता का कन्द्र किसी बाह्य सत्ता में नहीं है। सोचिए, आज जिस व्यक्ति की प्रसन्नता से आप भावी जीवन के सुख सपनें निर्मित कर रहे हैं, यदि कल वह आपसे मुंह मोड़ ले, अनायास ही नाराज हो जाये या चल बसे, तो आपका सुख कहां जायेगा? दूसरे को अपने जीवन का संचालक बना देना ऐसा ही है, जैसा अपनी नौका को एक ऐसे प्रवाह में डाल देना, जिसके अन्त का आपको कोई ज्ञान नहीं।
इस जगत में दो व्यक्ति एक सी रूचि, एक स्वभाव, एक दृष्टिकोण या विचारधारा के मिलना बड़ा कठिन है। जितने मस्तिष्क, उतने ही उनके सोचने-विचारने के ढंग। रहन-सहन की अलग-अलग पद्धतियां। पोशाक पहनने के तीरके अलग। भोजन सबका भिन्न-भिन्न। एक सरल सीधी खाद्य वस्तुओं में, सूखी रोटी में मधुर स्वाद लेता है तो दूसरे को मिर्च-मसाले से बने पदार्थ व श्रृंगारिक उत्तेजक भोजन प्रिय है। एक ठंडा जल पीकर आन्तरिक शान्ति का अनुभव करता है तो दूसरा बर्फ से युक्त सोडा, लेमन, शर्बत, ठंडाई या मद्यपान चाहता है। एक 6 घण्टे सोकर नया जीवन लेता है, दूसरा 10 घंटे पलंग तोड़ता है।
यह जगत विभिन्न तत्वों, मन्तव्यों तथा जीवन दर्शन वाले व्यक्ति समूहों से विनिर्मित किया गया है। फिर किस प्रकार आप अपनी योग्यता, अभिरूचि अथवा साम्य विचारधारा का व्यक्ति पाने की आशा कर रहे हैं? आपको अपने जैसा व्यक्ति प्राप्त होना कठिन है। आपको अपने जीवन पथ पर अकेले ही अग्रसर होना पड़ेगा। कब तक दूसरों का सहारा ढूंढते रहोगे। कोई आपके साथ दूर तक नहीं चल पायेगा। बस अकेले चले चलिए।
जीवन एक यात्रा है। यात्रा में कुछ समय के लिए एक-दो संगी-साथी आपको मिल जाते हैं। इनसे चार दिन के लिये आप बोलते-बतियाते हैं। हंसी-ठट्टा, संघर्ष, छीना-झपटी चलती है। साथ-साथ कुछ समय तक आगे बढ़ते हैं, किन्तु धीरे-धीरे उनकी जीवन यात्रा समाप्त होती चलती है। एक के पश्चात दूसरा आपको छोड़ता चलता है। इस तरह एक दिन आप अकेले पड़ जाते हैं। तब इस अकेलेपन को सोचकर आपका मन कुछ समय के लिए अशान्त हो उठता है। उसमें एक कडुवाहट सी आ जाती है। पर वास्तव में जीवन का यह अकेलापन ही मानव जीवन का परम सत्य है।
सबको पाकर भी हम सब अकेले हैं, नितान्त अकेले! जिन्हें हम भ्रमवश अपने साथ चलता हुआ समझते हैं, वास्तव में वे हमारे अल्पकालीन सहयात्री मात्र हैं। हमारे इस अकेलेपन में कोई भी हांथ बटाने वाला नहीं मिलेगा। हम अकेले ही आये हैं, अकेले जीवनपर्यन्त चलते रहे, अकेले ही निरन्तर बढ़ते रहेंगे। हमें अपने दोनों पावों पर ही चलना है। कोई आपको उठाकर जीवन यात्रा पार नहीं करा सकता। ये तो स्वयं ही करना होगा।
रोज नये-नये रूप बनाकर मनुष्य इस अकेलेपन को भूलाने का प्रयास करता रहता है। भीड़-भाड़ से भरे हुये विशाल नगरों में निवास करता है। अपने परिवार का विस्तार करता है। किन्तु वह मूर्ख नहीं जानता कि वह इस माया चक्र से वह स्वयं ही उलझन में फंस रहा है। सूखी रेत से पानी की आशा रखता है। बालू में से तेल निकालना चाहता है। हवा में किले बनाना चाहता है। दूसरे के बल पर चलने, उनसे हमेशा आशा रखने या निरन्तर सहायता चाहने का यह मायाजाल मृगमरीचिका नहीं तो क्या है?
आपको अकेलेपन से भयभीत नहीं होना है। बियावान जंगल हो या भीड़-भाड़ वाले नगर आप बस चले चलो। अकेलापन आपकी निजी आन्तरिक प्रदेश में छिपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है। जितना ही आप अपनी शक्तियों से कार्य लेते हैं, उतना ही उनकी वृद्धि या विकास होता है। अकेले हैं, तो डरें नहीं। हतोत्साह न हों। बस आप अपनी शक्तियों का इस मर्यादा तक विकास करें कि दूसरों के आश्रय की हमेशा आवश्यकता न पड़े। अपनी सोई हुई गुप्त शक्तियों को जाग्रत करें। इस जीवन यात्रा में कोई मिल जाये तो ठीक। न मिले तो ठीक। आप अपनी यात्रा के मुख्य उद्वेश्य पर ध्यान केन्द्रित करते हुये चले चलो।
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