कैसे करता है जीव गर्भ में प्रवेश
आचार्य डा0 प्रदीप द्विवेदी
’’मानव सेवा रत्न से सम्मानित’’
(वरिष्ठ सम्पादक- इडेविन टाइम्स)
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जीव प्रारब्ध-कर्मवश देह प्राप्ति के लिये पुरूष के वीर्यकण के आश्रित होकर स्त्री के उदर में प्रवेष करता है। आयुर्वेद के विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर जीव के पूर्वकर्मानुसार गर्भप्रवेश का भी वर्णन उपलब्ध होता है। सुश्रुतसंहिता के अनुसार यह आत्मा जैसे शुभ-अशुभ कर्म पूर्वजन्म में संचित करता है, उन्हीं के आधार पर इसका पुनर्जन्म होता है और पूर्वदेह में संस्कारित गुणों का प्रादुर्भाव इस जन्म में होता है। जैसा की योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में इस बात की पुष्टि- ‘तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।’ इस वाक्य से की है। इसी कारण हम संसार में किसी को कुरूप, किसी को सुन्दर, किसी को लंगड़ा, किसी को लूला, किसी को मूक और किसी को कुबड़ा तो किसी को अंधा और किसी को काना कहते हैं। इसी प्रकार कोई जीव किसी महापुरूष के घर जन्म लेता है तो कोई किसी अधम के घर उत्पन्न होता है। कोई ऐश्वर्यशाली के घर में जन्म लेता है तो कोई अकिंचन झोपड़ी में पलता है। यह सम्पूर्ण विविधता पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती है, जिसे कि हम दैव (भाग्य) भी कहते हैं।
गर्भप्रवेश
चरकसंहिता के शारीरस्थान के चतुर्थ अध्याय में भी इस बात की पुष्टि इस प्रकार से की गयी है-
‘तत्र पूर्व चेतनाधातुः सत्वकरणो गुणग्रहणाय पुनः प्रवर्त्तते। स हि हेतुः कारणं निमित्तमक्षरं कर्ता मन्ता बोधयिता बोद्धा द्रष्टबाधा ब्रह्मा विश्वकर्मा विश्वरूपः पुरूषः प्रभवो अव्ययो नित्यो गुणी ग्रहणं प्राधान्यमव्यक्तं जीवो ज्ञः प्रकुलश्चेतनावान प्रभुश्च भूतात्मा चेन्द्रियात्मा चान्तरात्मा चेति। (च0 शा0 4/4)
‘सबसे पूर्व मनरूपी कारण के साथ संयुक्त हुआ आत्मा धातुगुण के ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है, अर्थात ग्रहण के लिये अथवा महाभूतों के ग्रहण के लिये प्रवृत्त होता है। आत्मा का जैसा कर्म होता है और जैसा मन उसके साथ है, वैसा ही शरीर बनता है, वैसे ही पृथ्वी आदि भूत होते हैं तथा अपने कर्मद्वारा प्रेरित किये हुये मनरूपी साधन के साथ स्थूलशरीर को उत्पन्न करने के लिये उपादानभूत भूतों का ग्रहण करता है। वह आत्मा हेतु, कारण, निमित्त, कर्ता, मन्ता, बोधयिता, बोद्धा, द्रष्टा, धाता,ब्रह्मा, विश्वकर्मा, विश्वरूप, पुरूषप्रभव, अव्यय, नित्यगुणी, भूतों का ग्रहण करने वाला प्रधान,अव्यक्त, जीवज्ञ, प्रकुल, चेतनावान, प्रभु, भूतात्मा, इन्द्रियात्मा और अन्तरात्मा कहलाता है।’
चरकसंहिता के अनुसार- ‘स (आत्मा) गर्भाशयमनुप्रविश्य शुक्रशोणिताभ्यां संयोगमेत्य गर्भत्वेन जनयत्यात्मनात्मानम् आत्मसंज्ञा हि गर्भे। (च0शा0 3/14) अर्थात वह जीव गर्भाशय में अनुप्रविष्ट होकर शुक्र और शोणित से मिलकर अपने से अपने को गर्भरूप में उत्पन्न करता है। अतएव गर्भ में इसकी आत्मसंज्ञा होती है।
सुश्रुतसंहिता के अनुसार- ‘क्षेत्रज्ञो वेदयिता स्प्रष्टा घ्राता द्रष्टा श्रोता रसयिता पुरूषः स्त्रष्टा गन्ता साक्षी धाता वक्ता यः कोअसावित्येवमादिभिः पर्यायवाचकैर्नामभिरभिधीयते दैवसंयोगादक्षयोअव्ययोअचिन्त्यो भूतात्मना सहान्वक्षं सत्वरजस्तमोभिर्दैवासुरैरपरैश्च भावैर्वायुनाभिप्रेर्यमाणो गर्भाशयमनुप्रविश्यावतिष्ठते। (सुश्रुत शा0 3/3) अर्थात ‘क्षेत्रज्ञ, वेदयिता, स्प्रष्टा, ध्राता, द्रष्टा, श्रोता, रसयिता, पुरूषसत्रष्टा, गन्ता, साक्षी, धाता, वक्ता इत्यादि पर्यायवाची नामों से, जो ऋषियों द्वारा पुकारा जाता है, वह क्षेत्रज्ञ (स्वयं अक्षय, अचिन्त्य और अव्यय होते हुये भी) दैव के संग से सूक्ष्म भूत तत्व, रज, तम, दैव, आसुर या अन्य भाव से युक्त वायु से प्रेरित हुआ गर्भाशय में प्रविष्ट होकर (शुक्रआर्तवक के संयोग होते ही) तत्काल उस संयोग में अवस्थान करता है।’
जीव का गर्भ वृद्धिक्रम
गर्भ में प्रवेष करने के बाद यह आत्मा पांच्चभौतिक शरीर को धारण करने लगता है। इस शरीर की वृद्धि गर्भ में क्रमशः 9 मास तक होने का वर्णन भी कई ग्रन्थों से प्राप्त होता है। श्रीमदभागवत एवं गुरूडपुराण के अनुसार-
कललं त्वेकरात्रेण पच्चरात्रेण बुद्बुदम।
दशाहेनु तु कर्कन्धुः पेश्यण्डं वा ततः परम्।।
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्नड्घ््रयाद्यग्डविग्रहः।
नखलोमास्थिचर्माणि लिंगच्छिद्रोद्भवस्त्रिभिः।।
चतुर्भिर्धातवः सप्त पच्चभिः क्षुत्तृडुद्भवः।
षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे।।
(श्रीमद्भागवत 3/31/2-4, गुरूणपुराण सारोद्धार 6/6-8)
अर्थात ‘डिम्बाणु के साथ मिले हुये शुक्राणु की वृद्धि एक रात्रि में कलल, 5 रात्रि में बुद्बुद, 10 रात्रि में कर्कन्धू (बेर) के समान मांस के पिण्ड के रूप में होती है एवं अन्य मानवेतर योनियों में अंडे के रूप में होती है। उसके बाद 2 मास में सिर और बाहु अंग का विग्रह (विभाग) होता है। 3 माह में नख, रोम, हड्डी, चर्म और लिंग आदि छिद्र होते हैं। 4 महीने में सातों धातु बनते हैं, 5 माह में क्षुधा तथा तृषा की उत्पत्ति होती है। एवं 6 माह ममें जरायु (झिल्ली) में लिपटा हुआ दक्षिणकुक्षि में भ्रमण करता है। 7वें माह में सचेत होकर प्रसूतिवायु से कम्पित होता हुआ विष्ठा से उत्पन्न सहोदर कृमि के समान चलता रहता है।’
आयुर्वेद के मुख्य ग्रन्थ सुश्रुतसंहिता के आधार पर गर्भ-वृद्धिक्रम का वर्णन कुछ इस प्रकार से मिलता है- ‘शुक्र और शोणित के संयोग से पहले मास में गर्भ कलल अर्थात बुद्बुदाकार होता है। दूसरे मास में शीत (श्लेष्मा), उष्मा (पित्त) और अनिल (वात) इनसे पच्चमहाभूतों का समूह गाढ़ा बनता है। यदि वह समूह पिण्डाकृति हो तो पुत्र और पेशी (दीर्घाकृति) हो तो कन्या तथा अर्बुद गोला ( ज्नउवनत ) के परिमाण का हो तो नपुंसक होता है। तीसरे माह में दो हाथ, दो पैर और सिर ऐसे 5 अवयवों क पिण्ड होते हैं और गर्दन, छाती, पीठ तथा पेट ( ैजवउंबी ) ये अंग और ठोड़ी, नासिका ( छवेम ), कान, अंगुली, एड़ी आदि प्रत्यंगों का विभाग अस्पष्टतया ज्ञात होता है। चौथे मास में सब अंग-प्रत्यंग के विभाग बहुत स्पष्ट हो जाते हैं तथा गर्भ का हृदय स्पष्ट होने से चतना धातु व्यक्त होता है। क्योंकि हृदय चेतना धातु का स्थान (आश्रय) है। इसलिये इन्द्रियार्थ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध- इनकी अभिलाषा चौथे मास में होती है। पांचवे मास में मन अधिक प्रबुद्ध एवं सचेत होता है। छठे मास में बुद्धि प्राप्त होती है। सातवें में सब अंग-प्रत्यंगों की अभिव्यक्ति होने लगती है। जैसे चार शाखा, सिर और कोष्ठ ये 6 अंग-प्रत्यंग ग्रीवा-मूर्धादि स्पष्ट हो जाते है। आठवें मास में ओज चंचल रहता है। इस मास में बालक पैदा होने पर नैऋर्त भाग के कारण तथा ओजधातु क्षीण रहने से सम्भवतः जीवित नहीं रहता। नवमें, दसवें या ग्यारहवें या बारहवें मास में उत्पन्न बालक जीवित रहता है। इसके बाद यदि प्रसव न हो तो वह विकारी गर्भ माना जाता है। (सुश्रुत शा0 3/14)
जीव का गर्भवास
श्रीमद्भागवतमहापुराण तथा गरूडपुराण सारोद्धार में जीव के गर्भवास का वर्णन विस्तार से मिलता है। उसके अनुसार ‘माता द्वारा भुक्त अन्न या पेय पदार्थ आदि बढ़ा है रस, रक्त आदि धातु जिसका, ऐसा प्राणी असम्मत अर्थात जिससे दुर्गन्ध आती है, जिसमें जीव का सम्भव है ऐसे विष्ठा और मूत्र के गर्त में सोता है। कोमल होने से गर्त में होने वाले भूखे कीड़ों के काटे जाने पर हरपल उस क्लेश से पीड़ित हो मूर्छित हो जाता है। माता से खाये हुये कडुवे, तीक्ष्ण, नमकीन, रूखे और खट्ठे आदि उल्बण पदार्थ से छुए जाने पर अंगों में वेदना होती है तथा जरायु और आंत के बन्धन में पड़कर पीठ और गर्दन के लचकने से कांख में सिर करके पिंजरे के पक्षी के समान अंगों के चलाने में असमर्थ हो जाता है। वहां दैवयोग से सौ जन्म की बात स्मरण कर लम्बी सांस लेता है। अतः कुछ भी सुख नहीं मिलता। संतप्त और भयभीत जीव धातुरूप सात बन्धनों में जकड़ा तथा हाथ जोड़कर, जिसने इस उदर में डाला है, उसकी स्तुति करता है जीव। ये स्तुति गरूडपुराण में इस प्रकार दी हुई है-
श्रीपतिं जगदाधारमशुभक्षयकारकम्।
व्रजामि शरणं विष्णुं शरणागतवत्सलम्।।
त्वन्मायामोहितो देह तथा पुत्रकलत्रके।
अहंममाभिमानेन गतोअहं नाथ संसृतिम।।
कृतं परिजनस्यार्थे मया कर्म शुभाशुभम्।
एकाकी तेन दग्धोअहं गतास्ते फलभागिनः।।
यदि योन्याः प्रमुच्येअहं तत् स्मरिष्ये पदं तव।
तमुपायं करिष्यामि येन मुक्तिं व्रजाम्यहम्।।
विण्मूत्रकूपे पतितो दग्धोअहं जठराग्निना।
इच्छन्नितो विवसितुं कदा निर्यास्यते बहिः।। (ग0पु0 सा0 6/16-20)
अर्थात ‘हे लक्ष्मीपति! जगत के आधार, अशुभ के नाशकर्ता, शरणागत के वत्सल श्रीविष्णु! मैं आपकी शरण हूं। आपकी माया से मोहित होकर देह में मै तथा पुत्र-स्त्री में मेरा अभिमान करके हे नाथ! मैं संसार में प्राप्त हूं। मैंने कुटुम्ब के लिये शुभ-अशुभ कर्म किया, परन्तु उस कर्म से मैं अकेला दग्ध होता हूं और ये कुटुम्बी फल के भागी हुये। यदि योनि से छुटकारा हुआ तो आपके चरणों का स्मरण करूंगा, जिससे संसार से मुक्त हो जाऊं। विष्ठा और मूत्र के कूप में गिरा हुआ मैं बाहर निकलने की इच्छा करता हुआ जठराग्नि से दग्ध हो रहा हूं, मुझे आप कब बाहर निकालेंगे।’
इस प्रकार के करूण विलाप को सुनकर सर्वान्तर्यामी ईश्वर उस पर अपनी अहैतुकी कृपा कर उसे उस नारकीय स्थान से बाहर निकाल देते हैं और जब वह कर्म भोगकर बाहर आता है तभी वैष्णवी माया उस जीव को मोहित कर लेती है तथा वह माया में पड़कर कुछ नहीं बोलता और संसार चक्र में पुनः घूमने लगता है। किन्तु पूर्वजन्म के प्रबल संस्कार से यदि वह भगवद्धभक्ति के सुमार्ग पर चलता है तो इस जन्म में अपना उद्धार कर सकता है। अतः माता-पिता को चाहिये कि अपने बालकों में शुरू से ही इस प्रकार के जीवन के उद्धार संस्कार डालें, जिससे जीव का कल्याण हो सके।
गर्भवास का वर्णन आयुर्वेद ग्रन्थों में इस प्रकार से प्राप्त होता है- (चरक, शारीरस्थानम 6/15) ‘गर्भ की अपनी प्यास और भूख नहीं होती। उसका जीवन पराधीन होता है। कहने का तात्पर्य माता के अधीन होता है। वह सत् और असत् (सूक्ष्म) अंगों वाला गर्भ माता पर आश्रित रहता हुआ उपस्नेह (रिसकर आये रस) और उपस्वेद (उष्मा) से जीवित रहता है। जब अंग के अवयव व्यक्त हो जाते हैं अर्थात स्थूल शरीर में आ जाते हैं, तब कुछ तो लोमकूप के मार्ग से उपस्नेह होता है और कुछ नाभिनाल के मार्ग से। गर्भ की नाभि पर नाड़ी लगी रहती है। नाड़ी के साथ अपरा जुड़ी रहती है और अपरा का सम्बन्ध माता के हृदय के साथ रहता है। गर्भ को माता का हृदय स्पन्दमान (बहती हुई) सिराओं द्वारा उस अपरा को रस या रक्त से भरपूर किये रहता है। वह रस गर्भ को वर्ण एवं बल देनेवाला होता है। सब रसों से युक्त आहार रस गर्भिणी स्त्री में 3 भागों में बंट जाता है। एक भाग उसके अपने शरीर की पुष्टि के लिये होता है और दूसरा भाग क्षीरोत्पत्ति के लिये तथा तीसरा भाग गर्भवृद्धि के लिये होता है। इस प्रकार वह गर्भ इस आहार से परिपालित होकर गर्भाशय में जीवित रहता है।’
सुश्रुत संहिता (2/52) कहती है ‘माता के निःश्वास, उच्छ्वास, संक्षोभ तथा स्वप्न से उत्पन्न हुये निःश्वास, उच्छ्वास, संक्षोभ और स्वप्नों को गर्भ प्राप्त करता है। अर्थात जब तक बालक माता के गर्भ में रहता है, वह माता के शरीर के अंग के समान होता है और माता के प्रत्येक भले-बुरे कर्म का परिणाम जैसे उसके शरीर पर होता है, वैसे ही गर्भ के ऊपर भी होता है। माता जब श्वास लेती और छोड़ती है, तब उसके रक्त के साथ-साथ गर्भ रक्त की भी शुद्धि होती है। माता जब सोती है तो उसके साथ-साथ गर्भ को आराम मिलता है। माता जब भोजन करती है, तब उसके शरीर के पोषण के साथ गर्भ का भी पोषण होता है। माता जब संक्षुब्ध होती है, तब उसके शरीर ( ठवकल ) पर जो परिणाम होता है, वही परिणाम गर्भ पर भी होता है। कहने का तात्पर्य कि माता के प्रत्येक कर्म के साथ-साथ गर्भ भी वही कर्म करता महसूस होता है। वास्तव में न गर्भ श्वास लेता है, न सोता है, न भोजन करता है, न क्रुद्ध होता है और न मल-मूत्र का त्याग ही स्वतन्त्रवृत्ति से करता है।’ गर्भ पूर्णतया माता की वृत्तियों पर आश्रित होता है। इसलिये माता को हमारे शास्त्र ये आदेश देते हैं कि वह अच्छा भोजन करे। जो अधिक नमकीन, कडुये, तीखे, खट्टे आदि पदार्थों से रहित हो। परिश्रम अधिक न करे। ऐसी बातें न करे जो मन को कष्ट देती हां। गन्दे वस्त्र धारण न करे। मैथुन, वाहन की सवारी आदि छोड़ दे। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिये। अच्छी वस्तुओं का दर्शन करे। अच्छी कथाएं सुने। कुसंग का त्याग करे। एैसा करने से गर्भ में पल रहे शिशु को किसी प्रकार की पीड़ा नही होगी और वह अच्छा व शुद्ध जीवन व्यतीत करेगा। अष्टांगहृदय, शारीरस्थान ( 1/56) ग्रन्थ कहता है- ‘गर्भ की नाभि में लगी नाड़ी के द्वारा माता के आहार-रस से गर्भ का पोषण केदारकुल्या न्याय से होता है। जिस प्रकार एक किसान कई क्यारियों में बोये पौंधों की सिंचाई करता है। उसी प्रकार नाभि नाड़ी की एक ही मूल नाली से जाते हुये आहार रस के द्वारा कई धातुओं का पोषण होता है।
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